विपिन पवार/इतिहास साक्षी है कि जब कभी कोई देश गुलाम हुआ है। शासक देश की संस्कृति, सभ्यता और भाषा का गहरा प्रभाव शासित देश पर पड़ा है। भाषा के क्षेत्र में हम एक लंबी गुलामी के साए में रह रहे हैं, और शायद अब भी हममें से कुछ लोग इस साए से निकलने को तैयार नही हैं। विदेशियों ने हमें न केवल दासता की जंजीरों से आबद्ध किया, अपितु हमारी भाषा के विकास में भी रोड़े अटकाए। हम भाषाई रूप से गुलाम नहीं हुए, हमें बनाया गया। विवश किया गया कि हम अपनी भाषा छोड़कर पराई भाषा का दामन पकड़े। यहीं कारण था कि बाबू भारतेन्दू, हरिश्चंद्र को लिखना पड़ा….
‘’निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल’’
अब जबकि हम भाषा के क्षेत्र में एक स्थाकयित्व की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं। हमें भाषाई रूप से पुनरूगुलाम बनाने के षडयंत्र की पदचाप सुनाई देने लगी है। हालांकि पूर्व में भी लिपि के संबंध में विवाद उठते रहें है। अंग्रेजी शासनकाल में रोमनलिपि का बोलबाला था। भारतीय सेना में जवानों की निर्देश पुस्तिकाएं और देश के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में प्राकृत और पाली भाषाओं की पाठ्य पुस्तकों में रोमन लिपि का वर्चस्व रहा है। विख्यात भाषाविद डाॅ सुनीति कुमार चटर्जी भी रोमन लिपि के समर्थक रहे हैं। गत दिनों देश के एक प्राचीन और विख्यात विश्वविद्यालय से यह मांग उठी थी कि रोमन लिपि विश्व व्यापी है, इसलिए हिंदी रोमन लिपि में ही लिखी जानी चाहिए।
यह है……भाषाई गुलामी का एक प्रयास
ई.पू. 4000 की ब्राह्मी सैंधव लिपि प्राचीनतम लिपि मानी जाती है। ब्राह्मी बाईं और से दाईं और लिखी जाती है। ब्राह्मी लिपि से ही कालांतर में एक अन्य प्रकार की लिपि का जन्मी हुआ। जिसे खरोष्टील कहा जाता है। जो ऊर्दू की तरह दांई से बांई और लिखी जाती थी। यह लिपि अधिक समय तक प्रचलित नहीं रही। चौथी सदी में गुप्तिकालीन ब्राह्मी लिपि का प्रचलन रहा।
गुप्तनकालीन ब्राह्मी से देवनागरी लिपि तक की यात्रा को निम्नालिखित आरेख द्वारा समझा जा सकता है….
(टेढ़ापन या वर्तुलाकार होने के कारण 6वीं सदी की लिपि को कुटिल लिपि कहा गया)
कहतें हैं, नगर में बोली जाने के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा। देवनागरी में कुछ अक्षर नाग सांप के आकार के होते हैं, यथा इ,ड,झ,द,भ। हो सकता है कि सर्पाकार अक्षरों के कारण भी नाग शब्द का सहारा लेकर इसका नाम देवनागरी पड़ा हो। दक्षिण भारत में इसे नंदी नागरी कहा जाता है। तो आचार्य विनोबा भावे ने इसे लोकनागरी कहा है।
हमारा मूलाधार देवनागरी लिपि है। विदेशियों ने भी यह बात स्वीकार कर ली है, कि देवनागरी लिपि के सिवाय अन्यद कोई विदेशी लिपि वैज्ञानिक एवं ध्वन्यात्मक नहीं है। उच्चालरणां सारणि लिपि और देवनागरी लिपि में जो उच्चलरित होता है, वहीं लिखा भी जाता है और जो लिखा जाता है, वैसा ही उच्चचरित भी होता है। रोमन आदि लिपियों में यह विशेषता नहीं है। रोमन में भ से क च और छतीनों का बोध हो सकता है। देवनागरी लिपि इस दोष से मुक्त है। मिट्टी, पत्थकर, दगड़ को रोमन लिपि में नहीं लिखा जा सकता। देवनागरी में वर्णों का विन्यास ध्वनि विन्यास पर आधारित है। साथ ही यह हमारी परंपरा, सभ्यता, संस्कृति और धर्म से जुड़ी हुई लिपि है।
देवनागरी लिपि 3 हजार वर्ष पूर्व विकसित हुई है। जब अन्य स्थानों में भाषा का सूत्रपात ही नहीं हुआ था। साथ ही संस्कृत के माध्यम से वह सर्वदूर परिचित है। उसकी व्यापकता का दूसरी कोई लिपि में स्था्न नहीं ले सकती।
यह तथ्य उल्लेंखनीय है। कि भारतीय भाषाओं की सभी ध्वनियों का अंकन देवनागरी लिपि में होता है। मात्र दो.चार संकेत जोड़ देने से हम उसे पूर्ण बना सकते हैं। जैसे दक्षिणी भाषाओं में ए के दो उच्चासरण हैं। ए और ऐ। हम देवनागरी में ऐ के लिए ऐस का संकेत दे सकते हैं।
रोमन लिपि के पक्षधरों का कहना है कि रोमन लिपि मुद्रण एवं टंकण की दृष्टि से निर्देश है और यहीं कारण है कि कोंकणी का साहित्य रोमन लिपि में लिखा जा रहा है। डॉ पारिख के कथनानुसार इसमें 26 वर्ण संयुक्ताक्षरों का झमेला नहीं है। प्रत्येक वर्ण पूरा लिखा जाता है। जबकि स्वरों को जोड़ने के लिए देवनागरी अधिक स्थाकन घेरती है। उदाहरण – कु, के, क:। इससे सामग्री के अनुपात में व्यय भी बढ़ता है, अत: वर्णों की एकरूपता के कारण रोमन लिपि सुविधाजनक है। लेकिन यह तथ्य भुला दिया गया है कि रोमन में 4 प्रकार की लिपियां है। इसमें प्रत्येक वर्ण स्वतंत्र नहीं है, अत: उच्चारण सही नहीं हो पाता। संयुक्ताक्षरो में भ्रम उत्पन्न होने के कारण भी यह लिपि अवैज्ञानिक है।
जीवन विज्ञानाभिमुख है। विज्ञान, विकास का साधन है और वैज्ञानिक ज्ञान राशि रोमन लिपि में उपलब्ध है। अत: कहा जा रहा है कि इस लिपि को स्वीकार करना हित में ही है ।
यह तर्क भी युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता क्योंकि विश्व के सभी आविष्कार और वैज्ञानिक विदेशों में नहीं हुए हैं, बल्कि भारत ही अनेक आविष्कारों का जनक है यहां तक कि कंप्यूटर का भी । प्रसिद्ध भौतिकविद प्रो.अजित राम वर्मा, विख्यात गणितज्ञ डा. उदित नारायण सिंह और प्रख्यात रसायनशास्त्री प्रो. रामचरण मेहरोत्रा भी इस बात के पक्षधर हैं कि विज्ञान की शिक्षा-दीक्षा अपनी भाषा और अपनी लिपि में अधिक सरलता और सहजता से संभव है । (दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित त्रिदिवसीय अनुवाद संगोष्ठी 8 से 10 दिसंबर, 1988 में व्यक्त विचार) दिनमान 31 दिसंबर, 1988
कहते हैं कि लेखन में भी रोमन लिपि देवनागरी की अपेक्षा अधिक सुविधाजनक है । इसमें कागज पर से बिना हाथ उठाए लिखा जा सकता है, फलस्वरूप गति में तीव्रता आती है और लिखने में श्रम कम लगता है, लेकिन क्या रोमन लिपि में कैपिटल अक्षर नहीं होते ?कैपिटलों के कारण तो रूकना और कागज पर से हाथ उठाना ही पड़ता है ।
कहा जा रहा है कि आमतौर पर भारतीय पश्चिम के रहन-सहन का अनुकरण कर रहे हैं, तो क्यों नहीं रोमन लिपि का अनुकरण किया जाता ?सारे भारतीय इसे समान भाव से ग्रहण कर सकते है, क्योंकि वह बाहर की है, अत: विरोध का प्रश्न नहीं उठेगा । उलझन तो अपने देश की भाषा और लिपि को लेकर रही है । फिर भी देवनागरी में संयुक्ताक्षर लिखने की दो पद्धतियां हैं:-
- एक को जोड़कर दूसरा जैसे मिट्टी । और
- एक के नीचे दूसरा जैसे –मि ।
इसमें समय अधिक लगता है, फिर रोमन में 52 टाईप हैं जबकि देवनागरी में 450 । देवनागरी आक्षरिक लिपि है, रोमन की तरह वार्णिक नहीं यथा-रोमन लिपि के पक्ष में अनेकानेक तर्क दिए जा रहे हैं। लेकिन इसे तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि रोमन विश्वव्यापी लिपि नहीं है। फ्रांस, जर्मनी इटली, चीन आदि देशों की लिपियां रोमन नहीं हैं। फिर यदि रोमन लिपि को स्वीकार भी किया जाता है, तो इसे कितने अधिक लोगों को सिखाना पड़ेगा,क्योंकि अभी तो मात्र 2-3%लोग ही इस लिपि को पढ़ते समझते हैं। अत: यह न्यायसंगत नहीं है कि हम इसे स्वीकारें। फिर हमारी सभ्यता, संस्कृति, भाषा और साहित्य में तंत्र (तन) और मंत्र (मन) की सांस्कृतिक परंपरा रहीं है ‘ऊॅं’का विशेष महत्व रहा है । देवनागरी इनके अधिक निकट है, रोमन में इनकी अभिव्यक्ति संभव नहीं है।
कतिपय दोष देवनागरी लिपि में भी रहे हैं । अत: उसमें संशोधन तथा मानकीकरण के लिए सर्वप्रथम नवंबर, 1953 में एक समिति का गठन किया गया, लेकिन यह समिति किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंच पाई । अत: मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में प्रचलित देवनागरी लिपि में सामंजस्य हेतु 1957 में एक सम्मेलन बुलाया गया, यह प्रयास भी असफल रहा, सम्मेलन में मतभेद रहे । तब इस सम्मेलन के मुख्य मुद्दों पर चर्चा करने हेतु सन 1959 में विभिन्न राज्यों के शिक्षा मंत्रियों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया,जो अपने उद्देश्यों में सफल रहा । इसमें देवनागरी का मानक रूप स्थिर किया गया जिसकी मुख्य बातें निम्नानुसार हैं :-
- स्वर और व्यंजन ही वर्णमाला में लिए जायेंगे, संस्कृत के अन्य अक्षर नहीं ।
- जहां पंचमाक्षर के बाद उसी वर्ग के शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो, वहां अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाए – अंत, गंगा, वाड्मय, संपादक, साम्य, सम्मति आदि । यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए अथवा वहीं पंचमाक्षर दुबारा आए, तो पंचमाक्षार अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा ।
- चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है – जैसे हंस, अंगना आदि में । अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए । किंतु जहां चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करें, वहां चंद्रबिंदु के स्थान पर अनुस्वार के प्रयोग की भी छूट दी जा सकती है । जैसे – नहीं, मैं आदि में ।
- देवनागरी मे संस्कृत के दीर्घ ऋ अर्थात ‘’ॠ’’का प्रयोगन किया जाए ।
- संस्कृत मूलक तत्सम शब्दों की वर्तनी में सामान्यत: संस्कृत रूप ही रखा जाए । परंतु जिन शब्दों के प्रयोग में हलन्त चिह्न लुप्त हो चुका है, उनमें इसको फिर से लगाने का यत्न न किया जाए । जैसे महान, विव्दान आदि में ।
- टंकण और लेखन में मानकीकरण करने के लिए संयुक्ताक्षर बनाने के निम्नलिखित नियम निश्चित किए गए :-
- प्रथम वर्ग (खड़ी पाई) –ग, भ, म, न =ग्, भ्, म्, न्
- द्वितीय वर्ग (बीच में पाई) – क, फ = क्, फ्
- तृतीय वर्ग (हलन्त) –ट, ठ, ड़, ढ़, ह = ट् ठ् ड्, ढ्, ह्
- श्व और श्र्व दोनो को मानक माना गया ।
- त्र और दोनों मानक है – परंतु गति में तीव्रता के लिए ‘त्र’ लिखने की छूट दी गई ।
- अ, झ, ण, छ और ख को मानक माना गया । पुराने जमाने में इन्हें लिखने का कुछ अलग तरीका था।
- अरबी-फारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जाए । जैसे –जरूर परंतु जहां पर उनका शुद्ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो, वहां उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक्ते लगाएं जाए, जिससे उनका विदेशीपन स्प्ष्ट रहें, जैसे राज़, नाज़ ।
- अंग्रेजी के जिन शब्दों में अर्ध निवृत्त,‘’औ’’ ध्वनि का प्रयोग होता है,उनके शुद्ध रूप का हिंदी में प्रयोग अभीष्ट होने पर ‘आ’ की मात्रा के ऊपर अर्धचंद्र का प्रयोग किया जाए,जैसे ऑ, अॅ ।
- संस्कृत के जिन शब्दों में विसर्ग का प्रयोग होता है, वे यदि तत्सम में प्रयुक्त हों, तो विसर्ग का प्रयोग अवश्य किया जाए । जैसे—‘’‘दु:खानुभूति’’ में परंतु यदि उस शब्द के तद्भव रूप में विसर्ग का लोप हो चुका हो तो उस रूप में विसर्ग के बिना भी काम चल जाएगा । जैसे—सुख-दुख के साथी ।
- हिंदी ‘ऐ’ तथा और एै का प्रयोग दो प्रकार की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए होता है । पहले प्रकार की ध्वनियां ‘’है’’तथा‘’और’’ आदि में है तथा दूसरे प्रकार की ‘’गवैया’’‘’कौवा’’ आदि में । इन दोनों ही प्रकार की ध्वनियोंको व्यक्त करने के लिए इन्हीं चिह्नों (एऔर एै) का प्रयोग किया जाए। गवैय्या, कव्वा आदि संशोधनों की आवश्यकता नहीं है ।
- जहां श्रुतिमूलक ‘’य’’‘’व’’ का प्रयोग विकल्प से होता है,वहां न किया जाए, अर्थात गए-गये, नई-नयी, हुआ-हुवा आदि में पहले (स्वरात्मक) रूपों का ही प्रयोग किया जाए । यह नियम क्रिया, विशेषण अव्यय आदि सभी रूपों में माना जाए ।
- तत्पुरूष समास में हाइफन का प्रयोग केवल वहीं किया जाए,जहां उसके बिना भ्रम होने की संभावना हो, अन्यथा नहीं । जैसे – भू-तत्व,राम-राज्य आदि ।
उपर्युक्त संशोधनों के पश्चात संभवत: देवनागरी लिपि में कोई दोष शेष नहीं रह जाता और ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई देता कि हम रोमन लिपि का प्रयोग करें । अब आवश्यकता है, तो इस बात की कि हम अपनी गुलाम मानसिकता से उबरें और हमें भाषाई रूप से गुलाम बनाने के लिए किए जा रहे किसी भी प्रयास का विरोध करें, उसका पुरजोर मुंहतोड़ जवाब दें ।
विपिन पवार(Vipin Pawar)
उप महाप्रबंधक ( राजभाषा )
मध्य रेल मुख्यालय, मुंबई
बहुत सुंदर लेख है। केवल पढ़ने के लिए नहीं करने के लिए भी प्रेरित करता है। साधु।