विनोद कुशवाहा
एक समय था जब कलमकार परिषद द्वारा पुरानी इटारसी में स्व चांदमल चांद की प्रेरणा से स्व बद्रीप्रसाद वर्मा तुलसी जयंती पर प्रतिवर्ष काव्य गोष्ठी का आयोजन करते थे तो दूसरी ओर मानसरोवर साहित्य समिति के त-त्वाधान में विविध कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे। इनमें कवि गोष्ठी के अलावा व्याख्यान माला भी सम्मिलित है। पावस गीत बहार तो मानसरोवर का अभूतपूर्व आयोजन रहता था। स्व चांदमल चाँद के देहावसान के बाद मानसरोवर ने तुलसी जयंती पर आयोजित की जाने वाली काव्य गोष्ठी की परंपरा को भी जारी रखने का प्रयास किया। इस वर्ष भी हिंदी दिवस पर काव्य गोष्ठी आयोजित की गई। इतना ही नहीं मानसरोवर साहित्य समिति ने पावस गीत बहार का भी आयोजन किया। 1974 में गठित मानसरोवर साहित्य समिति उपरोक्त कार्यक्रमों को लेकर आज भी सक्रिय है। ये एक गैर राजनीतिक संस्था है। अन्य संस्थाओं की तरह इसका किसी विचारधारा विशेष से कोई लेना – देना नहीं है। वर्तमान में इसके अध्यक्ष राजेश दुबे हैं।
हाल ही में मनोनीत एक संस्था के जिलाध्यक्ष बार – बार मंचों से इटारसी में साहित्यिक सन्नाटे का ज़िक्र करते हुए चापलूसी और चाटुकारिता की हद पार कर देते हैं। इसके चलते वे शेष संस्थाओं को न केवल निष्क्रिय बताते हैं बल्कि केवल एक व्यक्ति विशेष को ही इस सन्नाटे को तोड़ने का श्रेय देते रहते हैं जबकि इस शहर में कभी साहित्यिक सन्नाटा नहीं रहा। वर्तमान में भी दो दर्जन से अधिक साहित्यिक , सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थायें सक्रिय हैं। इनमें राष्ट्रीय कला एवं काव्य मंच , राष्ट्रीय कवि संगम, म प्र जन चेतना लेखक संघ , बातचीत , मानसरोवर साहित्य समिति , विपिन जोशी स्मारक समिति , विजय भारतीय संस्कृति संस्थान , विपिन जोशी साहित्य परिषद , युवा पत्र लेखक मंच , संकल्प , समर समागम , परिवर्तन , तिरंगा , लोक सृजन , नर्मदांचल परिवार , युवा प्रवर्तक विचार मंच , नव अभ्युदय , नाविक साहित्य परिषद , जन चेतना मंच आदि साहित्यिक , सांस्कृतिक , सामाजिक व वैचारिक संस्थायें अपने – अपने स्तर पर सक्रिय हैं। अफसोस कि इटारसी के एक स्वयंभू विपिन परंपरा के गीतकार बाहरी हैं। यही वजह है कि उन्होंने इटारसी की साहित्यिक यात्रा में लगातार व्यवधान उत्पन्न किया है। बाधा पहुंचाई है। साहित्यकारों में फूट डालकर गुटबंदी को बढ़ावा दिया है। इसमें उनका साथ दिया इटारसी के ही एक तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय कवि ने जिसे उसके अपने नगर के ही श्रोताओं ने अनगिनत बार हूट कर उनको उनकी औकात दिखाई है। इससे ही उनको समझ लेना चाहिए कि चुटकुलेबाजी पूरे हिंदुस्तान में चल सकती है मगर इटारसी के प्रबुद्ध श्रोताओं के सामने नहीं चल सकती । यहां का श्रोता समझदार है। उसे कविता के नाम पर हर कुछ नहीं परोसा जा सकता। खैर इतिहास इन जयचंदों को कभी माफ नहीं करेगा। इस सबका दुष्परिणाम ये हुआ कि हर कोई ऐरा – गैरा खुद को साहित्यकार कहने लगा । ये बेशर्मी की इन्तहां है। ऐसे घुसपैठियों की चालबाजियों के चलते असल साहित्यकार रचनात्मक गतिविधियों से दूर होने लगे। सृजनात्मक गतिविधियां ठप्प हो गईं। परंपरागत आयोजनों पर ग्रहण लग गया। व्यवसायिक कवियों का बोलबाला हो गया। कुछ तथाकथित साहित्यकार मंच पर स्थान देने के नाम पर युवा कवियों को ठगने भी लगे। चारण और भाट किस्म के लोग संचालन करने लगे । छपास के इन रोगियों का एक ही काम रह गया व्यवसायिक कवियों का गुणगान करना। अन्य साहित्यिक , सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं की उपलब्धियों को पलीता लगाना । पिछले दिनों ही स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरित एक नाटक की भूमिका के दौरान इस अंचल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नाम लेते समय नर्मदांचल के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों स्व माखनलाल चतुर्वेदी , स्व समीरमल गोठी , करण सिंह जी तोमर आदि का मंच से नाम तक लेना उचित नहीं समझा गया। मोथिया ग्राम साकेत के सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चरणदास बड़कुर को मंच संचालक द्वारा बार-बार चरणसिंह कह कर अपमानित किया जाता रहा। जबकि उक्त नाटक का मंचन ग्राम साकेत से लगभग 500 मीटर की दूरी पर ही एक निजी वैवाहिक मंडप में मंचित किया जा रहा था। यहां तक कि अधिवक्ता साहित्यकार मोहन झलिया ने आयोजकों से न जाने कितनी बार इस गलती को सुधारने का अनुरोध किया। बावजूद इसके अल्प ज्ञान के मारे मंच संचालक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चरणदास जी बड़कुर का गलत नाम ही उच्चारित करते रहे।
इटारसी का रंगमंच तो पहले से ही बहुत समृद्ध रहा है । यहां न केवल नाटकों का प्रदर्शन किया जाता रहा है वरन नुक्कड़ नाटक तक खेले जाते रहे हैं । अभी पिछले दिनों ही नव अभ्युदय संस्था के त-त्वाधान में जय स्तम्भ पर कोरोना पर केन्द्रित नुक्कड़ नाटक खेला गया । स्कूल स्तर से महाविद्यालयीन स्तर तक विविध साहित्यिक , सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं ने भी समय – समय पर शहर में नाटकों का मंचन किया है । मेरे स्वयं के द्वारा लिखित , अभिनीत तथा निर्देशित नाटकों पृथ्वीराज की आंखें ( डॉ रामकुमार वर्मा ) , वर चाहिए , टिन्नू का मदरसा , नींद और सपने आदि नाटकों को अपार लोकप्रियता मिली । यही वजह थी कि उपरोक्त नाटकों के कई शो आयोजित किये गए ।
ज्ञातव्य है कि इसके अलावा नगर की सृजनात्मक संस्था ‘ बातचीत ‘ के माध्यम से भी हमने इटारसी में कितने ही बहुचर्चित नाटकों के प्रदर्शन कराए हैं । बाद में विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय व स्थानीय सामाजिक संस्थाओं से जुड़े समाजसेवी एवं रंगकर्मी अनिल झा के प्रयासों से हम सबने शहर में कई नाटक मंचित किये । उल्लेखनीय है कि सुप्रसिद्ध नाट्य निर्देशक एवं अभिनेता सरताज सिंह ने इटारसी में स्थानीय संस्थाओं के सहयोग से अपने लोकप्रिय नाटक ‘ भय प्रगट कृपाला ‘ के अनेक शो आयोजित किए हैं । इधर रंगकर्मी संजय के. राज ने तो अपने अभिनय की एकल प्रस्तुति तक का प्रदर्शन जय स्तम्भ पर किया है । इसके अतिरिक्त नगर के बारह बंगले के रेलवे इंस्टीट्यूट तथा महाराष्ट्र विद्या मंदिर में भी रवि गिरहे व गजानन बोरीकर आदि की सम्मिलित कोशिशों से कितने ही मराठी एवं हिंदी नाटकों का प्रदर्शन किया गया । वैसे इटारसी में अब तक बकरी ( सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ) , अदरक के पंजे ( बब्बन खां ) , एक था गधा उर्फ अलादीद खां ( शरद जोशी ) , निठल्ले की डायरी ( हरिशंकर परसाई ) , रावण , फांसी के बाद आदि नाटकों का मंचन किया जा चुका है ।जबलपुर की “विवेचना” संस्था का पदार्पण तो शहर में कितनी ही बार हुआ है ।
शिक्षाविद् एस पी तिवारी ने मुझे नायक के रूप में सामने रखकर एक नाटक लिखा था। ‘शीशे की दीवार’। मुझको इस बात का बेहद दुख है कि उसके मंचन के पहले ही वे चल बसे। मैंने उनके परिवार से इस नाटक की स्क्रिप्ट लेने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु मुझे सफलता नहीं मिली। कुछ वर्षों पूर्व एक बार इटारसी के रेस्ट हाउस में प्रख्यात रंगकर्मी हबीब तन्वीर से मेरी मुलाकात हुई थी। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे अपनी ओर से ये विश्वास दिलाया था कि वे उनके नाटकों का मंचन इटारसी में जरूर करेंगे । अफसोस कि तन्वीर साहब भी अब इस दुनिया में नहीं रहे।
मैं नर्मदांचल के अपने स्तम्भ ‘ बहुरंग ‘ के माध्यम से मेरे मित्र और मेरे सुख-दुख के साथी भारत भूषण गांधी तथा रंगकर्मी सरताज सिंह से हार्दिक आग्रह करता हूं कि वे इटारसी में नाटकों की परंपरा को पुनर्जीवित करें। उन्हें सहयोग के लिए हम सब उनके साथ हैं और रहेंगे ।
मानसरोवर साहित्य समिति आगामी वर्षों में यह प्रयास अवश्य करेगी कि शरद पूर्णिमा पर काव्य गोष्ठी के माध्यम से कविता का अमृत जरूर बरसे क्योंकि इटारसी की फिजाओं में घुल रहे जहर का विकल्प अमृत के अलावा कुछ हो नहीं सकता। सावधान कुत्सित मानसिकता के बाहरी व्यक्तियों , तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय व्यवसायिक कवियों, स्वयंभू साहित्यकारों। अब तुम्हारा जोर इस शहर पर नहीं चलेगा क्योंकि इटारसी के प्रबुद्ध श्रोता और यहां की युवा पीढ़ी जाग गई है। उनके पास हर किस्म के अस्त्रों का सामना करने की शक्ति है। हर तरह के व्यक्ति से लोहा लेने की क्षमता है।
विनोद कुशवाहा (Vinod Kushwaha)
नोट:- नर्मदांचल में प्रकाशित लेखों में लेखक के अपने विचार होते हैं। नर्मदांचल इन विचारों पर शत प्रतिशत सहमत हो, आवश्यक नहीं।