बहुरंग : फादर्स डे पर एक कविता ‘ आत्म कथ्य ‘

बहुरंग : फादर्स डे पर एक कविता ‘ आत्म कथ्य ‘

– विनोद कुशवाहा :

नहीं रहे पिता
जैसे
कल रात ही
मर गये पिता
नहीं रहे पिता

वैसे भी वे
जीवित ही कब थे
पिता बनने के पहले ही
मर गये थे पिता
बाद में
किश्त दर किश्त
मरते रहे पिता
नहीं रहे पिता

पूछने पर
कभी प्रारब्ध
तो
कभी नियति को
दोषी मानते रहे पिता
इस तरह भी
मरते रहे पिता
नहीं रहे पिता

धीरे – धीरे
सब
उन्हें भी तो
छोड़ कर
मरते रहे
एक के बाद एक
यहां तक कि …
उनके खुद के भी पिता

अफसोस कि …
उनके
कुछ करीबी दोस्त भी
मरते रहे
इस तरह सब
मृत्यु से डरते रहे
पर
लड़ते रहे
लेकिन
अंततः मरते रहे

पिता
नहीं डरे
कभी मृत्यु से
डरते रहे
तो
बस अपनों से
टूटते सपनों से
बाहर से लड़ते रहे
अंदर से बिखरते रहे

आखिर
कब तक करते सामना
उपेक्षा का
अपमान का
तिरस्कार का
आरोप – प्रत्यारोप का
जब थक गए पिता
तब
हार गए पिता
मर गये पिता
नहीं रहे पिता

मरे हुए पिता
कहां रह पाते
घर में
सो
घर से भी
बेदखल कर दिए गये पिता

मगर
जाते – जाते कह गये पिता –

‘ कोई भी न रहे मौजूद अपना
अंतिम संस्कार में
पराये ही करें
क्रिया कर्म
न कोई प्रकट करे सम्वेदना
न ही हो कोई शोक सभा
न कोई करे पुष्प अर्पित
न दे कोई उन्हें श्रद्धांजलि
न हो किसी तरह का
कोई कर्म कांड
न करे कोई श्राद्ध ही ‘

नहीं चाहिए थी उन्हें मुक्ति
न ही चाहिए था मोक्ष

सबने पूछा भी था उनसे –

” क्या करेंगे आपका
जब हो जायेंगे
आप राख “

तब मुस्कुराये थे पिता
बिल्कुल मेरी तरह
थोड़े से अंतराल के बाद
एक लंबी सांस लेकर
बोले भी थे मेरी तरह ही –

‘ मेरा ” सारथी ” ही
काफी है इसके लिये

सुन रे राजू …
बहा देना मुझे
शहर के
दोनों छोर पर की नहरों में
बहा देना
मेरी राख
बहा देना मेरी अस्थियां
देखा करूंगा
डूबते उतराते
शहर की बस्तियां ‘

अब नहीं हैं पिता
क्योंकि
कल रात ही
मर गये पिता
नहीं रहे पिता

पर …
अब वही होगा
वैसा ही होगा
मेरे साथ भी
जैसा अपने लिये
कह गये पिता
मर गये पिता
नहीं रहे पिता ।

( बचपन में पिता नहीं रहे लेकिन मेरे अंदर हमेशा मौजूद रहे ” पिता ” को समर्पित )

– विनोद कुशवाहा

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