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पर्युषण पर्व: शरीर नहीं आत्मा को शुद्ध करना शौचधर्म

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इटारसी। पर्युषण पर्व(Paryushan parv) के पांचवे दिन उत्तम शौच धर्म के अंतर्गत श्री चैत्यालय में प्रात:  तीन बत्तीसी का पाठ एवं 9 बजे से पं.ओम प्रकाश ने मंदिर विधि संपन्न कराई। इस दौरान प्रवचनों में बताया कि शौच/शुचि का अर्थ होता है शुद्धि या पवित्रता। शौचधर्म का प्रयोजन आत्मा को पवित्र करने से है, इसका इस देह की शुद्धि से कोई संबंध नहीं मानना चाहिए। अनादि काल से यह आत्मा लोभ रूपी मल से मलिन हो रहा है, उसे पवित्र करना तथा करने का भाव होना ही शौचधर्म है। शुद्धात्म भावना को मलिन करने वाली लोभ आदि भीतरी कुभावनाओं को त्यागकर शुद्धता प्राप्त करना ही उत्तम शौच धर्म कहलाता है।

वह जीव मिथ्यादृष्टि हैं जो इस शरीर को स्नानादि से साफ़ कर लेने को शौच मानते हैं, या गंगा आदि नदियों में स्नान करने को शुद्धि मानते हैं, जबकि ज्ञानी-जन कहते हैं कि शरीर को शुद्ध मानना वृथा है। विचार करने वाली बात है कि जो शरीर स्वयं ही मल से बना है, जिसके नौ द्वारों से मल नियमित रिसता रहता है, करता वह स्नान करने से कभी शुद्ध हो सकता है?
लोभ कषाय का अभाव हो जाना शौच धर्म कहलाता है। शास्त्रों में लोभ को पाप का बाप बताया है सारे पापों की जड़ यह लालच ही है। हम जानते हैं कि लालची जीव किसी भी अवस्था में संतुष्टि को प्राप्त नहीं होता वह तो सदैव ही असंतुष्ट रहता है। असंतुष्ट जीव की आशाएं, अपेक्षाएं और संसार कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। लालची जीव अपनी विषय पूर्ति के लिए समय आने पर चोरी, मायाचारी, छल-कपट, हिंसा, परिग्रह, बैर-भाव भी करता है। आत्मा की शुचि/निर्मलता ही मोक्ष का मार्ग है।
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