बिना वनगमन के वास्तविक राम राज्य संभव नहीं था – प्रज्ञा भारती

इटारसी। समस्त ग्रामवासियों के द्वारा आयोजित ग्राम तारारोड़ा में पंचम दिवस की श्रीराम कथा का श्रवण कराते हुए व्यासपीठ से कागशिला पीठाधीश्वर श्रीमहंत प्रज्ञा भारती ने कहा कि हमें अपने जीवन में श्रीराम कथा के व्यवहारिक रूप को समझना जरूरी है। उन्होंने कहा कि श्रीराम अपने तीनों भाईयों सहित जनकपुर से बारात लेकर लौटे थे, और कुछ दिन बाद ही राजा दशरथ को यह लगा कि उम्र का चौथापन आ गया है। इसलिए उन्हें अब अपना चक्रव्रती सम्राट का पद छोड़कर बड़े बेटे को राज्य का दायित्व सौंप देना चाहिए।
काल को अपनी गणना के अनुसार यह उचित नहीं लगा कि अयोध्या में तत्काल वंश परंपरा शुरू हो जाए ऐसा निजी मानना मेरा है। यह बात प्रज्ञा भारती ने पूरी सावधानीपूवर्क कहीं। उन्होंने कहा कि केकई और मंथरा की बुद्धि सरस्वती ने पलट दी और जैसा आज कलयुग में हो रहा है कि सामने दिखने वाला आरोपी हो जाता है वहीं त्रेता युग में भी हुआ। राज्य की जनता ने और दशरथ के परिवारजनों ने केकई और मंथरा को भला बुरा कहा। उन्होंने कहा कि केकई का राम को चौदह वर्ष के लिए वन भेजना और अपने बेटे भरत को राजगादी दिलाना इसके पीछे कौनसा पुत्रमोह था, यह चिंतन का विषय है।
श्रीमहंत प्रज्ञा भारती ने कहा कि रामायण नित नई खोज का विषय है, उसके एक-एक शब्दों से अलग-अलग अर्थ निकलते है और ऐसा निरंतर होते भी रहना चाहिए क्योंकि रामायण जीवन का एक व्यवहारिक दर्शन है। श्रीमहंत प्रज्ञा भारती ने कहा कि कलयुग में एक व्यक्ति को कलेक्टर बनने के लिए कितने प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है तब जाकर उसको कलेक्टर का पद मिल पाता है। इसी तथ्य को हम रामकथा से भी जोड़कर देंखे।
उन्होंने कहा कि यदि प्रभु श्रीराम को बड़ा पुत्र होने के कारण सीधे राज सिहासन पर बिठा दिया जाता तो एक संकेत यह भी था कि वंश परंपरा में बड़े पुत्र को प्रमुख स्थान दिया जा रहा है, वहीं जिस पुत्रमोह के कारण केकई ने भरत के लिए राज्य सिहासन मांगा वह भरत भी चौदह वर्षो तक राज्य सिहासन पर नहीं बैठे। उन्होंने कहा कि वंश में यदि उपयुक्त समझदार और जिम्मेदारी संभालने वाले पुत्र हो तो चाहे राज्य सिहासन हो अथवा व्यापार उसमें उनको सहभागी बनाया जा सका है, किंतु राम का वनगमन कुछ ओर ही संकेत करता है। राम राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे, लेकिन उन्हें जंगलों के बारे में और वहां के निवासियों के बारे में जानकारी शून्य थी। यहां यह संकेत मिलता है कि भले ही केकई की बुद्धि सरस्वती ने फेरी हो लेकिन राम के वनगमन के पीछे सत्ता संभालने की परिपक्वता की ओर भी एक इशारा है और राम के वन गए बिना यह संभव नहीं था।
श्रीमहंत प्रज्ञा भारती ने कहा कि केकई ने दो वर तो पुत्र मोह में मांगे थे और अकेले राम को वन में भेजने का वर उसमें प्रमुख था, परंतु सीता और लक्ष्मण भी वन में साथ जाएंगें यह मांग न तो केकई ने की थी और न ही केकई इसके पक्ष में थी, लेकिन दूसरी ओर मृत्युपर्यन्त राजा दशरथ की भी इच्छा यह नहीं थी कि राम लक्ष्मण और सीता वन को जाए और जब अंत: राम नहीं माने तब सीता और लक्ष्मण के साथ जाने पर भी दशरथ उन्हें रोक नहीं सकें।
श्रीमंहत प्रज्ञा भारती ने कहा कि पुत्र और भाई कैसे हो यह रामकथा बताती है, वहीं पत्नि धर्म भी किस प्रकार का हो यह भी रामकथा से सीखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि केकई के वर मांगने के बाद प्रभु श्रीराम सीता और लक्ष्मण वनगमन को निकल गए राजा दशरथ को जब पता चला तो उन्होनें अपने मंत्री सुमंत को चित्रकूट भेजा वहीं भरत भी राम को मनाने चित्रकूट गए किंतु उन्हें भी खाली हाथ लौटना पड़ा। निशादराज और केवट के प्रसंग हमेशा याद किए जाने वाले है। अंत में उन्होंने कहा कि बिना वास्तविक वनगमन के रामराज्य संभव नहीं था इसलिए प्रभुश्रीराम ने पिता के निर्णय को ही अंतिम निर्णय माना।

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