इटारसी। पेट की खातिर हम अपनी जन्मभूमि छोड़कर हजारों मील दूर गये थे, लेकिन परदेस में जाकर पता चला कि अपने यहां की आधी रोटी ही अच्छी होती है। परदेस में अधिक कमाने के लालच ने देस छुड़ाया। जाकर पता चला कि वहां पैसा तो है, अपनत्व नहीं है। लॉक डाउन के इस दौर में हमें कोई पूछने वाला नहीं था, सरकारों ने भी हमारी सुध नहीं ली। यह कहना है, कर्नाटक के गुलबर्गा शहर से अपने गृह जिले भिंड लौट रहे मजदूरों की टोली का।
एक ही परिवार के 13 सदस्य बाइक से कर्नाटक के गुलबर्गा से लौट रहे थे, यहां पथरोटा नहर के पास उनकी बाइक खराब हो गयी। बाइक सुधरने में तीन घंटे से अधिक का समय लगा। नहर और प्लायवुड फैक्ट्री के बीच रोड किनारे बैठे थे। भोजन की पूछने पर बताया कि रात 3 बजे नाश्ता किया था। सूचना सचखंड लंगर सेवा समिति और नगर कांगे्रस कमेटी के पास पहुंची तो दोनों ही स्थानों से खाना पहुंच गया। नगर कांग्रेस अध्यक्ष पंकज राठौर ने तो जिन मजदूरों में से कई के पास चप्पलें नहीं थी, उनको नयी चप्पलें भी दीं।
पुलिस ने पैसों की मांग की
परिवार के मुखिया गेंदालाल प्रजापति ने बताया कि वे और उनका परिवार कर्नाटक के गुलबर्गा में पानीपुरी बेचने का काम करते हैं। दो माह से धंधा बंद है, खाने को कुछ भी नहीं बचा, सरकार ने एक दिन भी खाना नहीं खिलाया। यहां तक की हमें आने देने में भी परेशान कर रहे थे। गुलबर्गा से बाहर आने के लिए पुलिस ने हमसे पांच-पांच हजार की मांग भी की, पैसे नहीं थे तो हमने मना कर दिया। आखिरकार कुछ घंटे बाद हमें आने दिया। भूख ने परेशान कर दिया और मजबूरी में दो दशक से कर्मक्षेत्र बनाकर रखे उस शहर को छोड़कर आ गये। अब दोबारा जाने की इच्छा नहीं है, अपने ही गांव में रहकर खेती-किसानी कर लेंगे लेकिन भूखे मरने के लिए दोबारा देस नहीं छोड़ेंगे।
कर्नाटक से बाहर आकर मिली मदद
गेंदालाल ने बताया कि कर्नाटक में मदद नहीं मिली। वहां से बाहर आने के बाद जब वे लोग महाराष्ट्र की सीमा में आये तो खाना भी मिलने लगा और कुछ लोगों ने तो नगद रुपए भी दिये जिससे हमने कहीं-कहीं बिस्कुट आदि लेकर भूख शांत की। मप्र में आकर सबसे ज्यादा मदद मिल रही है। खाने की यहां कोई परेशानी नहीं हो रही है। कई जगह हमें खाना मिल रहा है। इटारसी में भी आकर दो संगठनों ने खाना भी खिलाया और हमारी खराब हो चुकी मोटर सायकिल भी सुधरवाकर दी। हम कर्नाटक से बुधवार 13 मई को निकले थे। पांच दिन में हम इटारसी तक आये हैं। आगे भी भिंड तक का सफर करना है, यहां मदद मिलने से उम्मीद भी बढ़ गयी है कि हम अपने घर पहुंच जाएंगे।
अब नहीं लौटेंगे, खेती किसानी करेंगे
गेंदालाल ने कहा कि पैसे की खातिर देस छोड़ा, परदेस में जाकर पानी पुरी का धंधा किया, यह सोचकर कि ज्यादा पैसा कमाएंगे तो अगली पीढ़ी की परवरिश बेहतर हो सकेगी। लेकिन, इस महामारी ने जान ही मुसीबत में कर दी। महामारी से एक बार बच भी गये तो भूख मार डालेगी। अब समझ में आ गया है कि अपना देस सबसे अच्छा। अब नहीं लौटेंगे परदेस जाने के लिए। देस में पहुंचे तो केवल अपना पुराना काम खेती किसानी करके ही अपना और परिवार का पेट पालेंगे। कर्नाटक वापस लौटने के सवाल पर जवाब मिला, क्या भूखे मरना है? जो अपने देस में मिलेगा वही करेंगे, खेती बाड़ी करेंगे, अधिक पैसों की जरूरत हुई तो अपने गांव के आसपास के शहरों में भी मजदूरी कर लेंगे।