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विशेष : संसदीय लोकतंत्र में महिलाएं, सोच से कितनी स्वतंत्र

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– मिलिन्द रोंघे :
राजनीति से परिवर्तन होता है, और होता है तो कितना होता है, और क्या सिर्फ राजनीति से ही परिवर्तन होता है, यह वाद-विवाद का विषय हो सकता है। जब देश में संसदीय लोकतंत्र समाज में पला और पनपा नही था तब भी समाज में परिवर्तन हुए है और महिलाओं के हित में भी हुए । यह सही है कि इन सुधारों की गति मंथर थी, पर बंद नहीं थी । महिलाओं की शिक्षा के लिए चलाया गया आंदोलन, सतीप्रथा, बाल विवाह, देवदासी प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठती रही है । सन 1900 के पूर्व रुखमाबाई, आनंदी बाई जोशी, कादंबिनी गांगुली ने चिकित्सक (एमबीबीएस) की शिक्षा प्राप्त की, इसमें तत्कालीन समाज सुधारकों के साथ ब्रिटिश सरकार का भी सहयोग था । यह भी विडंबना है कि जिस ग्रेट ब्रिटेन को नारी स्वतंत्रता के लिए पुरोधा माना गया उसी ग्रेट ब्रिटेन में भारत की पहली महिला चिकित्सक डा.रुखमाबाई को एम.डी. में प्रवेश इसलिए नहीं मिला क्यों कि ब्रिटेन में एम.डी. की पढ़ाई सिर्फ पुरुषों के लिए थी अंतत: उन्हें ब्रुसेल्स जाना पड़ा । ये वही रुखमाबाई है जिनके खिलाफ उनके पति द्वारा मार्च 1884 में मुंबई उच्च न्यायालय में दायर “रेस्टिटयूशन आफ कांजुगल राइट्स”( वैवाहिक अधिकार की पुन:स्थापना) के अंतर्गत दायर याचिका का खुलकर विरोध किया गया । क्योंकि रुखमाबाई ने बाल्यकाल में माता-पिता द्वारा तय किए विवाह ( बाल विवाह के खिलाफ पहली कानुनी इसे माना जा सकता है ) को स्वीकार करने से मनाकर दिया था । इस प्रकरण पर ब्रिटेन की संसद में चर्चा हुई थी ।
भारत में वैदिक काल में महिलाओं और पुरुषों को बराबरी का दर्जा था, लेकिन मुगलों के आक्रमण के बाद भारतीय समाज में महिलाओं की आजादी और उनके अधिकारों कटौती की गई और यहीं से अनेक कुप्रथाओं ( पर्दाप्रथा, बाल विवाह ) ने जन्म लिया । रजिया सुल्तान पहली महिला शासक मानी जाती है तो उसके बाद महारानी दुर्गावती, जीजाबाई, महारानी लक्ष्मीबाई आदि ने अपना लोहा मनवाते हुए इतिहास में अपना अमिट स्थान बनाया है ।
आजादी के आंदोलन में सारे देश में महिलाओं ने भी कंधे से कंधा मिलाकर काम किया तो अनेक स्थानों पर नेतृत्व भी किया । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के 32 वर्ष बाद 1917 में पहली महिला अध्यक्ष श्रीमती एनीबिसेन्ट ( जो मूलत: विदेशी मूल की थीं) , को चुना गया । ( अनेक दुसरे राष्ट्रीय दलों के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर अभी तक किसी महिला का इंतजार है । ) तो आजादी के लगभग 16 साल बाद देश की पहली महिला मुख्यमंत्री श्रीमती सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश से बनी ।
भारत द्वारा लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाने के साथ संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा का गठन किया । 389 लोगों की संविधान सभा में भारत विभाजन के बाद भारत के 299 सदस्य (जिसमें 296 निर्वाचित और तीन मनोनीत) रह गये थे । संविधान सभा के सदस्यों में पन्द्रह महिलाऐं थीं । जिसमें सर्वश्री सरोजिनी नायडू ( हैदराबाद से जिन्हें ‘भारत कोकिला’ या ‘नाइटिंल आफ इंडिया’ के नाम से भी जाना जाता है), राजकुमारी अमृत कौर(उत्तरप्रदेश) , सुचेता कृपलानी (अंबाला), रेणुका राय (पश्चिम बंगाल) ,दुर्गा बाई देशमुख (राजमुंदरी, आंध्रप्रदेश) , हंसा मेहता (बडौदा,) , बेगम ऐजाज रसूल( मालरकोट) , अम्मु स्वामीनाथन ( पालघाट केरल), दक्षयानी वेलायुधान (दलित समाज की प्रतिनिधि, कोचीन केरल) , मालती चौधरी(ओडिसा), विजयालक्ष्मी पंडित ( इलाहाबाद) , पूर्णिमा बेनर्जी ( इलाहाबाद), लीला राय(गोलपाडा, आसाम) , कमला चौधरी (प्रसिध्द लेखिका, लखनऊ,) एवं एनी मास्करैन ( तिरुवनंतपुरम,) थी ।
संसद में जो महिलाऐं गई उन्होंने अपने आप को सिर्फ महंगाई तक और चुल्हे चौके से संबधित विषय तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि हर प्रमुख विषय पर अपनी बात रखी यथा सितम्बर 1949 में इग्लैंड की सरकार द्वारा पौण्ड का अवमूल्यन करने पर भारत सरकार ने भी रुपये का अवमूल्यन कर दिया । इस विषय पर 5-6 अक्टूबर 1949 को प्रधानमंत्री नेहरु के साथ जिन 37 लोगों ने चर्चा में भाग लिया उनमें श्रीमती रेणुका राय भी थीं । 25 नवंबर 1959 को भारत चीन संबधों पर श्वेत पत्र-2 पर चर्चा में रेणुका राय और सुभद्रा जोशी ने भाग लिया ।
राजकुमारी अमृत कौर स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल की पहली महिला मंत्री थी, जो गांधीजी की 18 वर्ष तक सचिव रही ।
आजादी के बाद आधी आबादी (महिलाऐं) जो मतदान से वंचित थी, को भी मतदान का अधिकार दिया गया । पहली लोकसभा के गठन के अवसर पर मुख्य निर्वाचन आयुक्त ने जानकारी दी कि महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में मतदान में भाग लिया । और ग्रामीणों ने शहरी मतदाताओं की तुलना में अधिक मतदान किया । इससे यह प्रमाणित होता है कि उस समय भी महिलाओं के मन में राजनैतिक निर्णय में सहभागी होने की प्रबल इच्छा शक्ति थी ।
इंडिया टुडे में प्रकाशित रिपोर्ट अनुसार महिला मतदाताओं का प्रतिशत 2004 में 55%, 2009 में 56%, 2014 में 66%, एवं 2019 में 67% रहा जो महिलाओं की राजनैतिक जागरूकता में वृध्दि का परिचायक है ।
पहली लोकसभा में 24 महिलाऐं (5%) एवं 12 महिलाऐं (6%) राज्यसभा का प्रतिनिधित्व कर रही थी । दुसरी लोकसभा में महिला सदस्यों की संख्या 27 ( 5.4%) तारकेश्वरी सिन्हा, सुचेता कृपलानी, विजयाराजे सिंधिया,रेणु चक्रवर्ती, डा.सुशीला नायर, मयमूना चौधरी, पार्वती कृष्णन, रेणुका राय, इला पाल चौधरी, ललिता राज्यलक्ष्मी, केसर कुमारी देवी, माफिदा अहमद, सुभद्रा जोशी, आदि थे दुसरी लोकसभा में मंत्रिमंडल में तारकेश्वरी सिन्हा, लक्ष्मी मेनन, और वायलेट अल्वा महिला सदस्य थे । दुसरी लोकसभा में सर्वाधिक सक्रिय रेणु चक्रवर्ती ने सदन में 18 घंटे 32 मिनिट तक भाषण दिया तो डा.सुशीला नायर ने 12 घंटे 14 मिनिट तक बोली । इला पाल चौधरी ने सबसे ज्यादा 1320 प्रश्न पुछे तो माफिदा अहमद ने 650, रेणु चक्रवर्ती ने 513 प्रश्न पुछ कर अपना संसदीय सक्रियता बनाये रखी । दुसरी लोकसभा की 27 में से 10 पहली लोकसभा की सदस्य रहीं थी ।
तीसरी लोकसभा में 34 (कुल सदस्य का 6.7%) महिलाऐं निर्वाचित हुई जिनमें श्रीमती विजया लक्ष्मी पंडित, रेणुका राय, तारकेश्वरी सिन्हा, गायत्री देवी, रामदुलारी सिन्हा, शारदा मुखर्जी, रेणु चक्रवर्ती, सुभद्रा जोशी, डा.सरोजिनी महिषी, लक्ष्मी कान्थम्मा, एम. चन्द्रशेखर, सावित्री निगम, डा.टी.एस. रामचन्द्रन प्रमुख रुप से सक्रिय रही । इसी लोकसभा में श्रीमती इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी ।
चौथी लोकसभा में 23 कांग्रेस, 3 निर्दलीय, जनसंघ, स्वतंत्र दल,अकाली दल, साम्यवादी की एक-एक सहित 33 महिला सदस्य रही।
छटवीं लोकसभा में 19 (3.4%) महिला सदस्य थीं । सातवीं लोकसभा में महिला सदस्य 5.1% थी, आठवीं लोकसभा में महिला सदस्य 44 (8.1%) थीं, दसवीं लोकसभा में 36 महिला सदस्य, ग्यारहवीं लोकसभा में 40 महिला सदस्य, बारहवीं लोकसभा में 44, तेरहवीं लोकसभा में 48, चौदहवीं लोकसभा में 45, पन्द्रहवीं लोकसभा में थोडी ज्यादा वृध्दि के बाद 59 और सोलहवीं लोकसभा में 61 महिला सदस्य रही जबकि सतरहवीं लोकसभा में 81 महिलाऐं (15%) एवं राज्यसभा में 33 महिलाऐं (13%) सदस्य है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार संसद और विधान सभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व और भागीदारी में शनैः शनैः वृध्दि हुई है, 2019 में 336 महिलाऐं विधान सभा सदस्य थीं तो 2022 में महिलाओं की सदस्य संख्या 354 हो गयी ।
यह दुखद है कि कतिपय समाचार-पत्रों में महिला सांसदों की “संसदीय गतिविधियों” को प्रमुखता देने के स्थान पर उनके “सौन्दर्य” को आधार बनाया जो हमारे समाज के कतिपय लोगों की मानसिकता को दर्शाता है । कभी जयपुर से स्वतंत्र पार्टी से चुनकर आई महारानी गायत्री देवी को तो कभी तेज तर्रार सांसद श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा को “संसद सौन्दर्य” ( पार्लियामेंट्री ब्यूटी) के संबोधन से अंग्रेज समाचार पत्रों द्वारा नवाजा गया । अपने-अपने समय में अपने भाषणों से श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा और श्रीमती सुषमा स्वराज ने संसद और संसद से बाहर अपने भाषणों से खुप धाक जमायी तो जनता के साथ जमीनी संघर्ष में ममता बेनर्जी ने नेतृत्व करते हुए पुरुष प्रधान समाज में लोहा मनवाया, तो साध्वी से नेता बनी सुश्री उमा भारती ने भावना मिश्रित आक्रमकता से अलग स्थान बनाया । यद्यपि समय-समय पर अनेक महिला सांसदों औल और विधायकों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी ।
संविधान के 73 और 74 वें संविधान संशोधन के अनुसार पंचायतों और नगरीय निकायों में महिलाओं को 33% आरक्षण का प्रावधान किया जिससे महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढी । यद्यपि उनके सारे निर्णय, सारे काम उनके पति, बेटा, भाई या पिता लेते थे, सिर्फ “बैलेट पेपर” पर उनका नाम होता था इसके बाद जो महिलाऐं चुनाव में खडी होती थी देश के अनेक जगहों पर वह प्रचार के लिए भी नहीं निकलती थी, पोस्टरों में चेहरा महिला प्रत्याशी के स्थान पर उनके पति,पिता, भाई या बेटे का होता था । अनेक जगहों पर महिला सरपंचों की शपथ भी उनके पतियों ने ली तो वाजिब है कि हस्ताक्षर भी उनके नहीं होते थे । अधिकारीयों और प्रेस के कारण अनेक जगहों पर महिलाऐं आने तो लगीं लेकिन घूंघट में । कुछ समय बाद घूंघट भी उठा, हस्ताक्षर भी स्वयं करने लगी, सरकारी बैठकों में भी आने लगी । लेकिन यह सब पिता,पति,भाई या बेटे की उपस्थिति में और बात भी वही रखते थे । महिला सरपंचों के पति, को “एसपी” अर्थात सरपंच पति आज भी कहा जाता तो महिला पार्षद के पति को “पार्षद पति” अर्थात “पीपी” कहा जाता है । जिला पंचायत अध्यक्ष, जनपद अध्यक्ष और नगर निगम/ नगर पालिका / नगर पंचायत अध्यक्ष के महिला होने की स्थिति में महिला अध्यक्ष के पति को विधायक या सांसद प्रतिनिधि बना दिया जाता ताकि वे अपना “शासन” चला सके । हमारा सामाजिक ताना-बाना इस प्रकार है कि महिलाओं पर सामाजिक प्रतिबंध बहुत है उनका क्षणिक उल्लंघन होने पर अनेक प्रकार के आक्षेपों को उन्हें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहन करना पडता है । सरकारी बैठकें तो ठीक है लेकिन राजनैतिक दलों की बैठक में उनकी हिस्सेदारी कम ही रही । राजनैतिक दलों ने महिलाओं की सक्रियता बढाने और उनका राजनैतिक उपयोग की दृष्टि से उनके लिए हर कार्यकारिणी में स्थान तय किए और बाद में उनका अलग मोर्चा या प्रकोष्ठ बनाया ।
प्रारंभ में महिलाऐं वंशानुगत संस्कारों के कारण या कहें उन्हीं परिवारों से राजनीति में आई जो राजनीति में सक्रिय थे या राज परिवारों से संबंधित थे, लेकिन इनका प्रतिशत भी कम था । राजनीति में सक्रिय पुरुषों ने भी अपने घर की महिलाओं को राजनीति में भागीदारी को उचित नहीं माना । इसका मूल कारण हमारे समाज का पितृसत्तात्मक होना है । लेकिन इसी सोच का खोखलापन तब नजर आया जब एक न्यायालयीन निर्णय के कारण बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को हटना पडा तो उन्होंने अपनी पत्नी (जो गृहणी थी) श्रीमती राबडी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया । इसे राजनीति का दुरुपयोग ही कहा जाना चाहिए। क्योंकि लोकसभा में 1998 में लालू प्रसाद यादव के दल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के एक सांसद ने महिलाओं को लोकसभा/विधान सभा में 33% आरक्षण का बिल लोकसभा अध्यक्ष से छीन कर फाड डाला । ज्ञातव्य हो कि 1996 में एच.डी. देवगौडा सरकार ने महिलाओं को लोकसभा और विधान सभा में 33% आरक्षण का निर्णय लिया था । महिलाओं को लोकसभा और विधान सभाओं में 33% आरक्षण का यह बिल राज्यसभा में पारित होने के बाद भी लोकसभा से पारित न हो सका, इससे राजनैतिक दलों की मंशा प्रकट होने के साथ और उनकी कथनी और करनी का अंतर पता चलता है । एक प्रश्न तो आखिर उठता ही है कि राजनैतिक दल महिलाओं को अधिकार क्यों नहीं देना चाहते ? अभी हाल में नगरीय निकाय / पंचायतों के चुनाव में जो स्थान महिला अध्यक्ष हेतु आरक्षित थे वहां वर्षों से सक्रिय महिला कार्यकर्ताओं को दरकिनार ऐसी महिलाओं को प्रत्याशी बनाया गया जिनके पति/भाई/बेटा बड़े कार्यकर्ता है । यह वर्षो से सक्रिय कार्यकर्ताओं का हक मारकर पुरषों को तरजीह देना है । यही जमीनी हकीकत है लेकिन वो सुबह भी आवेगी ? यद्यपि बहुत सारे अधिकार महिलाओं को न्यायिक सक्रियता के कारण मिल गये, यही कारण है कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एन.वी.रमण ने महिला अधिवक्ताओं से कहा कि न्यायपालिका में पचास प्रतिशत आरक्षण की मांग महिलाओं द्वारा की जाना चाहिए । कुछ समय बाद विधायिका और न्यायपालिका में महिलाओं को 33% आरक्षण देना होगा ।

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मिलिन्द रोंघे
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द ग्रेंड एवेन्यु,
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