महोदय,
कंप्यूटर और मोबाईल के प्रचलन में आने के बाद पोस्ट कार्ड, अंतर्देशीय, लिफाफे, मनीऑर्डर आदि को जैसे हम भूल ही गए। इसके लिये पोस्ट ऑफिस की लचर कार्यप्रणाली भी जिम्मेदार है। बाहर से आने वाली कोई भी डाक या तो हमें मिलती ही नहीं है। अथवा समय पर नहीं मिलती।
डाक के माध्यम से मुझे भेजी गई शब्द ध्वज, कथादेश जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाएं अब तक अप्राप्त हैं। यहां तक कि बैंक ऑफ इंडिया द्वारा डाक से मेरे पते पर प्रेषित चैक बुक भी मुझे अब तक नहीं मिली है। दरअसल यह सब कुरियर कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिये एक साजिश के तहत हो रहा है।
ये साजिश ठीक उसी तरह की है जैसी साजिश बी एस एन एल के कर्मचारियों ने निजी कम्पनियों के साथ मिलकर की थी। आज स्थिति यह है कि टेलीकम्युनिकेशन के क्षेत्र में निजी कंपनियों के तो पैर जम गए मगर बी एस एन एल कर्मचारियों के पैर उखड़ गए। वे न घर के रहे न घाट के।
अब त्रेतायुग तो है नहीं जो इन विभीषण कर्मचारियों को राम जी की शरण मिल जाती। खैर। यह कलियुग है प्रभु। जो जैसा करेगा वो वैसा भरेगा। आपने अपनी गली में पोस्टमैन को भी वर्षों से नहीं देखा होगा। पिछले दिनों ही एक पब्लिशर ने मेरी प्रकाशित पुस्तकें डाक से भेजने का अपराध कर दिया।
हां एक काम उन्होंने जरूर अच्छा किया जो पते के साथ मेरा मोबाईल नम्बर दे दिया। पोस्ट ऑफिस को भी एक आसान रास्ता मिल गया। उन्होंने मुझे कॉल किया कि – ‘आपकी एक डाक आई है आ कर ले जाईये। ‘ मैंने उन्हें कहा- ‘डाक पहुंचाने की जिम्मेदारी आपकी है। आप मेरी डाक घर पहुंचाईये।’… लेकिन जनाब उनकी मोटी चमड़ी पर मेरे कहे का कोई असर नहीं हुआ।
अंत: मन मार कर मुझे ही मेरी डाक लानी पड़ी। उस पर तुर्रा ये कि-‘आप अगर नहीं आते तो हम डाक वापस कर देते।’ फिर वे कुटिलता से मुस्कुराए और बोले – ‘साहब ! आप तो लेखक हैं। साहित्यकार हैं। कवि भी होंगे। दो लाइन ही सुना दीजिये। ‘ मैंने कहा – ‘चुराई हुई है।’ वे बोले – ‘साहब इस देश में मौलिकता रह कहां गई।
कुछ तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय कवि तक चुराई हुई कविताएं सुना रहे हैं और उसी की खा रहे हैं। सत्ता के गुण गा रहे हैं। ‘ मैंने कहा तो सुनो –
क्या बात है जो
पत्र आना बंद है ?
डाक गाड़ी लुट गई ?
या डाक खाना बंद है ?
वहां बैठे सारे पोस्टमैन एक साथ बेशर्मी से हस दिए। कुछ ने वाह वाह भी की। बकायदा ।
मैंने कहा – ‘तुम लोग चोरी का माल हजम कैसे कर लेते हो यार। ‘ वे बोले – ‘साहब वैसे ही जैसे कुमार विश्वास करता है।’
मैं उनके साहित्यिक ज्ञान से अभी तक अभिभूत हूं। अब आप भी एकाध चक्कर पोस्ट ऑफिस का लगा आईए। कुछ पोस्ट मत करिएगा क्योंकि लगभग डेढ़ लाख की आबादी के इस शहर में मुश्किल से पांच लैटर बॉक्स होंगे। आप तो बस टहलने के उद्देश्य से जाईयेगा।
विनोद कुशवाहा
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