पानीदारी : अब यही पानी बचा सकें, बचायें

पानीदारी : अब यही पानी बचा सकें, बचायें

इटारसी। कल अंतर राष्ट्रीय गौरैया दिवस (International Sparrow Day) था और कल जल दिवस (Water Day) है एवं आने वाले कल में विश्व वानिकी दिवस (World Forestry Day) भी होगा। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय कोई भी दिवस घोषित करता है तो उसका आशय यही होता है कि उसे गंभीरता से लिया जाये। वह संकटापन्न स्थिति में है।वैसे जल और वन एक दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि जहां- जहां घना वन (Dense Forest) वहां-वहां अधिक वर्षा और जहां-जहां अधिक वर्षा वहां अधिक घना वन भी। पर बात जल की करते हैं क्योंकि किसी ने यह भी तो कहा है कि, जल है तो कल है। इसलिए कल की बात पर आज से ही चिंतन जरूरी है।
वैज्ञानिकों (Scientists) का शोध बता रहा है कि धरती में लगभग 3 हिस्सा जल है और एक हिस्सा भूमि। पर वह खारे पानी का समुद्र (Samudra) है जो हमारे सिंचाई या पीने के लिए उपयुक्त नहीं है। हमारे उपयोग हेतु 2 फीसद जल ही है जो हमें झील, झरनों, नदियों और धरती के नीचे स्रोत के रूप में मिलता है। हमारे मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में हर साल वर्षा अमूमन 20 जून के आसपास शुरू होकर 25 सितंबर तक समाप्त हो जाती है। यह क्रम हजारों वर्षों से निरन्तर इसी तरह चला आ रहा है। बीच में कभी-कभी वर्षा रुक भी जाती है जिससे बड़े-बड़े अकाल पड़े और लोग भोजन के लिए त्रस्त हुए, पर प्यासों मरने की नौबत कभी नहीं आई क्योंकि हजारों वर्षो की बारिश का जल धरती के नीचे संचित था। पर कुछ वर्षों से हर साल जल संकट एक समस्या सा बन गया है। और इसका कारण है, हमारी खेती की नई पद्धति।
यदि हम आज के पानी की खपत का ताजा आंकड़ा देखें तो 2.5 फीसद पीने, नहाने-धोने आदि में। 15 प्रतिशत उद्योग धंधों में और 82.5 प्रतिशत सिंचाई में खर्च होता है। इसलिए न तो उद्योग धंधों के पानी से कटौती संभव है ना ही पीने, नहाने-धोने जैसे निस्तार के पानी से। यदि कटौती संभव है तो सिर्फ सिंचाई वाले पानी से ही। इसलिए खेती के ऊपर हमें विचार करने की जरूरत है। क्योंकि यदि हम लीटर (Litter) के माप पर बात करें तो प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन पानी की खपत नहाने- धोने, बर्तन, साफ-सफाई पीने व शौच क्रिया आदि में मात्र 40-50 लीटर ही होता है। पर जो भोजन की थाली हमारे सामने दोनों वक्त परोस कर रखी जाती है, उसको खेत में उगाते समय लगभग 2000 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है। क्योंकि हम वर्षा आधारित खेती के मोटे अनाज एवं परंपरागत बीज पूरी तरह त्याग चुके हैं जो यहां की परिस्थितिकी में हजारों साल से रचे बसे थे एवं कम वर्षा और ओस में भी पक जाते थे?
जिसका अर्थ अब यह भी होता है कि अगर हम एक क्विंटल गेहूं उगाकर बाजार भेजते हैं तो अपने गांव का 1 लाख लीटर पानी गांव के बाहर भेज रहे हैं । एक बात और समझने की जरूरत है, कि उत्तर भारत की नदियां हिमनद हैं। पानी बरसे न बरसे, हिम पिघलेगा और पानी आकर जल स्तर को समान रखेगा। पर हमारे यहां की नदियां हिम पुत्री नहीं वन पुत्री हैं। उनका अस्तित्व वन से ही है। हमारे संस्कृत ग्रन्थों में हमारी प्रसिद्ध नदी नर्मदा (Narmada), रेवा, (Rewa) मेकलसुता ( Mekalsuta) आदि कई नाम हैं पर एक नाम वनजा यानी वनजाई (वनपुत्री) भी है।
किन्तु वन भी तभी बचेंगे जब जल बचाने के प्रयास होंगे। आज हमें अपने यहां की परिस्थितिकी के अनुसार यह विचार करना भी जरूरी है कि वह अनाज आज हमारे लिए कतई उपयुक्त नहीं कहे जा सकते जो अपने बाजार मूल्य से भी अधिक मूल्य वान हमारा पानी बर्बाद कर रहे हैं। क्योंकि देश प्रेम के उन्माद के साथ चोर दरवाजे से विकास के नाम पर आज विनाश अधिक आ रहा है। इसलिए हमारी नजर उस पर भी होनी चाहिए।

Shri Babulal Dahiya  

बाबूलाल दाहिया, पद्म श्री

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AUTHORRohit

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