बहुरंग: ‘माँ’ ज़िन्दा रहती है अपने पूरे वजूद के साथ

बहुरंग: ‘माँ’ ज़िन्दा रहती है अपने पूरे वजूद के साथ

‘माँ”मरती नहीं है माँ कभी
ज़िन्दा रहती है
अपने पूरे वजूद के साथ
जीवन की अंतिम सांस तक

ठीक उसी तरह
मेरी माँ भी
मरने के बावजूद
आज तक ज़िन्दा है
अंदर आती – जाती
हर सांस में

जब मैंने जन्म लिया था
तब उसी समय
माँ का भी तो नया जन्म हुआ
हर माँ की तरह

सोच सकता हूं मैं
कि पहली बार
गोद में लेते हुए मुझे
उमड़ आए होंगे माँ के आंसू
सीने से लगा लिया होगा
माँ ने मुझको
मिल गई होगी
माँ के दिल की धड़कन
मेरे दिल की धड़कन से
एक हो गई होंगीं
मेरी सांसें
माँ की सांसों से

उसके बाद
मैंने कर दी होंगीं
माँ की नींदें हराम
फिर भी रात भर जागकर
निहारती रहती होगी माँ
मुझको

मुस्कुराया भी होऊंगा
मैं जब पहली बार
चीखकर खुशी से
बताया होगा
माँ ने सबको

पहली बार
जब मैंने ‘ माँ ‘ कहा
पहली बार
जब मैंने बढ़ाये अपने कदम
पहली बार
जब मैं घर से निकला
स्कूल के लिए
तब माँ ही तो
साक्षी बन खड़ी थी सामने
घर की दहलीज पर

इस तरह ता ज़िंदगी
यूं ही देखती रही माँ
मुझको बड़ा होते हुए
और खुद को
मुझमें खोते हुए

फिर मेरी परवाह
मेरी देखरेख
मेरी परवरिश
मेरी चिंता
माँ के जीवन का
हिस्सा बन गए

गर्मी में
लू से मुझे बचाती माँ
तो बारिश में
भीगने भी नहीं देती माँ

देखता रहता
मैं दिन भर
खिड़की से बाहर
बच्चों को
भागते – दौड़ते भीगते
कागज की नाव चलाते
गुपनी खेलते
मछलियां पकड़ते

कभी – कभार घर की
सीढ़ी पर बैठकर
मैं भी एकाध नाव बहा देता
नाव के साथ ही
बह जाते
मेरे सपने भी
इन सपनों को
पकड़ना होता मुझे
माँ की चोरी से

रात
घने काले बादल
तेज आंधी
धुंआधार बारिश
आकाश में
आड़ी तिरछी
कई चमकदार लकीरों के साथ
कड़कती बिजली
मां और मैं
अकेले करते
इन सबका सामना
अपने अकेलेपन के साथ

सुबह
मैं करता इंतज़ार
बादलों के छंट जाने का
‘ एक टुकड़ा आसमान ‘ का
और
गुनगुनी कच्ची धूप का

ठंड का मौसम
मेरे लिए
शर्म से भरा होता
सर से लेकर
पैरों तक
गर्म कपड़ों से ढंका
मैं जब स्कूल पहुंचता
तो सबसे अलग दिखता
तब
एक कोने में
बैठ जाता
दुबक कर
अपने आप में
सिमट कर

बारिश
ठंड के मौसम में भी
पीछा नहीं छोड़ती हमारा
बारिश हो न हो
आसमान में
छाए हुए बादल ही
काफी होते
हमको डराने के लिये
आखिरकार
मेरा डर
सच साबित हुआ
एक दिन
ऐसे ही मौसम में
‘ दिसम्बर ‘ की एक रात
छोड़कर मुझको
चली गई माँ
और
चली गई
उनके साथ ही
मेरी परवाह
देखरेख
परवरिश
और
उनकी चिंतायें भी

आता है अब भी वही मौसम
दुख, तकलीफ, अवसाद लेकर
डराता भी है मुझे
पर नहीं है
अब माँ न ही है
माँ का आँचल
नहीं है माँ की गोद
न ही इस मौसम में
कोई पूछता है मुझसे
कहां हो ?
कैसे हो तुम ?
न ही
कोई मेरे पास आता
न ही
कोई मुझको बुलाता
ऐसे मौसम में

कभी – कभी
सोचता हूं
तो
डर लगता है
नहीं चाहता
कि …
ऐसे ही
किसी मौसम में
विदा होना पड़े
मुझे भी
इस संसार से
माँ की तमाम स्मृतियों के साथ

हे ईश्वर
तुम यदि कहीं हो
कहीं है अगर तुम्हारा अस्तित्व
तो सुन भी रहे होगे मुझको
लो फिर सुनो
आओगे लेने जब भी मुझे
तब लाना
‘ वसन्त ‘ का मौसम भी साथ में
लाना
दूर तक फैला
नीला खुला आसमान
उड़ते हुए पंछी
खिलते हुए फूल
गुनगुनी धूप
हरे भरे पहाड़
कलकल बहती नदी

माँ
तब भी खड़ी होगी
दूर कहीं
मुझको निहारते
क्योंकि
मरती नहीं है माँ कभी
ज़िन्दा रहती है
अपने पूरे वजूद के साथ
मरने के बाद भी।

vinod kushwah

विनोद कुशवाहा (Vinod Kushwaha) .

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