
एक ऐसा उद्योग जिसके उत्पाद का मूल्य दूसरा आंकता है!
बाबूलाल दाहिया, पद्मश्री/ खेती करने के प्रमाण लगभग 9-10 हजार वर्षों से मिलते हैं, पर व्यवस्थित खेती तब से शुरू हई जब आज से लगभग 28 सौ वर्ष पहले लौह अयस्क की खोज हो गई। क्योंकि लौह आ जाने के कारण अब बस्तियां नदी के किनारे बसने के बजाय मैदान में बसना शुरू हुई, और लोग छैनी, हथौड़े, सब्बल से मैदान में कुआं खोद कर पानी पीने लगे। अब वह अपने हल की नाश में लोह की फाल लगा अच्छी जुताई कर अधिक उपज भी ले सकते थे। इस व्यवस्थित खेती ने गांव को एक आत्मनिर्भर इकाई बनाया जिसमें खेती के एक बड़े उद्योग के साथ कई छोटे उद्योगों को भी विकसित होने का मौका मिला, और सभी एक दूसरे के पूरक बन गए। उसके बाद बना एक वणिक वर्ग भी जो गांव की जरूरत से ज्यादा उत्पादित वस्तुओं को खरीद कर दूर-दूर तक ले जाने लगा। पुराने समय में अगर लोग पूछते कि अमुक गांव कैसा है ? तो जानकार लोग कहते कि अरे भाई वहां तो सती हो जाति है। क्योंकि उन दिनों जिस गांव में खेती के सहायक उद्यम वाली लोहार, बढ़ई, तेली, कुम्हार, चर्मकार, नाई और बुनकरों की 7 जातियां होती वह आदर्श एवं आत्म निर्भर गांव माना जाता था। पर पिछले 50-60 वर्ष से अब ऐसा समय आ गया है, जब गांव की यह आत्म निर्भर समाज व्यवस्था पूरी तरह छिन्न भिन्न हो गई है।
शुरू-शुरू में गांव के उपयोग की चीजें शहरों में आ जाने के कारण गांव के उद्यमियों के बालक बेरोजगार बन शहरों में मजदूरी करने गए और अब तो यह स्थिति है कि किसान का बालक भी शहर के किसी व्यापारी के यहां जाकर सेल्समैनी तो कर लेता है, पर घर की खेती नहीं करना चाहता ? क्योंकि उसे खेती नामक इस उद्योग में सिर खपाने से कोई लाभ नजर नहीं आता। मुझे स्मरण है कि 60-70 के दशक में सोना 200 रूपये तोला था और गेहूं-चावल 40 रूपये मन। मुझे याद है कि 5 मन यानी कि 2 क्विंटल चावल बेचकर मेरे बड़े भाई एक तोला सोना खरीद लेते थे। जब कि यदि मैं आज 1 तोला सोना खरीदना चाहूं तो मुझे अपना 25 कुन्टल गेहूं अथवा 20 क्विंटल चावल बेचना पड़ेगा। किन्तु 25 क्विंटल उगाने में 15 हजार की पूंजी और खुद का 4 माह का श्रम अलग से लगेगा। लेकिन यदि इस वर्ष की तरह सूखा पड़ा तो 10 -15 हजार रूपये कर्ज अलग से चढ़ जायेगा।
ऐसी स्थिति में भला कोई किसान बालक क्या खेती करना पसंद करेगा? पर वस्तुतः विश्व व्यापार संगठन की यही तो नीति ही है कि, किसान अपनी जमीन बेच दे ताकि खेती का पूरा व्यावसाय कम्पनियों के हाथ में आ जाय और उसे भी औद्योगिक घराने संचालित करें। फिर खेती में एकाधिकार के बाद उनका एसोसिएशन अपना मूल्य निर्धारित करे। क्योंकि वे अब पूरे विश्व को दो ही कटेगरी में देखना चाहते हैं। पहला कंपनी मालिक वर्ग और दूसरा मज़दूर। सरकार बार-बार खेती को लाभ का धंधा बता कर दूनी आमदनी बढ़ाने की बात कर रही है। पर दूना रेट बढ़ा कर दूना लाभ नहीं देना चाहती। जब कि असमानता तो रेट में है। पर सही बात तो यह है कि जो खेती में लाभ के धंधे के आंकड़े उसके पास आ रहे हैं वे वस्तुतः व्यापारियों और नेताओं के हैं, जो अपने काले धन को सफेद बनाने का खेल खेलते हैं। सचमुच के किसान के नहीं। आज दुनिया में खेती ही ऐसा तथाकथित उद्योग रह गया है जिसके मूल्य का निर्धारण दूसरा करता है।
बाबूलाल दाहिया, पद्मश्री