पर राम को समझने के पूर्व हमें जानने होंगे – राम राज्य के मूल तत्व
प्रसंग वश – चंद्रकांत अग्रवाल :
अयोध्या में श्री राम जन्म भूमि पर ही श्री राम मंदिर के भव्य परम् पावन निर्माण की आधारशिला रखने का बहु प्रतीक्षित कर्म अंततः आज देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधित्व करते हुए कर दिया है। जिसके सम्बन्ध में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आज अपने संबोधन में कहा कि पांच शताब्दी की बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद यह क्षण आया है। जिससे सम्पूर्ण देश आज कोरोना के भयावह संक्रमण काल में भी आल्हादित है श्री राम मय है। जैसा कि आज सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी अपने संबोधन में कहा कि सिया राम मैं सब जग जानी के अनुरूप अब हमें अपने अयोध्या रुपी मन में भी श्री राम के आदर्शों का एक मंदिर बनाने की आधारशिला रखने का दिन है। मंदिर तो हमारे इस शुभ संकल्प का सगुण साकार प्रतीक स्वरूप मात्र है। उन्होंने आत्म निर्भर भारत के राष्ट्रीय संकल्प को मंदिर से संवाहित होने वाले राष्ट्रीय आत्म विश्वास से जोड़कर बहुत सुंदर व्याख्या की। श्री भागवत का आज का सम्बोधन अदभुत था जिसमें उनके किसी भी आलोचक को एक शब्द भी आपत्ति योग्य नहीं मिलेगा ऐसा मानता हूँ। सबको उनका वह उदबोधन अवश्य सुनना या पढ़ना चाहिए।
आज प्रधानमंत्री श्री मोदी ने भी कहा कि देश की संस्कृति के केंद्र में श्रीराम आदि काल से रहे हैं क्योंकि श्री राम सत्य व मर्यादा के प्रतीक अवतार पुरुष थे। अतः आज सम्पूर्ण मानवता के आदर्शों के साकार रूप की स्थापना के शुभ संकल्प का भी दिन है।राजनीतिक रूप से भी सिर्फ भाजपा ही नहीं वरन अन्य सभी पार्टियां भी आज मन से हर्षित दिख रहीं हैं। अपवाद तो स्वयं श्री राम के राज्य में त्रेता युग में भी रहे हैं जिनके कारण अयोध्या की महारानी माँ सीता को भी वन गमन की त्रासदी भोगनी पड़ी थी। जिन अपवादों के कारण कलयुग में भी लगातार इस महान कर्म में कई विध्न आते रहे। इस तरह यह ऐतिहासिक प्रसंग राष्ट्रीय एकता अखण्डता के साथ राष्ट्रीय अस्मिता के साथ भारतीय लोकतंत्र की आत्म शक्ति व भारत की अध्यात्म शक्ति को भी रेखांकित कर रहा है। क्योंकि महात्मा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक कांग्रेस के शासन काल में भी देश में रामराज्य के लिए आह्वान कर चुके हैं। भले ही यह आह्वान निरर्थक साबित हुआ । भाजपा ने तो प्रारम्भ से ही श्री राम को अपना आदर्श बताया है माना कितना है यह भी सब जानते हैं। पर आज देश के उच्चतम न्यायालय के न्यायपूर्ण फैसले के उपरांत भाजपा की केंद सरकार व उत्तरप्रदेश की राज्य सरकार ने श्रीराम मंदिर के भव्य पावन निर्माण के लिए जिस जिजीविषा व समर्पण का परिचय दिया वह देश में श्रीराम के आदर्शों की पुनर्स्थापना के लिए मील का पत्थर भी साबित हो ऐसी मंगल कामना करते हुए मैं यह भी याद दिलाना चाहता हूँ कि आज का दिन हम सब देशवासियों के लिए भी श्री राम के आदर्शों की देश में पुनर्स्थापना के लिए आत्म चिंतन का दृढ़ संकल्पित होने का भी दिन बने। क्योंकि हमें याद रखना होगा कि सिर्फ मंदिर बन जाने से ही राम राज्य कभी नहीं आने वाला। पर राम को समझने के पूर्व हमें रामराज्य के मूल तत्व जानने होंगें क्योंकि राम राज्य के दर्पण में ही राम का स्वरूप सरलता से समझ सकते हैं। श्रीराम मंगल भवन व अमंगल हारी हैं। ऐसे राम को भी व्यापक जनहित में सत्ता का त्याग कर 14 वर्ष के लिए वनवास गमन करना पड़ा था। अपने भाव से कहूँ तो यह वास्तव में उनका वनवास नहीं अपितु वन का राज्य था। क्योंकि श्रीराम जब भी जहां भी होंगें,उनसे बड़ा और कौन हो सकता हैं। अत: वे एक तरह से वन के राजा थे। यह वन का राज्य ही वास्तव में बाद में अयोध्या में स्थापित हुए राम राज्य के मंच का नेपथ्य बना। राम राज्य की चर्चा तो प्राय: सभी करते हैं। रामराज्य की कल्पना या उपमा या अलंकरण की बातेंं भी बुद्धिजीवी करते रहते हैं। पर राम राज्य के मूल तत्वों को लेकर जनमानस में, उतना गहन चिंतन कम ही हुआ हैं जितना कि भारतीय संस्कृ ति की रक्षार्थ आवश्यक है। जो चिंतन हुआ भी है तो वह संत महात्माओं ,आध्यात्मिक गुरूओं व विद्वान वक्ताओं,विद्वान लेखकों के स्तर पर हुआ हैं। सामाजिक व राजनैतिक स्तर पर यह दुर्भाग्यवश नही हो पाया है या हुआ भी है तो इसमें दिखावा ही ज्यादा रहा है।
मूर्धन्य मानस मर्मज्ञ श्रीराम किंकरजी उपाध्याय श्री मुरारी बापू व श्री रमेश भाई ओझा ने अवश्य ही अपने अद्वितीय चिंतन के अनन्त आयामों में रामराज्य के मूल तत्वों को जन-जन तक पहुंचाने का सार्थक प्रयास किया हैं। पर हमारी सामाजिक व राजनैतिक त्रासदियोंं के चलते आम आदमी रामराज्य के मूल तत्वों को आत्मसात नही कर पाया हैं। अत: आज की परम आवश्यकता यही है कि राम के देश का जन-जन अपने आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम केे रामराज्य के मूल तत्वों को आत्मसात करें, तभी वह अपने, समाज व राष्ट्र के जीवन को सार्थक बना सकेगा। वर्तमान में मेहवाघाट उत्तरप्रदेश जिसे मुरारी बाबू ने रत्नावली घाट कहा में जारी श्री राम कथा जिसका सीधा प्रसारण आस्था चेनल पर हो रहा है में बापू ने शक्ति की आराधना एक नये आयाम के साथ की। उन्होंनें कहा कि वास्तव में तो रत्नावली ही तुलसीदास जी की कलम की वह प्राणवान शक्ति है जिससे रामचरित मानस रची गयी। रत्नावली का त्याग उर्मिला से कम नहीं । रामचरित मानस में तुलसीदास ने संकेतों मेें ही रामराज्य के सभी गूढ़ तत्व बड़ी सहजता से रेखांकित किए हैं। रामराज्य का अर्थ बहुमत का राज्य नही । रावण का जहां निरंकुश राज्य है तो दशरथ का प्रजाप्रिय राज्य है। फिर भी यह राज्य तंत्र ही हुआ। राम बहुमत को नही सर्वमत को मानते हैं-
कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहुंहित होई।।
रामराज्य में सबके हितों को समान महत्व दिया गया हैं। रामराज्य की व्याख्या करते हुए तुलसीदास जी
बार -बार कहते हैं कि
अल्पमुत्यु नहि कवनिउ पीरा।
सब सुन्दर बिरूज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
श्रीराम सर्व में किसी तरह का संशोधन स्वीकार करने को तैयार नहीं। इसी कारण वे दो व्यक्तियों के मत को भी समान महत्व देते हैं। लोग तो यही कहेंगे कि दो मतों का क्या महत्व हैं? पर श्रीराम मानकर चलते हैं कि अगर दो व्यक्ति भी विरोध करते हैं तो उसके कारण को जानना चाहिए। उनके मनोभावों को समझना चाहिए। राम एक -एक व्यक्ति के मनोभाव पर विचार करते हैं। कैकेयी व मंथरा रामराज्य का विरोध क्यों कर रही है? इसका एक सहज उत्तर तो यह दिया जा सकता है कि दोनों के चरित्र में दोष हैं पर राम नही मानते। राम यह मानते हैं कि इनके मन में कोई न कोई आशंका है। इस घटना को तुलसीदास दूसरे कोण से देखते है। दशरथ जी भी रामराज्य बनाना चाहते हैं पर रामराज्य की उनकी कल्पना सिर्फ इतनी है कि कल स्वर्ण सिंहासन पर राम को आसीन कर , राजतिलक कर देंगे और रामराज्य स्थापित हो जाएगा। पर यह तो परंपरागत राजतंत्र होता ठीक वैसा ही जैसा कि दशरथ अज या दिलीप का था। रामराज्य तो अंत: करण का समग्र परिवर्तन है। जब तक समाज पूरी तरह नही बदल जाता ,तब तक रामराज्य भला कैसे साकार हो सकता हैं? परोक्ष रूप से अयोध्या में नैतिकता का राज्य है पर यहां भी संस्कारों की दुर्बलता है। लंका में यह भयावह रूप में है तो अयोध्या में सूत्र या बीज रूप में हैं। जब लोभ से अंत: करण आक्रांत हो जाता हैं तो कैकेयी का कोप भवन में जाना स्वाभाविक ही है। तीन प्रमुख विकारों लोभ, क्रोध व काम में से लोभ व क्रोध तो स्वयं कैकेयी के रूप में प्रकट हो चुके है। बचा काम तो वह दशरथ जी ने अपने व्यवहार से रेखांकित कर दिया। कैकेयी के प्रति उनकी आसक्ति सर्वज्ञात है। अब जहां लोभ , क्रोध और काम तीनों आ जाएं तो रामराज्य कैसे बन सकता है? इस अवसर पर पहली बार तुलसीदास जी ने दशरथ की आलोचना की है। कैकेयी राम को बुरा नही पर साधु मानती है। अत: दशरथ जी से पूछती है कि तपस्या श्रेष्ठ है या भोग?यहां भोग से अभिप्राय सत्ता से हैं। धर्म का विकृत रूप यहां पर साफ दिखता है। तपस्या श्रेष्ठ है यदि दूसरे का लड़का करे तो और सत्ता श्रेष्ठ है यदि हमारे बेटे को मिले। समाज का यह दर्शन तो रामराज्य निर्मित नही कर सकता । तब रामराज्य कैसे बनता? एक युद्ध श्रीराम ने लंका में लड़ा व दूसरा युद्ध भरत ने आयोध्या में लड़ा। दोनों युद्धों के समापन पर रामराज्य का निर्माण हुआ। राम का युद्ध बाहरी है तो भरत का युद्ध आंतरिक । जब तक आयोध्या में मंथरा व लंका में शूर्पणखा का चिंतन हेैं,रामराज्य नही बनता । इन दोनों विचारधाराओं का पराभाव होना जरूरी है। त्रेता युग का यह सत्य ही आज का सत्य भी है। भविष्य का भी रहेगा। जब भी रामराज्य बनेगा, यह मंथरा व शूर्पणखा की विचारधारा खत्म होने के बाद ही बनेगा। यदि राम यह कहते है कि अन्याय नहीं सहूंगा व लोभ के विरूद्ध लड़ूंगा तो यह लड़ाई लोभ के विरूद्ध लोभ की ही होती है। ऐसी लड़ाई तो आज हमारे समाज में प्रतिदिन हो रही है।
बंटवारे के लिए लड़ाई तो समाज की शाश्वत जंग है। अत: राम ने लोभ के लिए लड़ाई त्याग से लड़ी, भरत ने भी ऐसा ही किया। इसी तरह राम ने शूर्पणखा रूपी काम के विरूद्ध लड़ाई वैराग्य से लड़ी। तुलसीदास ने कहीं भी कैकेयी को श्रेष्ठ स्थान नही दिया पर रामायण मेंं राम बार-बार कैकेयी की प्रशंसा करते हैं। यह राम की उदारता का परिचायक है, कैकेयी की महिमा का नहीं। राम ने कैकेयी को सच्चे हृ़दय से सम्मान दिया। स्पष्ट है कि रामराज्य वैचारिक या हृदय की क्रांति का प्रतीक है। लोग सोचते हैं कि भले ही सूर्यवंश की परम्परानुसार राज्य ज्येष्ठ व्यक्ति को मिले पर यह परम्परा अनुचित हैं। जिस सूर्य ने आज तक प्रकाश देने में छोटे-बड़े का भेद नहीं किया उसी सूर्यवंश में छोटे भाई को राज्य न देकर बड़े को देना मानों सूर्य के आदेश को ठेस पहुंचाना हैं। वे विचार करते है कि या तो राज्य सभी भाईयों को मिलना चाहिए या छोटे भाई को । राम की यह भावना रामराज्य का मूल आधार हैं। उधर भरत जी का चरित्र भी रामराज्य की अस्मिता व मर्यादा को ही रेखांकित करता है। भरत को क्या जरूरत थी, राजधानी की सीमा से बाहर झोंपड़ी में रहकर व सिंहासन पर राम की खड़ाऊँ रखकर शासन को रामराज्य के रूप में करने की? किंतु भरत जी ज्ञानी थे, जानते थे कि राज्य के सिंहासन पर सिर्फ और सिर्फ राम का अधिकार है? पर आज कलयुग में हम क्या परिवार के छोटे पुत्र में ऐसे चरित्र व संस्कार के दर्शन की कल्पना भी कर सकते हैं? पिता या गुरू द्वारा प्रदत्त गादी भी अब तो ऐसी संपत्ति बना दी जाती है, जिस पर परिवार या गुरूकुल के सदस्यों के ऐश्वर्य, सांसारिक सुखों , यश व धन क कामनाओं की पूर्ति करने के दायित्व हों ।
गादी द्वारा विरासत में प्रदत्त पिता या गुरू के आदर्श, सिद्धांत, चरित्र, संस्कार, कर्मठता, परम्परा बेमानी हो जाती है। पिता या गुरू के आदर्शों द्वारा तय किए गए पदाधिकारी को कमजोर करने की हर संभव कोशिशों के साथ परिवार के महत्वाकांक्षी सदस्य अथवा गुरू के महत्वाकांक्षी शिष्य अपनी अलग दुकान खोलकर बैठ जाते हैं। वे अपने आपको असली राम व अपनी सत्ता को ही असली अयोध्या का असली रामराज्य घोषित करने में नहीं चूकते। तब ऐसे, आज के कालखंड में रामराज्य के मूल तत्व आत्मसात कर पाना आसान नहीं। हमारे इस चिंतन की यात्रा कहां जाकर पहुंचेगी , मैं भी नही जानता । जहां राम पहुंचा दें। जीवन का एकमात्र व अंतिम सत्य तो यही है । यह अलग बात है कि आज के कलयुग में सबने अपनी -अपनी सुविधा व अपने-अपने स्वार्थ से अपने अलग-अलग राम गढ़ रखे हैं। अत: ऐसे नकली राम आज के दिन भी साकार अवतरित होते हैं या नहीं उसका कोई अर्थ नहीं ।
यह जानते हुए भी कि राम को वापस अयोध्या लौटने में चौदह वर्ष लग गए थे। हम जैसे लोग यदि चौदह साल के चिंतन व ज्ञान या भक्ति साधना से भी राम को थोड़ा भी समझ सकेंगे तो अयोध्या में सगुण साकार श्रीराम मंदिर बनाने व अपने मन की अयोध्या में श्री राम के आदर्शों का मंदिर बनाने में अलौकिक सुकून महसूस करेंगे। अत: श्रीराम मंदिर की भौतिक तैयारियों के साथ आध्यात्मिक तैयारी भी जरूर करें। कोरोना के इस संक्रमण काल में भी हमें सोशल डिस्टेन्स व मास्क की मर्यादा का पालन भी जरूर करें प्रधानमंत्री की आज अभिव्यक्त की गई इस अपेक्षा के साथ,जय श्रीराम।
चंद्रकांत अग्रवाल (Chandrakant Agrawal)
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