कल तक मैं नि:शब्द था। ऐसा लग रहा था मानो मेरे अपने परिवार का ही कोई सदस्य सदा के लिए चला गया हो। आज समय की मलहम से जख्म को थोड़ी सी राहत मिली तब कहीं जाकर यह कलम चल पा रही है। मेरा उनका साथ 43 वर्ष पुराना जो था। उनके इटारसी आने के बाद मेरा परिवार शहर के उन पांच प्रथम परिवारों में शामिल था, जिसके वे फेमिली डॉक्टर बने थे। मेरी उनसे अंतिम मुलाकात 24 फरवरी को तीसरी लाइन में स्व.सुरेश भैया के पुत्र पुनीत के विवाह उपलक्ष्य में आयोजित पीले चांवल के प्रसंग पर हुई थी। पीछे कुर्सी पर बैठा मैं बेनी शर्मा रमेश साहू आदि के साथ बैठकर बहुत धीमी गति से डॉयफ्रूट खा रहा था इतने में कार्यक्रम खत्म हो गया व डॉ.हेडा मंडप से बाहर निकले, अकेले मेरे हाथ में प्लेट देखकर मुस्कुराते हुए बोले – क्यों दूसरी प्लेट है क्या? मैं बस मुस्कुरा दिया कुछ नहीं बोला। तब मुझे जरा भी अहसास नहीं था कि यही मेरी उनसे आखिरी मुलाकात होगी। आजकल वे कम ही मुस्कुराते थे, प्राय: गंभीर ही रहते है, हास परिहास भी कम ही करते थे। पिछले 10 सालों से उनकी यह मुस्कुराहट व हास परिहास उत्त्तारोत्तर कम होता देखा मैंने। अक्सर गंभीर दिखते थे किसी चिंतन में , ध्यानस्थ से अध्यात्म की धारा में संवाहित से । उनका एकांत व पूजा साधना का समय भी बढ़ता हुआ महसूस किया मैंने।
भौतिक रूप से विवेचना करूँ तो अपने मरीज के रोग की सटीक पहचान व उसके सटीक उपचार का उनका आत्मविश्वास व अपने मरीज को जल्द से जल्द स्वस्थ कर देने की उनकी इच्छाशक्ति बेमिसाल थी। उनकी बॉडी लेंगवेज देखकर ही उनके स्पर्श करते ही, उनके कुछ बोलते ही मरीज 50 फीसदी तो तुरंत रिलेक्स हो जाता था। मानों कोई स्पर्श चिकित्सा की हो। कभी कभी ऐसा लगता था कि मानों वे मरीज के रोग को ओवरलुक कर रहे हों पर यह उनके सटीक डायगनोस का आत्मविश्वास होता था जो उनकी बेफिक्री में दिखता था। वे मुझसे कहते भी थे अपना स्टेथस्कोप दिखाकर कि यदि डॉक्टर में योग्यता हो तो शरीर की 45 प्रमुख बीमारियों को तो यह स्टेथस्कोप ही बता देता है बिना कोई टेस्ट किये। पल्स-रेट देखने के लिए मरीज की नब्ज़ पर उनकी उंगलियां ही ब्लडप्रेशर बुखार एसिडिटी आदि कई अन्य बीमारियों को पहचान लेती थी। आयुर्वेद में नाड़ी वैद्य को बहुत उच्च स्थान प्राप्त है, मुझे कभी-कभी ऐसा ही लगता था कि कहीं वे भी ……….। एक बार मैंने उनसे नाड़ी वैद्य होने का जिक्र भी किया था तो वह मुस्कुरा दिये और विषयांतर कर दिया। पर अपने मरीज के प्रति इतने काम्फीडेंट रहने वाले डॉ हेडा विगत कुछ सालों से स्वयं के स्वास्थ्य के प्रति काफी अधिक संवेदनशील होते जा रहे थे। मुझसे भी उन्होंने कई बार इस संदर्भ में चर्चा की।
मुझसे कहते थे कि तुम भी मेरी तरह अपने शरीर के प्रति जरूरत से ज्यादा संवेदनशील हो। तुमको आधी बीमारियां तो इसी कारण से होती है। एक बार उन्होंने एक वाक्या भी सुनाया। वे बोले कल रात मैंने एक गले के कैंसर से ग्रस्त मरीज को देखा, रात में जब भोजन करने बैठा तो लगा कि मेरा गला जाम हो रहा है, मैं काफी परेशान था, दूसरे दिन समझ आया कि इसका कारण मानसिक ही था।वह बोले कि मैं भी सबकी तरह एक इंसान ही हूं। कई मरीजों की बीमारी मानसिक स्तर की होती है जिसको तुरंत पहचान लेता हूं पर स्वयं अपने मामले में ही कई बार भ्रमित हो जाता हूं।
मेरी उनसे पहली मुलाकात मेरे अपने घर पर ही हुई थी। तब मैं 12 साल का रहा होऊंगा। यह वह दौर था जब फिजिशिएन एम डी डॉक्टर भी जरूरत पड़ने पर बहुत सहजता से अपने पेशेंट को देखने उसके घर आ जाते थे। यहां तक कि रात 12 बजे भी। मुझे मेरे एक अन्य बहुत पुराने फेमिली डाक्टर एनआर खंंडेलवाल जी आज बहुत याद आ रहे है जो अपने पेशेंट को देखने 24 घंटे तैयार रहते थे। कभी कोई झल्लाहट या अनमना होने का भाव चेहरे पर नहीं दिखता था, हालांकि उस दौर में भी ऐसे डॉक्टर थे जो किसी पेशेंट के घर नहीं जाते थे पर अधिकांश डॉक्टर जाते थे बड़ी सहजता से। मैंने वो दौर देखा है। अत: आज का यह दौर देखकर बड़ी पीड़ा होती है। जब कोई डॉक्टर इमरजेंसी में भी डिस्पेंसरी बंद कर देने के बाद मरीज को देखना पसंद नही करता। हालांकि अपवाद हमेशा रहते है व आज भी है। डॉ.हेडा की एक ओर बात जो मुझे काफी पसंद थी वह यह कि वह बहुत कम अपने मरीजों को भोपाल, नागपुर या अन्य कही रेफर करते थे। स्वयं पूरी जिम्मेदारी से उसे संभालते थे व उसे प्राय: स्वस्थ भी कर देते थे। कोई मरीज नहीं मानता था तो पहले ही बता देते थे कि चैकअप करा आइये पर रिपोर्ट क्या आएगी यह मैं अभी बता देता हूं। प्राय: वही रिपोर्ट आती भी थी। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ, उनके मना करने पर भी मैं 8 साल पूर्व नागपुर गया, इण्डोस्कोपी आदि टेस्ट कराने। लौटकर जब रिपोर्ट दिखाने गया तो मेरे कक्ष में प्रवेश करते ही बिना रिपोर्ट देखे ही मुस्कुराकर बोले कर आए अपने मन की, 10 हजार निपटा दिए। मैंने कहा कि रिपोर्ट तो देख लीजिए तो बोले चलो देख लेता हूं ।एक मिनिट भी नहीं लगा और फाइल एक तरफ पटक दी। मैंने कहा कि बहुत सी दवाई लिख दी है उन्होंने, मैं खरीद भी लाया हूं। बोले तुमको लेना हो तो लो वरना अपना पुराना पर्चा ही पर्याप्त है। तुमको कोई प्रॉब्लम नहीं है। पांच दिन में ही उनकी यह बात मुझे समझ आ गई। मुझे हाइपर एसिडिटी रहती है जिसे गैस बनना कहते है, आम बोलचाल में डॉ.हेडा कहते है कि अधिकांश मामलों में यह आइबीएस होती है। इररेटिबल बोवेल सिंड्रोम जिसका कोई टेस्ट नहीं होता। क्योंकि यह कोई बीमारी ही नहीं । इसमें गैस पेट से ऊपर की तरफ आती है जिससे घबराहट होती है। मरीज बीपी पेशेंट होता है तो उसका बीपी भी बड़ जाता है थोड़ा। डॉ.हेडा इसके लिए कहते थे एन्जायटी अर्थात चिंता , तनाव सोच विचार करना छोड़ दो। रिलेक्स रहो। व्यस्त रहो यही सबसे बड़ी दवा है। मैं कहता कि मेरा तो कैपिटल मार्केट का बिजनेस ही एंजायटी का है। हालांकि पत्रकारिता में तो अब तक कभी कोई प्रेशर नहीं दे पाया।वह कहते थे कि बड़ा मजेदार संयोग रहता है कई बार गैस बनने पर होने वाली घबराहट को मरीज हार्ट प्राब्लम समझने लगता है तो हार्ट प्राब्लम वाला इसे गैस समझकर धोखा खा जाता है। अब सार्वजनिक जीवन की बात कहूं तो मेरी उनसे ज्यादा घनिष्टता पहली बार जब बनी तब मैं रोट्रेक्ट क्लब का सचिव व अध्यक्ष रहा। डॉ.हेडा एक अच्छे वक्ता व मंच संचालक भी थे। अत: रोटरी क्लब के प्रत्येक कार्यक्रम का मंच संचालन वे ही करते थे। एक बार उनकी अस्वस्थता के कारण स्व.पीडी डागा ने मुझे रोटरी क्लब के पद्ग्रहण कार्यक्रम का संचालन करने को कहा जिसे रोटरी में मास्टर ऑफ सेरेमनी कहते है। मैंने कहा भी कि मैं कैसे कर सकता हूं। रोट्रेक्टर हूं। उम्र का बंधन होने से तब तक रोटेरियन नहीं बन पाया था। पर डागा जी नहीं माने, बोले डॉ.हेडा नहीं कर पा रहे अत: तुमको करना ही पड़ेगा। मैंने किया। संयोग से पहली बार में ही अच्छा हो गया। डॉ.हेडा भी कार्यक्रम में आए थे। उन्होंने कार्यक्रम के बाद सबके सामने घोषणा कर दी कि अब से चंद्रकांत ही करेगा रोटरी के हर कार्यक्रम का संचालन।
मैं कई साल से कर रहा हूं अत: अब मेरा योग्य उत्तराधिकारी आ गया है तो मुझे छुट्टी दे दो। तब से लेकर पहले रोट्रेक्ट क्लब में रहते हुए चार साल व फिर रोटरी क्लब में उपाध्यक्ष पद तक की अपनी 11 साल की सेवा यात्रा में एक रोटेरियन के रूप में मैंने रोटरी के हर कार्यक्रम का संचालन किया। वो तभी रूका जब एक रोटेरियन के दुरागृह का शिकार होकर मैंने दु:खी होकर रोटरी क्लब ही छोड़ दिया। डॉ.हेडा व डॉ.सीतासरन शर्मा आदि कई सीनियर ने भी रोटरी क्लब छोड़ दिया। तब कुछ समय तक रोटरी क्लब में भारी गुटबाजी हो गई थी अंतरराष्ट्रीय फीस आदि को लेकर भी विवाद हो गया था। एक ओर घनिष्टता का समय तब आया था जब रोटरी में रहते हुए मैंने डॉ.हेडा कैलाश डोंगरे आदि कुछ रोटेरियन ने शहर के अन्य बुद्धिजीवियों प्रमुख लीगों के साथ मिलकर् एक गैर राजनैतिक समूह बनाया, पहली बार डॉ.सीतासरन शर्मा को विधानसभा की टिकिट देने की मांग को सफल बनाने के लिए। तब जिले में भाजपा के दो शिखर पुरूषों स्व.श्री हरिनारायण जी अग्रवाल व सरताज जी से बात करने के लिए जिनके कहने पर ही प्रदेश संगठन टिकिट देता था। सरताज जी तो आसानी से मान गये पर स्व.हरिनारायण जी संगठन के सिद्धांतों के अनुरूप सख्त अनुशासन के साथ चलते थे अत: वह डॉ.शर्मा के भाजपा ज्वाइन करते ही उनको टिकिट देने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि वरिष्टता के नाते अन्य दावेदार भी थे। चूंकि मुझे स्व.हरिनारायण जी काफी स्नेह करते थे अत: उनको मनाने की जिम्मेदारी मुझे ही सौंपी गई थी। फिर जो कुछ हुआ बहुत लंबा प्रसंग है जो फिर कभी पर रिजल्ट यह रहा कि डॉ.शर्मा को पहली बार टिकिट मिल ही गई व वह जीत भी गये। यह प्रसंग यह बताने के लिए भी की डॉ.हेडा से डॉ.शर्मा के संबंध प्रारंभ से ही व्यक्तिगत व काफी आत्मीय रहे। उनके राजनीति में आने के बहुत पहले से ही।पर डॉ हेड़ा ने कभी कोई राजनीतिक लाभ नहीं लिया मेरी तरह ही इस संयोग से भी मैं उनको पसन्द करता था।नई पीढ़ी शायद नहीं जानती होगी कि डॉ.हेडा का क्लीनिक पहले स्व.सुरेश अग्रवाल के शिवा काम्पलेक्स वाली जगह पर था। कई सालों तक डॉ.हेडा का क्लीनिक डॉ.शर्मा के स्थानीय कार्यालय वाली जगह पर भी रहा। उनके निवास स्थान के फ्रंट एरिया में रहा जहां आधे भाग में एक पैथालॉजी लैब भी थी जिसका संचालन डॉ.शर्मा करते थे व निजी प्रेक्टिस नहीं करके गुरूनानक फ्री डिस्पेंसरी में अपनी नि:शुल्क सेवाएं देते थे। डॉ.हेडा की हिन्दी व व्याकरण उच्च कोटी की थी यह कम लोग ही जानते है। कई बार मेरे कॉलम व या अन्य लेखन पर उनकी प्रतिक्रियाओं से यह स्पष्ट हुआ मुझे। एक बार उनकी विदेश यात्रा के संस्मरण भी मैंने एक साप्ताहिक में 4 माह तक लगातार प्रकाशित किये थे। वे पहले नहीं दे रहे थे बोले तुझे जो पूछना है पूछ लें बता दूंगा। प्रकाशन के लिए इतना सारा मुझसे नहीं लिखा जाएगा। तब मैंने कहा कि आप सिर्फ पॉइंट लिखकर भेज देवें बाक़ी सब मैं आपकी कलम बनकर लिख लूंगा। तब वे माने। उनका कम्पाउंडर लखन हर हफ्ते दे जाता था मुझे कुछ पर्चियां। कहता था डॉ साहब बोलते हैं ये चंद्रकांत ने मुझे कहाँ फंसा दिया। जब संस्मरण की सभी किस्तें प्रकाशित हो गईं तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि मुझे नहीं पता था कि तुम सिर्फ लिखने में ही सिद्धहस्त नहीं हो किसी के भाव व विचार पढ़ लेने की कला भी है तुममें। कम ही लोगों को यह बात पता होगी कि कई देशों की मेडिकल रिसर्च यात्रा करने वाले डॉ हेड़ा 2 3 साल पहले कोरोना के जनक देश चीन की एक सप्ताह की यात्रा पर भी गए थे सीनियर डॉक्टर्स की एक टीम के साथ। मैंने जब पूछा कि कहां कहां घूम आये क्या क्या देखा। तो तपाक से बोले चीन में हम वहीं घूम पाए जहां चीन वाले चाहते थे। किसी भी शहर या स्थान पर जाने की परमिशन लेनी पड़ती थी जो उनकी इच्छा उनकी सुविधा से ही मिलती थी।उनकी नज़र से ही सब कुछ देखना था तो फिर क्या देखते क्या सोचते ? बस वहां का वैभव ही देख पाए। चीन कितना शातिर व सेल्फिश देश है यह स्पष्ट हुआ। डॉ हेड़ा ने जितनी विदेश यात्राएं कीं उतनी ही आध्यात्मिक यात्राएं भी किन। मानसरोवर की दुर्गम यात्रा भी की तो भारत के इतिहास की हर गौरवशाली विरासत वाली जगह पर गये। विगत कुछ वर्षों से उनकी ऐसी यात्राएं काफी बढ़ गईं थीं। शिकायत करने पर कहते यार थोड़ी सी जिंदगी अपनी इच्छा से भी जी लेने दे। उनकी आवाज में एक दर्द भी होता था व एक आत्मसंतुष्टि भी। आज सोचता हूँ कि क्या उनको अपने महाप्रयाण का अहसास हो गया था। मेरी नज़र में डॉ हेड़ा एक बहुत अच्छे मनोरोग विशेषज्ञ भी थे। बिना डिग्री के भी। उनको आयुर्वेद व होम्योपैथी की चिकित्सा पद्धति से भी कभी कोई परहेज नहीं रहा। पर पहले वह स्वयं अपने ऊपर प्रयोग करते थे फिर अपने मरीज को सलाह देते थे। फरवरी माह में ही अपने बेटे को दिखाने गया व कहा कि उसकी गले की खराश 15 दिन से ठीक नहीं हो रही तब डॉ.हेडा ने तपाक से एक आयुर्वेदिक दवा सजेस्ट कर दी, वे बोले कि मुझे भी एक माह से खांसी थी वो आखिर इसी दवा से ठीक हुई, तुम भी बेटे को दो। उन्होंने स्वयं डॉ.सुनील गुरबानी से भी होम्योपैथी का ट्रीटमेंट दो-तीन बार लिया ऐसा पता चला था मुझे एक बार। पर दूसरी पैथी की चिकित्सा पद्धति की दवा पर वे तभी भरोसा करते थे जब उसके परिणाम स्पष्ट देख लेते थे। एलोपैथी की दवाओं पर वे स्वयं कहते थे कि यदि तुम किसी भी दवा के साइड इफ़ेक्ट पढ़ लो तो लोगे ही नही। अत: एलोपैथी दवाएं यथासंभव कम से कम लेना चाहिए। खान-पान में ज्यादा परहेज के पक्षधर भी वे कभी नहीं रहे। बस इतना कहते थे कि तुम्हारे शरीर को सूट होता है तो जो खाना है खाओ।
डॉ हेड़ा शहर में बढ़ते तम्बाखू गुटका के चलन से बहुत दुखी थे। वे शहर के कई पुराने लोगों के नाम गिनाते हुए कहते थे कि इनको तम्बाखू खाने से ही केंसर हुआ था। वे चाहते थे कि शहर का मीडिया शहर व जिले में भी तम्बाखू व तम्बाखू गुटके के खतरों से सभी को व खासतौर से युवा पीढ़ी को आगाह करे जनजागरण करे अन्यथा आने वाला कल बहुत भयावह हो सकता है। मेरे सामने एक बार एक युवा बेचैनी घबराहट की शिकायत लेकर उनके पास आया तो उन्होंने चेकअप करके कहा कुछ नहीं है सब ठीक है। युवा मरीज़ को आश्चर्य हुआ कि उसे इतनी तकलीफ है फिर भी…..। उसने कहा दवा लिख दीजिए। डॉ हेड़ा बोले जो कहूंगा करोगे। युवक बोला हाँ। डॉ हेड़ा बोले बस तम्बाखू वाला गुटका खाना बंद कर दो तुमको किसी दवा की जरूरत नहीं है। युवक चुपचाप सिर झुका चला गया। पत्रकारों को उनके यहां नम्बर नहीं लगाना पड़ता था बस अपने नाम की पर्ची भेजनी होती थी व वे बुला लेते थे तुरन्त केबिन में । अपनी कलम को विराम उस सबसे महत्वपूर्ण बात से करना चाहता हूं जो डॉ.हेडा की शहर को लेकर उनकी चिंता को अभिव्यक्त करती है। उन्होंने तीन-चार बार मुझसे कहा कि नए डॉक्टर लाओ इटारसी में बहुत जरूरत है। मेरे जैसे सीनियर डॉक्टर के भरोसे अब यह शहर नहीं चल पायेगा। डॉ.दुबे को अटैक आने के बाद जब वे कुछ स्वस्थ होकर इटारसी आए तो उन्होंने मुझे एक दिन देखते ही पूछा कैसे है अब अज्जू भैया? मैंने कहा कि ठीक है, तो बोले भगवान करें जल्द से जल्द पूर्ण स्वस्थ हो जाये शहर की चिकित्सा पर बहुत बड़ा दायित्व उन्होंने अपने कंधों पर उठा रखा था। उनका पूर्ण स्वस्थ होना शहर के लिए बहुत जरूरी है, नए डॉक्टर लाओ अब शहर में कब से कह रहा हूं। मुझसे भी अब ज्यादा मेहनत नहीं बनती, थक जाता हूं जल्द ही। वे थक गये थे यह अहसास तो मुझे था पर इतने थक गए कि इस तरह अचानक कोरोना के कहर को झेल लेने,उससे अच्छी तरह लड़ लेने के बाद हजारों दिलों का सफल इलाज करने में सिद्धहस्त होते हुए भी अपने ही दिल से इस तरह हार जायेंगे, मैंने कभी नहीं सोचा था। वह मुझसे कहते थे याद रखना तुझे कभी कोई हॉर्ट प्राब्लम नहीं होगी। मुझे लगता है कि वे शारीरिक रूप से जितने नहीं थके थे उतने मानसिक रूप से थक गये थे। बहुत भावुक थे वे। यह अलग बात है कि उनकी यह भावुकता कम लोग ही समझ पाये।
अपने प्रोफेशन में सामाजिक मानसम्मान में अग्रणी रहते हुये भी भावनात्मक रूप से उनकी यह थकान कई बार एकांत में मेरे सामने भी अभिव्यक्त हुई पर यह उनकी अपनी बहुत निजी बातें है जिनका उल्लेख मैं नहीं कर सकता। अलबत्ता उनके करीबी सब कुछ जानते है। मैं प्रकृति के,विधाता के इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय से भी बहुत आहत हूं कि डॉ.हेडा को अंतिम विदाई देने, अंतिम दर्शन करने, उसने उन हजारों दिलों को, हजारों आंखों को वंचित कर दिया , जिनके लिए डॉ.हेडा भगवान तो नहीं पर बहुत कुछ ऐसे थे जैसा होना इस दौर के इंसानों में देखने को बहुत कम ही नसीब होता है। डॉ हेड़ा इटारसी के वर्तमान के चिकित्सा आसमान के सूरज की तरह थे जो सूर्यास्त के तय समय से पूर्व ही अस्त हो गया। अनहोनी तो हुई है शहर में। डॉ हेड़ा जैसे अनमोल खजाने को खोने के बाद भी यदि यह शहर नहीं जागा ,नहीं संभला , कोरोना के खिलाफ एकजुट होकर नहीं लड़ा तो फिर इसे अपने ईश्वर से प्रार्थना करने व अपने खुदा से दुआ करने का भी कोई अधिकार भी नहीं होगा।
जय श्री कृष्ण।
चंद्रकांत अग्रवाल, वरिष्ठ लेखक, पत्रकार व कवि हैं जो विगत 35 सालों से साहित्य व पत्रकारिता हेतु लेखन कार्य कर रहे हैं। आप अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों, व्याख्यान मालाओं में देश भर में आमंत्रित व सम्मानित हुए हैं। हजारों रचनाएं कई राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं, अखबारों में प्रकाशित हो चुकी हैं। 4 स्थानीय अखबारों का संपादन कार्य आपके द्वारा किया गया।
Contact : 94256 68826
Thank you, we have known a new aspect about Dr.N.L.Heda. vinarm shradhanjali