कविता: जानती हूँ कि…

कविता: जानती हूँ कि…

जानती हूँ कि
तुमको बहुत पसन्द हैं
मेरी ये लिपियाँ…

चूड़ी, बिन्दी, काजल भरे नैन और
ये मोती जड़े कर्णफूल!
तुम हमेशा कहते हो कि
अद्भुत हैं ये लिपियां
कितने भावों से अलंकृत है!
मेरी चूड़ियों से जन्मी
ये संगीतमय ध्वनि
तुम्हारे हृदय की धड़कनों को
क्रमबद्ध कर धड़काती है
जैसे कोई निर्विघ्नं बहती जलधार…

माथे की
सुर्ख़ सिन्दूरी बिन्दी को देख
हर बार मेरे चेहरे की
अरुणिमा तुम्हें
सम्मोहित कर
बाँध देती है प्रेम में
काजल की काली डोर
तुम्हें जकड़ लेती है
एक अजीब से मोह में …

फिर !

पार नहीं कर पाते तुम
मेरे दिल की दहलीज़
ये लिपियाँ तुम्हें
वशीकृत करती हैं
और समेट लेती हैं
तुमको अपने बाहुपाश में …
एक अदृश्य प्रेम से जिससे
आज़ाद होना और
आज़ाद करना
हम दोनों की चाह से परे है… !

मोनिका श्री
बैंगलूरू (कर्नाटक)

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