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Editorial : ये हमारा प्रेम दिवस है, जब प्रकृति भी प्रेममय होती है

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संयोग ही कहिए, कि पूरब और पश्चिम की संस्कृति में प्रेम का मौसम एक ही समय आता है। पूरब, यानी हमारी हिन्दुस्तानी संस्कृति में वसंत प्रेम का मौसम होता है तो इसी वासंती मौसम में पश्चिम का वेलेंटाइन दिवस भी आता है। हम भारतीय पुरातन काल से वसंत उत्सव मनाते आ रहे हैं, यह प्रेम में डूब जाने का मौसम है। वसंत पंचमी पर्व तो सदियों से इस भारत भूमि पर मनाया जा रहा है, समय के बदलाव के साथ बदली हुई परंपराओं के साथ। यह पर्व हालांकि प्रेम से जुड़ा है, प्रकृति के समीप और प्रेममयी वातावरण इस मौसम की खासियत है। लेकिन, यह वर्तमान में सदस्वती पूजा से ज्यादा जुड़ा है। इस कारण पहले जो वसंत पर्व मुख्य रूप से प्रेम का पर्व माना जाता था वो एक तरह से विलुप्त ही हो गया।
युवाओं पर आज पश्चिमी संस्कृति हावी हो गयी है, अत: अपना ही उत्सव, अपनी ही परंपरा को भुलाकर वे पश्चिम के वेलेंटाइन डे को आत्मसात कर बैठे हैं। यह पर्व संत वेलेंटाइन की याद में मनाया जाने वाला है जो विश्व में लोकप्रिय होता गया है। हालांकि इसे इतना बढ़ावा मीडिया और उपहार निर्माता कंपनियों ने दिया है। खासकर आर्चिस जैसी कंपनियां, जो उस दौर में ग्रीटिंग काड्र्स और अन्य उपहार की प्रमुख निर्माता कंपनी थी। इसी अवसर को भुनाया चॉकलेट्स, व अन्य उपहार की कंपनियों ने, रेस्टॉरेंट चेन, आदि संस्थाओं ने, जिन्होंने कई ऑफर देकर युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया। किशोरवय बच्चे भी इस उम्र में कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं जो केवल भावनाओं के उफान पर डूबते-उतराते हुए केवल जिस्मानी और रूहानी ख्यालों में अपने को इसके गुलाम बनाते गये। आज भी कमोवेश स्थितियां नहीं बदली हैं। भारत के कुछ हिन्दू संगठनों ने इस विदेशी संस्कृति का विरोध कर आक्रामक रवैया अपनाया और कुछ हद तक खुले में भौंडेपन की हद तक पहुंच चुके किशोरों और युवाओं की पाश्चात्य की नकल पर नकेल कसी। अब रेस्टॉरेंट में मिलन और अन्य चोरी छिपे यह पर्व मनाया जाने लगा और खुली आजादी में कुछ ठहराव आया है।
जहां तक भारतीय अहसास की बात करें तो हमारे संस्कारों में प्रेम को किसी भी जीव का नैसर्गिक गुण माना गया है। इसके लिए कोई एक दिन मुकर्रर नहीं किया जा सकता है। प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य के पास कई अवसर हैं। हमारे यहां तो जिंदगी का अंदाज ही प्रेम का भाव लिये होता रहा है।

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हमारे विद्वानों, साहित्यिकारों, कवियों, गीतकारों की रचनाएं प्रेम से लबरेज होती हैं। फिल्मी गीतों में रूहानियत की रचनाएं सर्वाधिक होती हैं। प्रेमकथा पर बनी फिल्मों ने रिकाड्र्स बनाये हैं। पुराने जमाने में राजेन्द्र कुमार की आरजू हो, या करीब डेढ़ दशक पूर्व बनी शाहरुख खान की दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे, इन फिल्मों ने इनके निर्माताओं को मालामाल कर दिया। इस फेहरिस्त में सिलसिला, देवदास, दिल, पाकीजा, मुगले आजम, चांदनी, आशिकी जैसी फिल्मों को रख सकते हैं।
कहने का आशय है, कि आज के किशोरों और युवाओं को समझना होगा कि प्रेम केवल दैहिक नहीं, यह आत्मिक होता है। दैहिक प्रेम नहीं, केवल भ्रम हो सकता है, यह केवल आकर्षण है, और दैहिक आकर्षण कम होते ही कथित प्रेम छूमंतर हो जाता है।
वेलेंटाइन जैसे दैहिक प्रेम से इतर यदि वासंती प्रेम की ओर आएंगे तो अहसास होगा कि इसमें प्रकृति प्रेम का संदेश लेकर आती है। पुष्प खिलते हैं, खेत-खलिहानों में फूल मुस्कुराते हैं, खेल पीले सरसों के फूलों से खिलखिलाते हुए दिखते हैं, प्रकृति श्रंगार करती है, हवा दिल के तारों को झंकृत करती है, और मन प्रेम के गीत गुनगुनाने को मचलता है, इस ऋतु में प्रकृति के प्रेम को महसूस करें तो पेड़ पुराने पत्ते निकालकर नये पत्तों का श्रंगार करते हैं, नई कोपलें आती हैं, आम के पेड़ों पर अमराई आती हैं, खेतों में सरसों के पीले फूलों से तो लगता है, धरती ने श्रंगार किया है। प्रेम इतना कि केवल मनुष्य नहीं हर प्राणी को प्रभावित किये बिना नहीं रहता है। देखने और इस प्रेम को समझने का प्रयास करें, आपको दिखाई देगा कि पशु-पक्षी भी मस्त हैं। तितलियां फूलों के इर्दगिर्द मंडराने लगती हैं। कोयल की कुहू-कुहू सुनाई देने लगती है।

हमारी संस्कृति में प्रेम जीवन में उत्साह भरता है, क्योंकि यह आत्मिक होता है, दैहिक प्रेम एक सैलाव के बाद खत्म हो जाता है, जबकि प्रेम अजर-अमर होता है। आज की शहरी संस्कृति में वसंत पुराने समय जैसा उत्साह लेकर नहीं आता। हमने प्रकृति से छेड़छाड़ की है तो अब हरियाली भी कम हुई, कई प्रकार के पौधे शहरीकरण की अंधी दौड़ की भेंट चढ़ गये, पुष्पों के पौधों की जगह घरों की लॉन में बनावटी पौधों ने ले ली है, जाहिर है, प्रेम भी बनावटी हो गया है। भागदौड़ भरी जिंदगी में हमने प्रकृति की तरफ देखना छोड़ दिया, वसंत की शोभा देखने की फुर्सत ही नहीं मिलती है। वसंत कब आता है, कब चला जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता । पेड़ों के पत्ते कब झड़े, कब नए पत्ते उगे, कब कलियों ने अपना जादू चलाया, कब तितलियों और भौंरों ने इनका रसास्वादन किया, कुछ ज्ञान ही नहीं रहता। मनुष्य की इसी आदतों के कारण प्रकृति कई जगह प्रेम नहीं गुस्सा दिखा रही है। अब कहना लाजमी होगा, जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे। प्रेम दोगे, प्रेम मिलेगा, अन्यथा जिंदगी तो उलझती जा ही रहती है, आयु कम हो रही है, क्योंकि हमारे जीन से प्रेम नदारत है, दैहिक उफान खत्म, सबकुछ खत्म और जिंदगी दौड़ रही है स्वार्थ की पटरी पर बेधड़क, जो सांस टूटने के साथ संपन्न हो जाती है।

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