इस विश्वकप में शुरुआत से ही अप्रत्याशित परिणाम आना शुरू हो गए, जबकि पिछले विश्वकप में ऐसा ज्यादा नहीं हुआ था, और उसके पहले भी।
फ्रांस, पुर्तगाल, जर्मनी, वेल्स, बेल्जियम, अर्जेंटीना जैसी बड़ी टीम कहीं छोटी और गुमनाम टीमों से हार का कड़वा स्वाद ले चुके है। मोरक्को जैसा अत्यंत निर्धन, अफ्रीकी देश स्पेन को हराकर गहरे अवसाद और दुख की खाई में धकेल चुका है, जबकि स्पेन का पड़ोसी देश होने के कारण, मोरक्को का सारी खेल अधोसंरचना, नीतियां स्पेन से प्रेरित होकर बनाई गई है।
छोटे खाड़ी देशों के खेल में अप्रत्याशित सुधार यह भी है कि इन देशों की टीम में आधे से ज्यादा खिलाड़ी तो यूरोपियन और अफ्रीकी देशों से हैं। जबकि जापान, कोरिया, ईरान, चीन जैसे देशों को टीमों में कोई आयातित खिलाड़ी नहीं है, सारा सुधार, विकास , अपने दम पार। अंतिम आठ में , एक अफ्रीकी, दो लेटिन अमरीकी और पांच यूरोपियन टीम हैं।
काश अपने महाद्वीप से भी कोई एक टीम होती, लेकिन ये निर्विवाद सत्य है कि ये दोनों देश ने भी दुनिया को अपनी श्रेष्ठ फुटबॉल से आकर्षित किया है। बड़ी टीम, बड़े खिलाड़ी, या बड़ी टीम के बड़े खिलाड़ियों का माइंडसेट ऐसा होता है, कि ऊपर के मैच में, नोक आउट में, फाइनल या फाइनल के पहले के मैचेज में, नेक टू नेक में इनके खेल में, दवाब/ तनाव में ये टीम और खिलाड़ी पहले से कहीं , कहीं ज्यादा बेहतर प्रदर्शन करते हैं। पहले के मैचेज के मुकाबले ब्राजील, फ्रांस, पुर्तगाल के खेल में कमाल का सुधार और आत्मविश्वास दिखाई दे रहा है।
और अनुभव की कमी, तनाव को अपने सिर पर ले लेने का भारी नुकसान कोरिया, जापान, सेनेगल उठा चुकी है। जर्मनी का अंतिम 16 में न आना, इस विश्वकप की सबसे हैरतंगेज घटना है। हम उम्मीद करें कि चारों क्वार्टरफाइनल में एक जैसा संघर्ष हो, न कि एकतरफा मुकाबले। लेकिन क्रोएशिया, मोरक्को, नीदरलैंड के अपोनेंट टीम थोड़ी ज्यादा मजबूत दिखाई दे रही है, लेकिन फिर बात वही आ जाती है की। “”उलटफेर “”
अखिल दुबे, खेल मामलों के जानकार