इटारसी। वही बालक-बालिकाएं विद्वान बनते हैं जिनके पालक उन्हें जीवन के प्रारंभ से ही शिक्षा और संस्कार दोनों साथ-साथ प्रदान करते हैं। उक्त उद्गार हरिद्वार के संत विश्व स्वरूपानंद गिरि महाराज ने यहां वृंदावन गार्डन के सभागार में आयोजित श्रीमद् भागवत कथा में व्यक्त किये। ब्रह्मलीन महंत श्री सुंदर गिरी महाराज की पावन स्मृति में आयोजित संगीत मय श्रीमद् भागवत कथा सप्ताह ज्ञान यज्ञ के द्वितीय दिवस में स्वामी विश्व स्वरूपानंद गिरि महाराज ने गोकर्ण एवं धुंधकारी प्रसंग की कथा में कहा कि सतयुग में आत्मदेव नाम के एक महाराज थे जिनके यहां कोई संतान नहीं थी जिसके लिए वह एक विद्वान महर्षि से मिले तो महर्षि ने उन्हें अपने तप से दो फल दिए और कहा यह फल अपनी धर्मपत्नी को ग्रहण करने के लिए दे दीजिए महर्षि से यह फल लेकर आत्मदेव अपनी पत्नी धुंधली के पास गए और उन्हें वह फल ग्रहण करने को दिए।
पत्नी ने वह फल अपनी सहायिका को दिए और कहा कि आप ग्रहण कर लो। सहायिका ने एक फल ग्रहण किया और एक गाय को ग्रहण कराया उसके पश्चात समय अनुसार सहायिका को भी पुत्र हुआ और गाय को भी। सहायिका के पुत्र का नाम धुंधकारी रखा गया और गाय के पुत्र का नाम गोकर्ण रखा गया। दोनों ही आत्मदेव की संतान बने लेकिन दोनों में अंतर इतना था की धुंधकारी दुष्ट प्रवृत्ति का बना और गोकर्ण संत प्रवृत्ति का विद्वान, क्योंकि दोनों के संस्कार अलग-अलग हुए। धुंधकारी को अच्छे संस्कार नहीं मिलने से उसकी दूसरा के कारण पूरा परिवार नष्ट हो गया, लेकिन गोकर्ण वन चले गए और वहां जब तप किया और जब उन्हें पता चला कि उनका भाई धुंधकारी भी मृत्यु को प्राप्त हो गया और उसकी प्रेत आत्मा भटक रही है, तब गोकर्ण ने श्रीमद् भागवत कथा आयोजन किया।
इस आयोजन में उसका प्रेत भाई धुंधकारी एक सात गठान वाले बांस के अंदर समाहित हुआ और सातों दिन की श्रीमद् भागवत कथा श्रवण की। प्रतिदिन बांस की एक गठन चटकती गई और धुंधकारी के पाप दूर होते गए। सातवें दिन सातों गठान टूटी तो पूरा बांस फट गया जिसमें से निकलकर धुंधकारी की प्रेत आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई। इस प्रकार श्रीमद् भागवत जी के माध्यम से जहां अच्छे शिक्षा संस्कार प्राप्त होते हैं तो वहीं जीते जी सभी प्रकार की सुख शांति धनविभाव प्राप्त होता है और मृत्यु के उपरांत आत्मा भी परमात्मा में विलीन हो जाती है। इसके साथ ही महाराज न भजनों की प्रस्तुति भी दी। कथा के प्रारंभ में यजमान श्याम गिरी ने व्यास पूजन कर महाराज का स्वागत किया। इस अवसर पर कार्यक्रम संयोजक शिव शंकारानंद गिरी एवं मुंबई के महामंडलेश्वर भी प्रमुख रूप से उपस्थित थे।









