प्रसंग-वश: श्रीकृष्ण- सुदामा प्रसंग सिखाता है हमें मित्र का चित्र नहीं चरित्र देखें
रविवार को फ्रेंडशिप डे सबने मनाया। श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता भौतिक व आध्यत्मिक दोनों दृष्टियों से अद्वितीय थी, अद्भुत थी, बेमिसाल थी। क्योंकि उनमें एक दूसरे के प्रति सिर्फ अनंत प्रेम था, अनंत समर्पण था। कहावत हैं कि मित्रता बराबरी वालों से करनी चाहिए। आज के इस अर्थ प्रधान दौर में जब पैसा ही भगवान मानें जाना लगा है , इस कहावत का विकृत अर्थ यह लगाया जाता हैं कि आर्थिक रूप से जो आपकी बराबरी का हो, उसी से मित्रता करें। पर वास्तव में श्रीकृष्ण का संदेश यही हैं कि बराबरी से तात्पर्य गुणों से,चरित्र से हैं। बल्कि उससे भी आगे बढ़कर वे तो श्री सुदामा चरित्र के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि बराबरी वाले से नहीं बल्कि गुणों व चरित्र में अपने से श्रेष्ठ से ही मित्रता करनी चाहिए। ताकि वो आपके व्यक्तित्व व कृतित्व को अधिकाधिक तेजस्वी, प्रखर,ऊर्जावान व सार्थक बना सकें। तभी आपका मित्रता करना भी सार्थक होगा अन्यथा आप अपने आपको ही धोखा दे रहें होंगें। मित्र का चित्र अर्थात उसका रुतबा, बल, वैभव आदि नहीं बल्कि उसका चरित्र देखें व समझें।राजा परीक्षित द्वारा अपनी मृत्यु के दिन श्री शुकदेव जी से पूछे गये प्रश्न जीवन के उत्तरार्ध की तेैयारी कैसें करें का आध्यत्मिक संदेश सुनाते हुए कुछ वर्ष पूर्व इटारसी में हुए एक सत्संग में हवेली मंदिर के मुखिया जी हरिकृष्ण जी ने इटारसी की ही धरा पर बहुत अद्वितीय चिंतन किया था। सुदामा चरित्र का प्रसंग मुखिया जी ने जीवन दर्शन के कई कोणों से बड़ी प्रखरता व जीवंतता के साथ सुनाया था।
सुदामदेव एक ऐसे ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण थे जिनके रोम रोम में श्रीकृष्ण बसे थे। उन्होंनें न तो कभी अपनी ब्राह्मण जाति व अपनी विद्वता को अपने व परिवार के पेट भरने का जरिया बनाया, न ही अपने मित्र द्वारिकाधीश से ही कभी कोई सहयोग लिया। उनकी विद्वता, उनके आराध्य की भक्ति का एक स्त्रोत मात्र थी, उनकी विद्वता में जो निजता थी वह बेमिसाल ही थी। अन्यथा वे किसी भी बड़े से बड़े गुरूकुल से जुड़कर सुखमय जीवन जी सकते थे। पर उनकी भक्ति ही उनका असल सुख थी। फिर उनकी पत्नी सुशीला भी नाम के अनुरूप पति के आदर्शों पर चलने वाली अत्यंत धैर्यवान थी। पत्नी को ऐसा ही होना भी चाहिए। सुदामदेव का प्रण था कि कभी भी किसी से कुछ भी मांगूंगा नही। यदि कोई यजमान साल भर का अनाज देना भी चाहता तो सुदामदेव मना कर देते। संग्रह की वृत्ति उन्हें कदापि स्वीकार नहीं थी। सुशीला जी से जब अपने बच्चों की भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो उन्होनें सुदामदेव से अनुरोध कियाआप अपने मित्र द्वारिकाधीश से एक बार मिल तोआओ। मैं कुछ मांगने नहीं भेज रही बल्कि दर्शन करने भेज रहीं हूँ।
साथ में एक पत्र भी दिया, जिसमें अत्यंत मर्यादा व स्वाभिमान के साथ लिखा कि हे द्वारिकाधीश, माह में दो एकादशी आती हैं जिन पर व्रत करना चाहिए पर मेरा पूरा परिवार तो प्रतिदिन ही एकादशी कर रहा हैं। पढ़कर द्वारिकाधीश रो पड़े व कहने लगे कि मेरा दीनानाथ कहलाना आज झूठ हो गया। उन्होंने पूर्व दिशा में खड़े सुदामदेव को बिदा करते हुए तिलक करना चाहा तो देखा कि उनके भाल पर लिखा था श्री क्षय। इसे पलटकर उन्होंनें यक्षश्री कर दिया व पूर्व दिशा के मालिक इंद्र को हंसते देखा तो इंद्र का वैभव भी सुदामा के परिवार को उसी क्षण दे डाला। पर अपने मित्र को पहनाए पीतांबर को भी उतारने को कह अपनी फटी पुरानी घोती ही पहनने को कहा। इस प्रसंग के गहरे संदेश है। श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि दुनिया यह कहे कि कभी किसी से कुछ नहीं मांगने का प्रण करने वाले उनके मित्र सुदामा द्वारिकाधीश के महल से एक पीताम्बर पहनकर भी कैसे निकलें? श्रीकृष्ण को सुदामा की खुद्दारी की रक्षा की ज्यादा चिंता हेैं। पर वे सुशीलाजी द्वारा दी गयी चिवड़े या पोहे की पोटली जो सिर्फ उनके लिए दी गयी थी,
सुदामा से छीनकर खा जाते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि एक बार फिर सुदामा उनके हिस्से का अन्न खाकर पाप के भागी बनें जैेसे कि गुरूकुल में रहते हुए, जंगल में खाने हेतु गुरू माता द्वारा लिए दिये गये उनके हिस्से के चने भी सुदामा खा गये थे औेर भीषण दरिद्रता भोगी। हालांकि आज के दौर मेेंं भगवान के हिस्से का व उनके नाम का ,भगवान के मंदिरों के हिस्से का देश भर में कौेन, कितना, कैसे खा रहा है,सब जानते हैं। पर कलयुग में उनको सुदामा की तरह दरिद्रता का फल नहीं मिल रहा है। उल्टे वे उत्तरोत्तर वैभवशाली हो रहें है। कदाचित इसीलिए कि इस जन्म में तो जो भी सुख हमें मिलेगा,अपने पूर्व जन्म के संचित प्रारब्ध से ही मिलेगा। ऐसा कहा जाता हैं कि श्रीमदभागवत के विभिन्न प्रसंगों की प्रतिश्रुति फल के अनुसार सुदामा चरित्र का प्रतिश्रुति फल यह होता हैं कि इसे प्रेम से सुनने व कहने वाला बड़े से बड़े सुख में भी अपने आराध्य को,अपने भगवान को कभी नहीं भूलता। यह बहुत बड़ा फल हेैं क्योंकि जीवात्मा प्राय: यहीं तो धोखा खा जाता हैं और इस कारण उसके जीवन का उत्तरार्ध बिगड़ जाता हैं। जिस तरह शुद्ध इत्र पूरी फिजा को महका देता है, जीवंत चित्र भी मन्त्रमुग्ध कर देता है सबको, उसी तरह मित्र वही होता है जो आपकी जिंदगी को महका दे, आपकी रूह को भी मंत्र मुग्ध कर दे। प्यार की तरह मित्रता में भी सिर्फ देना ही होता है, बाबजूद इसके देकर ही, खोकर भी मिलता है बहुत सुकून। अतः अब किसी को अपना मित्र कहें या स्वयं को किसी का मित्र मानें तो एक बार नहीं दस बार, इस कसौटी पर आत्मचिंतन जरूर करें ताकि मित्रता जैसा पावन भाव, मित्रता जैसा पुनीत सम्बन्ध, मित्रता जैसा पाक शब्द लांछित न हो। आप यदि किसी भाव, किसी सम्बन्ध को गौरवान्वित नहीं कर सकते तो कम से कम उसे लांछित तो नहीं करें। जय श्री कृष्ण।
चंद्रकांत अग्रवाल (Chandrakant Agrawal)