साढ़े आठ दशक से कायम है यह परंपरा
दुर्गा चौक, मंदिर में विराजीं भगवती
माता महाकाली प्रतिमा गुरुद्वारा भवन
इटारसी। जब तक मां का आशीर्वाद नहीं मिले, कोई काम आसान नहीं होता है। इसी भावना को यहां विगत साढ़े आठ दशक से कायम रखकर परंपरा निभाई जा रही है।यहां मां का आशीर्वाद लेकर श्रीराम, रावण का वध करते हैं और इसके बाद ही दशहरा (Dussehra) मनाया जाता है। हम बात कर रहे हैं इटारसी के ऐतिहासिक दशहरे की। यहां गांधी मैदान में मनाया जाने वाला दशहरा दुर्गा चौक की माता दुर्गा और गुरुद्वारा भवन (Mata Durga and Gurdwara Bhawan) में विराजीं माता महाकाली की पूजा बिना संपन्न नहीं होता है।
भगवान श्री राम और लंकापति रावण (Lankapati Ravan) का युद्ध जब अपने अंतिम दिनों में था तो सत्य की विजय के लिए श्री राम ने समुद्र किनारे शक्ति की आराधना की थी जिसके बाद ही उन्हें विजयश्री हासिल हुई थी। उसी परंपरा को यहां इटारसी में भी निभाया जा रहा है। इस लेख में हम आपको उन्हीं दो देवियों के दर्शन कराएंगे, जिनसे शक्ति प्राप्त करके श्रीराम युद्ध में रावण को परास्त करके उसका वध करते हैं और फिर यहां दशहरा मनाया जाता है।
दुर्गा चौक (Durga Chouk), मंदिर में विराजीं भगवती
इस वर्ष दुर्गा चौक (Devi Durga Chouk, Itarsi) में विराजीं भगवती की स्थापना का 84 वॉ वर्ष है। अंग्रेजों के शासन काल में सन् 1938 के लगभग यहां समिति ने देवी प्रतिमा स्थापित करना प्रारंभ किया। समिति स्व. रामनारायण अग्रवाल, स्व. रमेश चंद्र भार्गव (मंदिर के पूर्व पुजारी व मूर्ति स्थापना समिति के वरिष्ठ सदस्य), स्व. शंकरलाल मालवीय, जगदीश मालवीय, ओम चाचा, गौरीशंकर मालवीय, रमाकांत अवस्थी के साथ इनकी संपूर्ण मित्र मंडली ने प्रारंभिक वर्षों में तन-मन-धन से मां की सेवा में अपना योगदान दिया।
आज भी समिति में करीब डेढ़ दर्जन सदस्य इस समिति से जुड़े हैं जो अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित इस परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। यहां विराजने वाली देवी सबसे सुंदर और आकर्षक देवी प्रतिमाओं में से एक है। मुख्य बाजार की एक यही प्रतिमा है जिसमे संपूर्ण जयस्तंभ चौक के आसपास के व्यापारी तन-मन-धन से सहयोग करते हैं, साथ ही परिवार सहित अपनी उपस्थिति भी दर्ज कराते हैं।
माता महाकाली (Mata Mahakali) प्रतिमा गुरुद्वारा भवन
श्री महाकाली मंडल (shri Mahakaali Mandal) द्वारा गुरुद्वारा भवन में विराजने वाली मां काली की भव्य प्रतिमा का यह 86 वॉ वर्ष है। इस प्रतिमा का इतिहास सन् 1935 से मिलता है। समिति से जुड़े राजू बतरा, अशोक पोपली, अमरजीत सिंघ छाबड़ा गोविंद नारायण चौरे ने बताया कि अंग्रेजों के शासनकाल में शहर के ही एक कृषक प्रेमदास महोबिया ने मां काली की इस मूर्ति स्थापना को साकार रूप दिया था। उस समय मूर्ति स्थापना का खर्च सिर्फ चंद रुपयों में आता था, बाकि अन्य कार्य जैसे भंडारा-प्रसादी तो सामाजिक सहयोग से हो जाते थे।
सन् 1935 में जब अंग्रेजों के विरुद्ध अन्दोलनों के चलते श्री महोबिया को जेल जाना पड़ा तो उन्हें नवरात्रि में मूर्ति स्थापना की परपंरा के टूटने का डर सताने लगा। उन्होंने अपने अभिन्न मित्र शंकरभगवान चौरे को इसकी बागडोर सौंपी। वर्ष 1935 से मां काली मूर्ति स्थापना का जिम्मा शंकरभगवान चौरे ने संभाला। श्री चौरे ने अपने मित्र वल्लभ कुमार मालवीय, हरिसिंह छाबड़ा, लक्ष्मी सिंह ठाकुर, शेरसिंह भोला को भी अपने साथ ले लिया और इस पूरी मित्र मंडली ने अपने दम पर ही इस परंपरा को बरकरार रखा। सन् 1993 में जब शंकरभगवान चौरे स्वर्गवासी हुए तो अब उनके पुत्र गोविंद नारायण चौरे और हरिसिंघ छाबड़ा के पुत्र अमरजीत सिंघ छाबड़ा (Amarjeet Singh Chhabra) अपने साथियों के साथ इस परंपरा को निभा रहे हैं। हर रोज रात्रि में ढोल की थाप पर माता की आरती की जाती है। दशहरे के दिन ये दोनों प्रतिमाएं दशहरा की रात गांधी मैदान पहुंचती हैं। श्रीराम इनकी पूजा करके आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, इसके बाद ही रावण का वध और रावण के पुतले का दहन किया जाता है।