स्मृति प्रसंग : सन्नाटे से संवाद करने वाले कवि भवानी भाई
VISHESH : Poet Manish Bhavani Prasad Mishra, the poet who communicates with silence

स्मृति प्रसंग : सन्नाटे से संवाद करने वाले कवि भवानी भाई

(पंकज पटेरिया) :
मप्र की जीवन रेखा नर्मदाजी के किनारे खड़े नर्मदापुरम में, घोर सन्नाटे से घिरा परमार दौर के खंडहर किले से आंतरिक संवाद करता कवि, सब मौसम खेत मे धरती से फसल उगाते किसान से प्रेरित कवि तो सतपुडा के घने जंगल के हाल बताता कवि, कविता की त्रिकाल संध्या उपासना करता कवि, साहित्य जगत में भवानी भाई संबोधन से पुकारे जाने वाले पर घर परिवार में मन्ना नाम से पुकारे जाने वाले कवि मनीषी भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म नर्मदापुरम के एक गांव टिगरिया में २९मार्च १९१४ को हुआ था। कई जगह नौकरियां करके अंत में गांधीवाद से प्रभावित भवानी भाई, गांधी शांति प्रतिष्ठान में सेवा करतेनई दिल्ली में ही रहने लगे थे। लेकिन उनके दिल मे सारा हिन्दुस्तान धड़कता था। स्व कवि बाल कवि बैरागी सांसद थे। उन्हे पता लगा कि भवानी दादा को दिल की बीमारी के चलते पेसमेकर लगना जरूरी है। तब बैरागी जी ने अपने संपर्कों से भारत सरकार के व्यय पर विदेश में भवानी दादा को पेसमेकर लगाने के लिए प्रयास किए। जब यह बात भवानी भाई को पता लगी तो उन्होंने कहा भाई बैरागी मैं इस देश की माटी में जीना मरना चाहता हूं। कोई सहायता मुझे कभी मंजूर नहीं होगी। यही एक संस्मरण है जो उनके गांधीवादी चिंतन का दर्शन करवाता है।
मन्ना को नर्मदा अंचल से बेहद लगाव था। मिलने जुलने, कवि सम्मेलन या किसी बहाने कभी नर्मदापुरम, इटारसी, खंडवा, नरसिंहपुर, भोपाल वे साल में डाक्टर की मनाही के बाद दो चार फेरे लगा ही लेते थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने मुझसे कहा था , यार दोस्त, रोग, शोक के कारण रहना दिल्ली में जरूर लेकिन मेरा मन यही आने को भागता रहता है। मेरे सवाल के जवाब में कहा था आम आदमी की चिंता मेरे दिल में रहती जरूर है लेकिन फकत चिंता से क्या होता है? कविता तो कर्म है। मुझे भी इस काम पर विधाता ने लगाया जब तक सांसे है करता रहूंगा। नर्मदापुरम में आने पर उनसे मिलने छोटे बड़े साहित्यकारों का जमवाड़ा लगा रहता था। पत्रकारिता करता मैं भी उनके आगे पीछे डोला करता था। एक बार चरण छूने झुका तो बोल पड़े पंडित स्पर्शित ही मानो, यू हर कहीं नहीं झुकते, झुको वहां जहां जो लदा हो फलों के बोझ से यानी दरख़्त जैसे झुकता है। रोते रोते-हंसा देना और हँसते हँसते रुला देना उनकी फितरत थी।
एक बार बोले दोस्त मेरे जीवन में कोई बड़ा सुख नहीं है, लेकिन इसका मुझे कोई दुख नहीं है। क्योंकि मेरा घर छोटा है, छोटा आदमी हूं, घर में अलग कमरा भी नही है जहां सुख को जगह दे सकूं। इसलिए मस्त हूं, मस्ती सुख दुख में धड़कती है। अपने सुख दुख छोटे और जग के सुख दुख बड़े मानना चाहिए। कविता की नर्मदा तो उछलती, कूदती, पहाड़, जंगल, फांदती इठलाती तो कभी शांत अविराम बहती चलती हैं। तुम अखबार नवीश हो, कविता भी लिखते हो, कविता खबर से भी उठती है। बस भीतर की तकलीफ सृजन की माता है और भोगने बाला बड़ा विधाता है।
चिरनिद्रा में जाने के पहले, नरसिंहपुर मप्र में अनुज केशव मिश्रा के यहां, २० फरवरी १९८५ को वे आए। सभी पत्रों के जबाव दिए और चिरविदा हो गए। उनका अस्थि कलश विसर्जन करने मैं, प्रो पुरषोत्तम दीक्षित ओर कविवर टीपी मिश्र आदि मंगलवारा घाट जा रहे थे, रास्ते में स्व सरला जीजी का घर आया तो सब को लगा मन्ना जैसे कह रहे हो यार जरा रुको, बहन से मिल लूं। यहां आने पर भवानी दादा अपनी इन मुहबोली बहन के घर आना नही भूलते थे। लिहाजा अपने आप हमारे कदम रुक गए, कुछ क्षण को कलश जीजी के घर के चबूतरे पर रखने के बाद, नर्मदा घाट पर जाकर, मां नर्मदा की गोद में नर्मदा के वरद पुत्र की अस्थियां सौप आए। बरसो हो गए, लेकिन लगता है, सामने बैठकर मन्नाजी, तन्मयता से कविता पढ़ रहे हैं “जी हां हुजूर, मैं गीत बेचता हूं, किसम किसन के गीत बेचता हूं” ओर हम सभी उस बेहद लोकप्रिय कविता को सम्मोहित सा सुन रहे हैं।
पंकज पटेरिया (Pankaj Pateriya)
वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार
ज्योतिष सलाहकार
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