इतिहास बहादुरों का ही होता है, कायरों का नहीं

इतिहास बहादुरों का ही होता है, कायरों का नहीं

बाबूलाल दाहिया: आज एक ऐसे क्रांतिकारी सपूत की पुण्य तिथि है जिसने अंंग्रेजोंं के प्राकृतिक संसाधन लूट के खिलाफ आवाज बुलन्द की थी और अपने परम्परागत आयुधों के साथ लोहा लिया था। वे सपूत है बिरसा मुंडा।
दर असल आदिवासियों की संस्कृति प्राचीन काल से ही सामूहिकता की रही है। उनके लिए जंगल पहाड़ या, यूंं कहिए कि हर प्राकृतिक संसाधन एक भोजन कोष रहा है जिसे वह आवश्यकता के अनुसार उपयोग करता एवं,

“दास कबीर जतन से ओढ़ी,
ज्यो की त्यों धर दीन्ही।”

की तरह अगली पीढ़ी को सौंप देता था।
यही कारण है कि आदिवासी संस्कृति में आज भी इस जीव जगत के लाखों वर्ष बने रहने की अवधारणा छिपी है। क्योंकि वह धरती के सीमित संसाधनों का उपभोक्ता है। शक्ति शाली शत्रु के आगे साधन हीन समुदाय की पराजय स्वाभाविक है। इससे दुनिया भर का इतिहास भरा पड़ा है।
किन्तु कमजोर व्यक्ति अत्याचार सहता रहे लेकिन उस अन्याय का विरोध ही न करे? यह तो सम्भव नहीं है। यही कारण है कि अनादि काल से ही इस तरह के संसाधन लूट के खिलाफ यहां के मूल निवासियों का विरोध इतिहास और लोक साहित्य की मौखिक परम्परा में आज भी मौजूद है ।
इस तरह के यहां के मूल निवासियों के अनेक बहादुर पुरखे पुरखिने उनके सार्वजनिक देवालयों में स्थापित हैं जो कबीले के हित में कभी प्राण उत्सर्ग किया होगा। हम लोगों ने अभी 4-5 दिन पहले ही पर्यावरण दिवस मनाया है, मैं अपने इस सच्चे पर्यावरण संरक्षक को संथाल अभिवादन “रेड जय जोहार “करता हूं।

बाबूलाल दाहिया
(लेखक पद्मश्री सम्मान से सम्मानित हैं)

CATEGORIES
Share This
error: Content is protected !!