
आत्मा में उत्तरोत्तर लीनता ही वास्तविक निश्चय तप
पर्यूषण पर्व के सातवे दिन जैन मंदिर में प्रवचन
इटारसी। इच्छानिरोधस्तप: अर्थात इच्छाओं का निरोध। अभाव, नाश करना, तप है। वह तप जब आत्मा के श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) सहित/पूर्वक होता है, तब ‘उत्तम तप धर्म कहलाता है। प्रत्येक दशा में तप को महत्वपूर्ण माना है।
यह उद्गार पर्यूषण पर्व के सातवे दिन पंडित आशीष शास्त्री ने जैन धर्मावलंबियों को संबोधित करते हुए अपने प्रवचनों में कही। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार, स्वर्ण (सोना) अग्नि में तपाए जाने पर अपने शुद्ध स्वरूप में प्रगट होता है, उसी प्रकार, आत्मा स्वयं को तप-रूपी अग्नि में तपाकर अपने शुद्ध स्वरूप में प्रगट होता है। मात्र देह की क्रिया का नाम तप नहीं है, अपितु आत्मा में उत्तरोत्तर लीनता ही वास्तविक निश्चय तप है। ये बाह्य तप तो उसके साथ होने से व्यवहार तप नाम पा जाते हैं।
आत्म शुद्धि के लिये इच्छाओं का रोकना तप है। मानसिक इच्छायें सांसारिक बाहरी पदार्थों में चक्कर लगाया करती हैं, अथवा शरीर के सुख साधनों में केन्द्रिय रहती हैं। अत: शरीर को प्रमादी न बनने देने के लिये बहिरंग तप किये जाते हैं और मन की वृत्ति आत्म-मुख करने के लिये अन्तरंग तपों का विधान किया है। दोनों प्रकार के तप आत्म शुद्धि के अमोध साधन हैं।