मयकदा खफा है हमारी
बढ़ती गैर हाजिरी से
अब कैसे जाएं हम जब
डूबे हैं तेरी बेखुदी में।
स्याही रूठी है कि क्यूं
नहीं सजाते अब लफ्ज़
पर कैसे लिखें वो अल्फाज़
जो सिमट गए तेरे तसव्वुर में।
फिजाएं भी नाराज़ हैं कि नहीं
करते अब हम रुख गुलशन का
कैसे जाएं अब उस जानिब
जब कस्तूरी बसी तेरे दामन में।
अदिति टंडन
आगरा .