पुस्तक समीक्षा : दर्द का दस्तावेज़ है आसमान का यह एक टुकड़ा
Book Review: This is a piece of the sky, a document of pain

पुस्तक समीक्षा : दर्द का दस्तावेज़ है आसमान का यह एक टुकड़ा

– विपिन पवार :
ओशो ने कहा है कि प्रेम शब्द जितना मिसअंडरस्टुड है, जितना गलत समझा जाता है, उतना शायद मनुष्य की भाषा में कोई दूसरा शब्द नहीं ! प्रेम के संबंध में जो गलत – समझी है, उसका ही विराट रूप इस जगत के सारे उपद्रव ,हिंसा, कलह, द्वंद और संघर्ष हैं । प्रेम की बात इसलिए थोड़ी ठीक से समझ लेनी जरूरी है । जैसा हम जीवन जीते हैं, प्रत्येक को यह अनुभव होता होगा कि शायद जीवन के केंद्र में प्रेम की आकांक्षा और प्रेम की प्यास और प्रेम की प्रार्थना है। जीवन का केंद्र अगर खोजना हो तो प्रेम के अतिरिक्त और कोई केंद्र नहीं मिल सकता है।
और वह अभीप्सा असफल हो जाती हो, तो जीवन व्यर्थ दिखाई पड़ने लगे- अर्थहीन, मीनिंगलेस, फ्रस्ट्रेशन मालूम पड़े, विफलता मालूम पड़े, चिंता मालूम पड़े ,तो कोई आश्चर्य नहीं है। जीवन की केंद्रीय प्यास ही सफल नहीं हो पाती है ! न तो हम प्रेम दे पाते हैं और न उपलब्ध कर पाते हैं। और प्रेम जब असफल रह जाता है, प्रेम का बीज जब अंकुरित नहीं हो पाता, तो सारा जीवन व्यर्थ -व्यर्थ असार- असार मालूम होने लगता है।
संभवतः इसी प्रेम को तो जीवन भर पाने एवं समझने का प्रयास करता है, कवि, कहानीकार एवं संपादक विनोद कुशवाहा की लेखनी से नि:सृत प्रथम उपन्यास एक टुकड़ा आसमान का नायक विराग, जिसका संपूर्ण जीवन दर्द का एक जीवंत दस्तावेज बनकर रह जाता है। शैशवावस्था में ही आप्तजनों को खोने का दर्द हृदय में समाए नायक का परिचय अनादि से होता है, जो प्रेम में परिवर्तित हो जाता है लेकिन अनादि के प्रेम में सराबोर विराट को हमेशा यह भय बना रहता है कि “आप कभी मुझे छोड़ कर तो नहीं जायेंगी ?” (पृष्ठ 48)
कथा विकास के क्रम में अनादि के बाद नायक के जीवन में अनेक नारियां आती हैं…….. नित्या, मनीषा, ज्योतिका, मुक्ता , नीरा ,रूमा अनुष्का, निम्मी, आशिमा, अमीषा, अवंतिका, अचला, जसमीत एवं मारिया आदि। लेकिन यह समस्त नायिकाएं अंत में नायक को इस संसार में अकेला छोड़ जाती है, हालांकि प्रेम के संबंध में नायक की अपनी कुछ मान्यताएं हैं, जैसे, प्रेम ऐसा ही तो होता है, एक आग का दरिया था और तैर कर जाना था । (पृष्ठ 8) प्रेम कम या ज्यादा नहीं होता। (पृष्ठ 14) प्रेम में अपेक्षा कैसी ? (पृष्ठ 14) यदि किसी शहर में आपका मन न लग रहा हो तो आप वहां किसी से प्रेम कर लें, उस शहर से भी आपको प्रेम हो जाएगा। (पृष्ठ 29) प्रेम का जीवन में प्रवेश अक्सर अकस्मात ही होता है ।अचानक । प्रेम संभलने का मौका भी नहीं देता। (पृष्ठ 30) जितनी तेजी से इस तरह के प्रेम का तूफान उठता है, उतनी ही तेजी से वह थम भी जाता है। (पृष्ठ 71) प्रेम में एकाधिकार स्वाभाविक है। पृष्ठ(150)
विराट का प्रेम यदि ऐहिक है तो प्लूटोनिक भी। विराग अपनी नायिकाओं में यदि प्रेमिका एवं पत्नी की झलक पाता है तो मां, बहन एवं सखी को भी तलाशने का असफल प्रयास करता है और बार-बार अवसाद के गहरे समंदर में डूब जाता है। अवसाद ग्रस्त विराट का जीवन प्रायः आंसू बहाते ही बीतता है। वह सोचता है कि
“क्यों होता है ऐसा? क्यों कोई हमें छोड़ कर चला जाता है? क्यों कोई हमेशा के लिए हमारे पास नहीं रह जाता?” (पृष्ठ 122) उत्तर स्वयं विराट ही देता है-
“विराट कई बातों के मतलब मन से लगा लिया करता था, जो स्वत: ही उसकी पीड़ा और दुख का कारण बन जाते।” (पृष्ठ 39)

उसकी बेबाक आत्मस्वीकृति उसके अवसाद के कारणों पर प्रकाश ड़ालती है-
“नहीं ! अनादि मैं अच्छा व्यक्ति नहीं हूं। मुझसे भी गलतियां हुई हैं। गलतियां क्या अपराध हुए हैं। ऐसे अपराध, ऐसी गलतियां, जिनका कोई प्रायश्चित नहीं ।” (पृष्ठ 45) और फिर वह मर्मांतक विवशता कि “काश ! किसी से मैं यह सब कुछ कह पाता। (पृष्ठ 45) वह ऐसा क्यों हैं? क्यों इतना निर्मम हो जाता है कि सामने वाले को दुख की झील में डुबोकर आगे बढ़ जाता है और पलट कर भी नहीं देखता? क्यों उसे बार-बार क्षमा मांगनी पड़ती है? (पृष्ठ 112)
दुखों से लबालब नायक के चरित्र का विकास कुछ इस तरह से हुआ है कि जब भी कभी उसे रिश्तों की ढाल मिलती है, तो उसके प्रेम का दरिया बह निकलता है। दुख, अकेलेपन और अवसाद से ग्रस्त नायक जिंदा रहने के लिए तरह-तरह के जतन करता है, सिर्फ इसलिए कि वह कहीं कमजोर पड़ कर आत्महत्या जैसे हल्के, सस्ते और आसान रास्ते की तरफ न मुड़ जाए। यही वजह थी कि वह पात्र-अपात्र सबसे अपने सुख-दुख यह सोचकर साझा करता कि कहीं से तो उसे सहारा मिलेगा, पर उसे हर जगह से निराशा हाथ लगती। उसे हमेशा इस बात का दुख रहा कि कोई भी उसे समझ नहीं पाया, बल्कि उल्टे उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ा क्योंकि उसके अपने दुख और संघर्ष सार्वजनिक हो गए और वह मजाक का पात्र बन कर रह गया।
अंत में जब वह अपने संपूर्ण जीवन का आंकलन करता है, तो उसे महसूस होता है कि “ वह किसी के प्रति समर्पित नहीं रहा। किसी के प्रेम को क्यों नहीं समझ पाया? उसने सबका विश्वास खंडित किया है। सबको दुख पहुंचाया है। उसे जीने का कोई हक नहीं।”(पृष्ठ 170) लेकिन पूरी निष्ठा के साथ अपनी संपूर्ण स्वीकारोक्तियों के पश्चात भी वह जिंदा है, क्यों? इसका कारण नायक बताता है कि “ मेरा सारा जीवन गलतियों और अपराधों से भरा पड़ा है। मैं तो कब का मर गया होता, पर मुझे बहुत बाद में समझ आया कि न चाहते हुए भी जीना किसी सजा से कम नहीं होता। यही मेरे जीने की वजह है।” (पृष्ठ 183)
विराग के जीवन में कुछ पुरुष भी आए, जैसे शोभित, दिवाकर, राजीव, विपुल, राज, अजय, महेश भैया, अविनाश, नकुल, भगत, भवानी सिंह, संजू आदि। लेकिन उसने किसी को भी अपनी दोस्ती के काबिल नहीं समझा क्योंकि उसकी दोस्ती की अपनी अलग परिभाषा थी। दोस्ती के उसके अपने अलग मानदंड थे, जिन पर शायद ही कभी कोई खरा उतरा हो। (पृष्ठ 8 एवं 101)
तो फिर अंत में क्याा होता है? क्या ऐसी परिस्थिति में अवसाद ग्रस्त विराट आत्महत्या कर लेता है ? यह जानने के लिए तो आपको यह उपन्यास पढ़ना ही होगा ।
इस उपन्यास के कुछ संवाद तो मन की गहराइयों में उतर जाते हैं। जैसे-
“आप का चांद भी अब डूबने को है।”
“मेरा चांद तो आप हैं आदि। और सूरज भी आप ही हैं, जो न कभी खुद डूबेंगे और न ही मुझे डूबने देंगे। ” (पृष्ठ 51)
“विराग क्याझ तुम वापस मेरी जिंदगी में नहीं लौट सकते ? ”
“नहीं नीरा । क्या तुम, तुम्हारे बिना गुजारा हुआ समय मुझे वापस कर सकती हो ? ” (पृष्ठ 168)
लेखक की भाषा भावों को अभिव्यक्त करने में पूरी तरह से सक्षम है। कहीं-कहीं पर तो भाषा का आंचलिक स्वरूप भी दिखाई दे जाता है-
“विराग खाना भी खाता तो राकेश को साथ बिठालना नहीं भूलता।” (पृष्ठ 118)
लेखक की भाषा में एक प्रवाह है। प्रकृति वर्णन में लेखक ने कुछ बहुत सुंदर प्रतीकों, बिंबों एवं उपमानों का प्रयोग किया है। बानगी देखिए-
“आसमान अब साफ था। धुला हुआ आसमान। जैसे बारिश आसमां को धोकर चांदनी में सुखाने डाल गई थी।” (पृष्ठ 94)
“थोड़ी ही देर में वह नींद की नदी में डूब गया।” (पृष्ठ 133)
“थोड़ी देर नदी के साथ बहने के बाद आशिमा लौट तो आई……।” (पृष्ठ 141)
“एक दिन शाम छत पर दस्तक दे रही थी”। (पृष्ठ 176)
उपन्यास में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग आवश्यकता से अधिक प्रतीत होता है क्योंकि उपन्यास का कथानक प्रदेश के जिस हिस्सेअ में घटित होता है, वहां आम तौर पर बोलचाल में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग नहीं देखा गया है, फिर अंग्रेजी के शब्दों को देवनागरी हिंदी में लिप्यंजतरित करते समय प्रूफ की जो भूलें की गई हैं, उससे कहीं-कहीं पर अर्थ का अनर्थ हो जाता है । इसके अतिरिक्त संपूर्ण उपन्यास में प्रूफ की अक्षम्यउ भूलों की भरमार हैं, जिनके कारण उपन्यास के स्वाभाविक रसास्वादन में बाधा पहुंच सकती है।
उपन्यास में एक तकनीकी भूल देखने में आई है। ज्योतिका ने एसी में दोनों तरफ का रिजर्वेशन करा लिया है (पृष्ठ 118)। वह कंपार्टमेंट से उतर गया……..ट्रेन की खिड़की से हाथ हिलाते हुए ज्योतिका उससे दूर जा रही थी (पृष्ठ 121 ) जबकि एसी कंपार्टमेंट में अंदर बैठे यात्री तो बाहर सब कुछ देख सकते हैं लेकिन बाहर वाला व्यकक्ति अंदर का कुछ भी नहीं देख सकता। फिर कांच से हाथ बाहर निकालना तो असंभव है।
उपन्यास का मुखपृष्ठ अत्यंत आकर्षक है। पीले से पृष्ठों पर मुद्रित इस उपन्यास में कुल 3 पृष्ठ( 90,155 एवं 179) पूरी तरह खाली छोड़ दिए गए हैं । इसका कारण समझ में नहीं आता । 184 पृष्ठों (वास्तविक मुद्रित पृष्ठ 181 ) के इस उपन्यास का मूल्य वाज़िब मालूम पड़ता है।

vipin pawar

उप महाप्रबंधक (राजभाषा), महाप्रबंधक कार्यालय,
मध्य रेल, 1, बेरिल हाउस, रेलवे अधिकारी आवास,
नाथालाल पारेख मार्ग, कोलाबा, मुंबई-1
संपर्क 882 811 0026

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