दोस्ती का एक खास दिन कितना जरूरी
रोहित नागे
दोस्ती को भी आज की पीढ़ी ने एक दिन के बंधन में बांध दिया। शायद, सालभर के बाकी दिन दुश्मनी के होतें हों। या यंू कह लें कि पैसे कमाने की, कुछ लोगों को कॅरियर बनाने की इस भागमभाग में दोस्ती के लिए वक्त ही नहीं मिलता होगा? दरअसल दोस्ती के मायने ही आज की पीढ़ी ने बदल लिए हैं। हममें में कई मेरी पीढ़ी के लोग भी जो खु़द को अब भी यंगिस्तान का ही वाशिंदा समझते हैं, बहे जा रहे हैं दोस्ती की इस धार में। शायद दोस्त की जरूरत केवल एक दिन की होती है।
मेरी राय में, ऊपर की सभी बातें सही भी हैं, तो दोस्ती को किसी एक दिन या समय में बांधा जाना असंभव नहीं बल्कि नामुमकिन भी है। दरअसल दोस्त की जरूरत हर पल होती है, दोस्ती की जरूरत भी इसी के समानांतर चलती है। दोस्त, हमेशा होता है, दोस्ती भी उसकी के साथ चलती है। यह तो कुछ पाश्चात्य संस्कृति के रहनुमाओं ने इसे दिन विशेष में बांधने की रीति चला दी है।
पश्चिम के लोग हिन्दुस्तान में व्यापार करने आए थे, दो सौ साल गुलाम बनाकर रखा और जब वे अपने नश्वर शरीर को यहां से ले गए तो एक सोच छोड़ गए। उनकी गुलामी से तो हम आज भी आजाद नहीं हैं, मानसिक गुलामी। उन्हीं की तरह व्यवहार करना, उन्हीं की तरह जीने की कोशिश करना, उनके खानपान की नकल करना। यह सबकुछ मानसिक गुलामी ही तो है। दोस्ती का दिन, मित्रता दिवस या फ्रेन्ड्शिप डे। क्या इससे पहले, हिन्दुस्तान में दोस्त नहीं होते थे ? हमने अपनी पीढ़ी को श्रीकृष्ण-सुदामा की मित्रता सिखाई ही नहीं, हमने श्रीराम-सुग्रीम की मित्रता के किस्से ही नहीं सुनाए। और यह सब कुछ हुआ है, एकल परिवारवाद से।
पहले हमारे घर के बुजुर्ग अपने बच्चों को किस्से-कहानियां सुनाते थे, इनमें ज्यादातर कहानियां सीख देने वाली होती थीं। आज छोटा परिवार, सुखी परिवार को हमारी आज की पीढ़ी ने अपने अनुसार परिभाषित कर लिया। छोटा परिवार यानी, हम दो और सिर्फ हमारे दो। माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम है न! छोटा परिवार तो सीख लिया, लेकिन सुखी परिवार की सीख जिनसे मिलती, उनको वृद्धाश्रम में छोड़ दिया, बच्चे आया के भरोसे हैं तो वे वही सीखेंगे जो आया सिखाएगी। या फिर वही जो आपने अपने माता-पिता के साथ किया है। जब वे बड़े होंगे तो वही करेंगे जो आपने अपने माता-पिता के साथ किया। उनको बुजुर्गों का साथ मिला होता तो सीखते ने श्रीराम-सुग्रीम और श्रीकृष्ण-सुदामा की मित्रता के विषय में! कैसे मित्रता निभाई जाती है, कैसे हर पल मित्र के लिए होता है, केवल कोई एक दिन नहीं।
अधिक नहीं, करीब डेढ़ दशक पूर्व तक मित्रता दिवस, मदर्स डे, फादर्स डे, प्रेम दिवस जैसे शब्द लोग जानते भी नहीं थे। उस समय ग्रीटिंग काड्र्स ने जन्म लिया और साथ में ये दिवस भी पैदा हो गए। जितने दिवस होंगे, ग्रीटिंग्स का व्यापार उतना ही फलेगा-फूलेगा। गिफ्ट बिकेंगे। आज समय बदला। हाथ में मोबाइल आया तो मैसेज का जन्म हुआ। धंधा तो अब भी चल रहा है, हां थोड़ा रूप बदल गया है। अलबत्ता ग्रीटिंग कार्ड भले ही बाजार से गायब हो गए, उपहार आज भी हैं, ग्रीटिंग की जगह ले ली फ्रेन्ड्शिप बैंड ने। कभी हमारे यहां राखी बंधा करती थी। भाई और बहन के पावन प्यार का प्रतीक। अब दोस्त, एक दूसरे को राखी बांधते हैं, नाम दे दिया फ्रेन्ड्शिप बैंड। ये अंग्रेजी गुलामियत ने हमारे संस्कृति पर भी हमला किया है। पुराने लोग तो नहीं डिगे, नयी पीढ़ी थी, कोरी बुद्धि। उस पर जैसा चाहा चित्र अंकित कर दिया। बदलाव अब भी संभव है। बस इसके लिए फिर से वापस चलें, संस्कृति की ओर जैसा कोई अभियान चलाना होगा। शायद, भ्रमित पीढ़ी को कुछ सद्बुद्धि आ जाए और वह हर दिन दोस्ती का, भाईचारे का, परिवार का, अपने भविष्य का जैसी भावना से ओतप्रोत हो जाएं! और हां, यह मेरी पीढ़ी के लोगों को सबसे पहले इस मानसिकता से आजाद होना होगा, जो चल पड़ी है, वही अंग्रेजियत की राह पर।