बहुरंग: चली है रस्म कि…कोई सर उठाकर न चले

बहुरंग: चली है रस्म कि…कोई सर उठाकर न चले

विनोद कुशवाहा/ जनता कर्फ्यू के नाम पर लगाया जाने वाला लॉक डाउन एक तरह से 10 मई तक ही बढ़ा दिया गया है। इससे रोज कमाने-खाने वाले छोटे विक्रेता मुसीबत में आ गए हैं। उनके सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो गई है। शहरी पथ विक्रेताओं के खाते में मात्र एक-एक हजार रुपये जमा करने से उनके नुकसान की भरपाई नहीं हो जाएगी। इधर आम आदमी भी परेशान है। क्या गरीब आदमी रोजमर्रा की जरूरत की चीजों के लिए होम डिलीवरी के लिए आर्डर करने में सक्षम है? क्या वह ऑन लाइन आर्डर करने योग्य है? सुप्रीम कोर्ट ने तो सरकार से यहां तक पूछा है कि वैक्सिनेशन के लिए निरक्षर और ऐसे लोगों के लिए क्या व्यवस्था है जिनके पास इंटरनेट नहीं है। खैर।

बेहतर होता यदि कलेक्टर साहब पूर्व निर्धारित समय सुबह 6 से 12 बजे तक सब्जी मार्केट की तरह किराने की दुकानों को भी खोलने की अनुमति दे देते। यहां ये उल्लेखनीय है कि मेरी कोई किराने की दुकान नहीं है। चलिये आगे बढ़ते हैं। दोपहर को तो कड़ी धूप, तेज गर्मी के कारण वैसे भी लोग बाहर नहीं निकलते थे। सड़कों और गलियों तक में सन्नाटा पसरा रहता था। अब जो अफरा तफरी मची है वो कथित रूप से ‘जनता कर्फ्यू’ लगाए जाने के कारण है। प्रशासन को इसका हल खोजना चाहिए। “आपदा प्रबंधन समिति” में कुंडली मारकर बैठे लोग इतने भी नासमझ नहीं हैं कि वे गरीबों की आवश्यकताओं को न समझ सकें। उसके बाद भी गरीबों पर इतने जुल्म क्यों?

कुछ दिन पहले ही नगर कांग्रेस अध्यक्ष पंकज राठौर ने बहुत मार्के की बात कही थी। उनका कथन पिछले दिनों भवानी प्रसाद मिश्र ऑडियोरियम में प्रशासन द्वारा आयोजित बैठक के संदर्भ में था। पंकज राठौर के कहने का आशय ये था कि कुछ विशेष लोग ही बैठकर पूरे शहर के सम्बन्ध में निर्णय ले लेते हैं। इसमें सभी पक्षों को, सभी वर्गों को शामिल किया जाना चाहिए। पंकज भाई इस दौर में आपकी सुन कौन रहा है। बेहतर होगा आप मुंह पर पट्टी बांध कर घर बैठ जायें। कहते हैं न ‘सबसे भली चुप’। आज के समय में ये उक्ति सार्थक साबित हो रही है।

उपरोक्त बैठक के संदर्भ में वरिष्ठ पत्र लेखक, पत्रकार, लेखक, संपादक, गायक, समाजसेवी रोहित नागे ने भी अपनी पैनी कलम के माध्यम से टिप्पणी की थी। ज्ञातव्य है कि उन्होंने पत्रकारिता को लेकर कभी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया। सो उनके कहे हुए को भी गम्भीरता से लेने का वक़्त है। समाचार-पत्रों के माध्यम से ज्ञात उनकी प्रतिक्रिया का आशय भी लगभग यही था कि ऐसी बैठकों से सिवा बहस के कुछ हाथ नहीं लगता। जब चंद लोगों के इशारों पर ही प्रशासन को नाचना है तो फिर इस तरह की बैठकों की सार्थकता क्या है?

अब तो आप गिनती लगाते रहिए। अपनों के खोने की। आज ये गए कल वो गए थे। आने वाले कल में शायद हमारा ही नम्बर लग जाए। जब तक खुद पर न बीते तब तक किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। भले ही हम जैसे कुछ टुटपुंजिये लेखक (उनकी नजर में) गली के कुत्तों की तरह कितना ही क्यों न भौंकते रहें। कुछ तो शर्म करो यार। कब तक खोह में घुसे रहोगे? शेर की खाल पहन कर भेड़िए कब तक गरीब आदमी का शिकार करते रहेंगे? इस शहर का तो अब भगवान भी मालिक नहीं रहा। आप कितना ही कहते रहें- “सबका मालिक एक”। खैर।

गणमान्य नागरिकों की परिभाषा ही बदल गई है। शांति समिति की भी यही स्थिति है। कौन लोग हैं शांति समिति में? शांति समिति में कतिपय तथाकथित गणमान्य नागरिकों को शामिल करने के मापदंड क्या हैं? शांति समिति का गठन कौन करता है? किसके निर्देश पर शांति समिति गठित होती है? परिवार परामर्श केंद्र के भी हाल बेहाल हैं। आप स्वयं उपरोक्त बिंदुओं के आधार पर ही परिवार परामर्श केंद्र की कार्यप्रणाली का भी अंदाज लगा सकते हैं? केवल फोटुक छपवाना या समाचार प्रकाशित करवाने भर से सब ठीक-ठाक नहीं हो जाता।

कांग्रेस शासन में जब मैं एक स्तम्भ लिखता था तो मेरे बचपन के एक तथाकथित मित्र, एक राजनीतिक दल के युवा तुर्क गुर्रा कर कहते थे-‘यार पता करो ये नौकरी कहां करता है। ‘मेरे दोस्त तुम पता कर भी लेते तो भी न तो तुम मेरा कुछ बिगाड़ सकते थे और न तुम्हारे वो आका कुछ बिगाड़ सकते थे जिनको कांग्रेस से 6 साल के लिये निष्कासित कर दिया गया है क्योंकि मैं जब भी लिखता था शासकीय कर्मचारियों के लिए निर्धारित आचार संहिता का पालन करते हुए ही लिखता था। गरीबों के हक़ में लिखता था। फिर अब तो मैंने सेवा निवृत्ति ही ले ली है। अफसोस कि अभी भी कुछ नहीं बदला है। वही मौसम है। वही फिजायें हैं। स्थिति जस की तस है क्योंकि दल बदला है दिल नहीं बदले।

कोरोना की इस लड़ाई में कितने शिक्षक काल कवलित हो गए उसकी कोई गिनती ही नहीं है। यही हाल अन्य विभागों के शासकीय कर्मचारियों का है जो जान जोखिम में डालकर अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं और इधर सरकार ये ही नहीं तय कर पाई कि किसे कोरोना वारियर्स माना जाए। अपने काम को अंजाम देते हुए उनकी मृत्यु हो जाने पर उन्हें 25 – 50 लाख मुआवजा देना तो छोड़िए सरकार उनके महंगाई भत्ते की क़िस्त तक डकार गई। मुफ्त में लुटाने के लिए पैसा है कर्मचारियों की किश्त चुकाने के लिए सत्रह बहाने मिल जाते हैं। बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी? निकायों के चुनावों में या विधान सभा के इस उप चुनाव अथवा आगामी उप चुनावों में सरकार को इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे।

सरकार के पास कोरोना महामारी से निपटने की कोई कुशल रणनीति ही नहीं है। कोई प्रारंभिक तैयारी भी नहीं है। एक मई से 18+ वालों को टीकाकरण किए जाने की घोषणा तो कर दी गई। अब सरकार ही खुद बचाव की मुद्रा में आ गई है। सरकार का कहना है कि हमारे पास वैक्सीन ही नहीं है। तो फिर मेरे बाप घोषणा करने की ऐसी क्या पड़ी थी । क्यों हम गरीबों की भावनाओं के साथ खेलते हो यार।

आप छिंदवाड़ा को मॉडल क्यों नहीं बनाते। जहां का पॉजिटिविटी रेट घटकर केवल पांच प्रतिशत रह गया है जबकि रिकवरी रेट 91 प्रतिशत हो गया है। ऐसा इस वजह से संभव हुआ क्योंकि छिंदवाड़ा जिले में ब्लॉक लेबल पर भी कोविद केयर सेंटर बनाये गए हैं। मुश्किल ये है कि छिंदवाड़ा मॉडल अपनाने में सरकार की नाक नीची नहीं हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की सरकार को स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि सोशल मीडिया के माध्यम से आ रही शिकायतों को दबाया न जाए। न ही ऐसे लोगों के विरुद्ध कोई कार्यवाही की जाए।  बावजूद इसके अंत में इतना ही कि फैज अहमद फैज साहब सही फरमाते थे-

चली है रस्म कि …
कोई सर उठाकर न चले।

vinod kushwah

विनोद कुशवाहा (Vinod Kushwaha)

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