बहुरंग : पुस्तक समीक्षा – “शब्दों के परे” ले जाने वाली पुस्तक

बहुरंग : पुस्तक समीक्षा – “शब्दों के परे” ले जाने वाली पुस्तक

श्री विपिन पवार की रचनाएं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं विशेषतया रेलवे की पत्रिकाओं में बहुधा पढ़ता रहा हूं पर उनकी पुस्तक के रूप में उनका सृजन पहली बार पढ़ने को मिला है। प्रस्तुत वास्तव में एक निबंध संग्रह है, जिसमें 11 निबंध संग्रहीत हैं। निबंध हिंदी गद्य की एक सशक्त लेखन विधा है। इससे इतिहास बोध के साथ साथ लेखक का व्यक्तित्व बोध होता है। अज्ञात को अभिव्यक्त करना मानव की आदि जिज्ञासा है और ज्ञात को अपने शब्दों में व्यक्त करना भी उसकी प्रबल अभीप्सा है। ज्ञात की अन्य व्यक्तियों को जानकारी देने के साथ साथ अपना मत और चिंतन व्यक्त करना भी लेखक का उद्देश्य होता है।
प्रस्तुत निबंध संग्रह “शब्दों के परे” ऐसे ही स्वतंत्र चिंतन, संचयन का सुपरिणाम है। हर निबंध अपने आप में स्वतंत्र व भावप्रवण है।
प्रथम निबंध “शब्दार्थ की निराली दुनिया में लेखक ने एक नये विषय का प्रतिपादन किया है। उसने शब्दों की निराली दुनिया नहीं शब्दार्थ की निराली दुनिया ‌बताने का प्रयास किया है अर्थात एक ही शब्द का ‌भिन्न स्थान व भाषा में अर्थ भेद होने से व्यक्ति की समझ पर कई प्रकार का प्रभाव पड़ता है। लेखक ने उस निबंध में हिंदी और मराठी के कई शब्दों के अर्थ परिवर्तन को उजागर करते हुए पाठकों को ज्ञान दिया है और मनोरंजन भी। लेखक ने इस निबंध में हिंदी, मराठी और उर्दू की एक ही लिपि बताई है देवनागरी। हिंदी और मराठी की लिपि देवनागरी है, इसमें तो कोई संदेह नहीं परंतु उर्दू की लिपि के बारे में सहमत नहीं हुआ जा सकता क्योंकि उर्दू की प्रामाणिक लिपि नस्तालिक है जो अरबी लिपि का ही एक भेद है। भारत के जिन प्रदेशों में उर्दू ‌सह राजभाषा है वहां के रेलवे स्टेशनों के नाम ‌हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू में लिखे हुए पाए जाते हैं, जिनमें उर्दू की लिपि अरबी ‌नस्तालिक ही है, देवनागरी नहीं। हां यह सत्य है कि देवनागरी ऐसी अद्भुत लिपि है, जिसमें किसी भाषा को लिखा जा सकता है।

दूसरे निबंध “हिंदी फिल्मों की जान है हमारी रेल” में फिल्मों में रेल की भूमिका, योगदान और महत्व सभी कुछ दर्शा दिया है। फिल्मों में रेल कब आ गई रेल में फिल्में कब आ गई, यह एक दूसरे में इस प्रकार अनुस्यूत है कि आप इसका ओर छोर भी नहीं पा सकते। लेखक ने इस निबंध में प्रारंभ से अब तक सिलसिलेवार जानकारी प्रस्तुत की है कि पाठक एक तो एक सांस में पढ़ जाएगा, दूसरे उसके मानस पटल पर फिल्मों के दृश्य भी वाचन के नेपथ्य में आते रहेंगे।
तीसरा निबंध “राजभाषा हिंदी: अनंत संभावनाओं का क्षितिज” लेखक के पदानुरूप है। हिंदी के राजभाषा बनने की भूमिका, प्रथम पहल व राजभाषा बनने से हिंदी की रोजगारोन्मुखता देश के हर भाषा व क्षेत्र के पाठकों के लिए बहुत ही प्रेरणादायी है। साथ ही देश के अलावा विदेशों में हिंदी के अध्ययन और हिंदी की शिक्षा देने वाले, हिंदी का अध्ययन कर उसके प्रयोग प्रसार को बढ़ाने वाले विदेशी विद्वानों के बारे में जो जानकारी दी गई है, वह प्रशंसनीय है। इससे पाठकों का बहुत हित भी होगा। हिंदी, राम, तुलसी वाल्मीकि के भक्त, बेल्जियम से आकर मृत्युपर्यंत भारत में रहने वाले और अंग्रेजी हिन्दी शब्द कोष प्रदान करने वाले फादर कॉमिल बुल्के का संक्षेप में ही सही, वर्णन होता तो पाठकों को और भी लाभ मिलता।
चौथा निबंध “एक जंग : कैंसर के संग” वास्तव में सुप्रसिद्व मराठी लेखिका श्रीमती मंदाकिनी कमलाकर गोगटे के उपन्यास”गागी” की समीक्षा है। उस उपन्यास में गागी का कैंसर पीड़ित जीवन गोगटे जी ऐसे दर्शाया है जैसे वह पीड़ा स्वयं सही हो। गोगटे जी की मृत्यु भी कैंसर से हुई थी। इस समीक्षात्मक निबंध के माध्यम से लेखक ने मराठी की महान लेखिका से हिंदी पाठकों का परिचय कराया है, जो अपने आप में सराहनीय है।
पांचवां निबंध “यात्रा ईश्वर के अपने देश की” केरल यात्रा का संस्मरण है, जिसमें लेखक ने केरल को जीता जागता प्रस्तुत करने में काफी परिश्रम किया है।
छठवां निबंध ” सबकी आई: पंडिता रमाबाई” जैसी विदुषी, सेवाभावी और क्रांतिकारी महिला से पाठकों को परिचित कराया है, जिनके बारे में पुराने लोग तो जानते होंगे, परंतु युवा पीढ़ी बहुत कम जानती है, ऐसा अनुमान है। इसके लिए लेखक बधाई का पात्र है।
सातवे निबंध “गौरव गरिमा से भरपूर कोल्हापुर” में महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर और उसके पन्हाला किले से परिचित कराया गया है। कोल्हापुर महालक्ष्मी देवी के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर चालुक्य वंश के राजा कर्णदेव ने बनवाया था। महालक्ष्मी देवी की मूर्ति अद्भुत है और सात हजार वर्ष पुरानी मानी जाती है। इसी प्रकार महालक्ष्मी देवी का मंदिर भी अपनी बनावट के लिए अद्भुत है। लेखक ने बहुत अच्छी तरह उसका वर्णन किया है और बताया है कि कोल्हापुर को दक्षिण की काशी कहा जाता है। यहां भवानी मंडप, कपिल तीर्थ और रंकाला तालाब भी दर्शनीय है। पन्हाला किले के बारे में बहुत विस्तार से लेखक ने प्रकाश डाला है। किले से बाहर निकलने में शिवाजी महाराज के हमशक्ल शिवा काशिद के बारे में भी बताया जाता तो और अच्छा रहता। फिलहाल यह निबंध पाठकों को अवश्य प्रेरित करेगा कि वे कोल्हापुर और पन्हाला की यात्रा अवश्य करें।
आठवां निबंध है “भाषाई गुलामी का एक प्रयास”। इस निबंध में विजेता द्वारा विजित को पूरी तरह गुलाम बनाने के लिए उसकी भाषा और लिपि को छीनने के कुटिल प्रयासों पर प्रकाश डाला गया है और भारत पर रोमन लिपि के साम्राज्य को सबसे बड़ी गुलामी बताया गया है। इतिहास साक्षी है कि पहले मुगलों ने और फिर अंग्रेजों ने भारत की भाषाओं, साहित्य और लिपि को किस प्रकार नष्ट भ्रष्ट करने के कुटिल प्रयास किये कि आज कई भाषाओं का अस्तित्व तक नहीं है। लेखक ने इस निबंध के जरिए पाठकों को सोचने की एक दिशा प्रदान की है।
नौवें निबंध “साहित्य के सागर : अमृतलाल नागर” में सुप्रसिद्व लेखक अमृतलाल नागर के जीवन, कृतित्व व व्यक्तित्व को बहुत अच्छी तरह बताया गया है और सभी, सामान्य व विद्यार्थियों के लिए पठनीय है।
दसवां निबंध अपने नाम से सब कुछ उजागर कर देता है यथा “करुणा और सेवा की प्रतिमूर्ति: मदर टेरेसा”। भारत रत्न मदर टेरेसा के बारे में जितना पढ़ा जाए उतना ही कम है। भारत क्या विश्व का बच्चा बच्चा उनसे परिचित है लेकिन उनके वास्तविक नाम से परिचित नहीं भी हो सकता है। इसलिए मदर टेरेसा के बारे में जानने के लिए हर किसी को यह निबंध पढ़ना चाहिए और लेखक को धन्यवाद देना चाहिए।
ग्यारहवां और इस संग्रह का अंतिम निबंध “हिंदी का प्रयोग : क्यों होती हैं गलतियां”। यह लेखक का निबंध नहीं, उसके हृदय की पीड़ा है। लेखक सरकारी कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग व प्रसार कार्य से जुड़ा है और जब अपने ही देश में अपनी ही भाषा को लिखने में गलतियां ही नहीं, लापरवाही देखता है तो हृदय क्रंदन करने लगता है। इस निबंध में आमतौर पर होने वाली गलतियों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है तो उनका निराकरण भी बताया है।
अस्तु, प्रस्तुत निबंध संग्रह “शब्दों के परे” विपिन पवार के सुदीर्घ, सुव्यवस्थित, सुपरिश्रम का सुपरिणाम है और पठनीय है। इतनी कृति के श्री पवार बधाई के पात्र हैं।

satendra singhvipin pawar
 समीक्षक – श्री सत्येंद्र सिंह (Satendra Singh)
पूर्व वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी मध्य रेल
“रामेश्वरी-सदन” सप्तगिरी सोसायटी,
‌ जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द,
‌ पुणे 411046 महाराष्ट्र
लेखक – श्री विपिन पवार (Vipin Pawar)
1 बेरिल हाउस, वुडहाउस रोड,
कुलाबा, मुंबई 400001
प्रकाशक – परिदृश्य प्रकाशन, 1, अनमोल, सोराबजी लेन,
धोबी तलाब, मरीन लाइंस, मुंबई 400002

 

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