हाथरस (Hathras) की हैं ये ख़ासियत – विपिन पवार
हाथरस की ख़ासियत – पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्थित हाथरस शहर भले ही आज अवांछनीय कारण से चर्चा में आ गया हो लेकिन हाथरस (Hathras) अपनी कुछ विशेषताओं के कारण प्रारंभ से ही चर्चा के केंद्र में रहा है । हाथरस की पहली ख़ासियत – हाथरस (Hathras) में चार रेलवे स्टेशन हैं- हाथरस सिटी, हाथरस जंक्शन, हाथरस किला तथा हाथरस रोड़।
हाथरस की दूसरी ख़ासियत – हाथरस (Hathras) की विश्व में पहचान यहां की हींग और रंग गुलाल के लिए है। हाथरस (Hathras) को हींग की मंडी (Hing ki Mandi) कहा जाता है। यहां हींग की 60 फैक्ट्रियां हैं, जिनसे लगभग 70 करोड़ रुपये का वार्षिक कारोबार होता है। हींग के कारोबार ने हाथरस के करीब पंद्रह हजार लोगों को रोजगार दिया है। यहां से तैयार हींग का कुवैत, सऊदी अरब, बहरीन आदि देशों में मुख्य रूप से निर्यात किया जाता है। इसी तरह यहां बनने वाले रंग गुलाल की देश के अलावा विदेशों में भी बड़ी मांग रहती है। होली के लिए प्रसिद्ध यूपी के ब्रज इलाके में हाथरस के बने गुलाल से ही रंग खेला जाता है। यहां गुलाल बनाने की 20 फैक्ट्रियां हैं। हाथरस में गुलाल का कारोबार 30 करोड़ रुपए सालाना का है। इस कारोबार में पांच हजार लोग जुड़े हुए हैं।। हाथरस को रसनगरी (Rasnagri ) भी कहा जाता है।
हाथरस की तीसरी ख़ासियत – काका हाथरसी (Kaka Hathrasi)। काका हाथरसी (Kaka Hathrasi) का नाम आज की कान्वेंट संस्कृति की पीढ़ी नहीं जानती। काका हाथरसी (Kaka Hathrasi) का मूल नाम प्रभुदयाल गर्ग था । उनका जन्म 18 सितंबर, 1906 को हाथरस में हुआ था। उस युग में कवि सम्मेलनों में केवल गंभीर किस्म की कविताएं एवं गीत ही पढ़े जाते थे । हास्य व्यंग्य की कविताओं को काव्य-मंचों पर स्थापित करने का श्रेय काका हाथरसी (Kaka Hathrasi) को दिया जाता है । काका की रचनाएं समाज में व्याप्त दोषों, कुरीतियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। एक जमाने में उनकी फुलझडि़यों ने देश में धूम मचा दी थी। वे केवल कवि ही नहीं बल्कि उच्च कोटि के चित्रकार, संगीतकार, गायक एवं अभिनेता भी थे। उन्होंने बचपन से ही चित्र बनाना प्रारंभ कर दिया था तथा वे अनेक वाद्य यंत्र कुलशलतापूर्वक बजा लेते थे। काका हाथरसी हिंदी के अलावा अंग्रेजी, उर्दू, गुजराती तथा मराठी पर भी अच्छा अधिकार रखते थे। काका की तुरत बुद्धि, व्यंग्य की पैनी नजर, हास्य का गुदगुदाता कवित्व, बेजोड स्मरणशक्ति आदि अतुलनीय थी । वही कवि एवं कविता जनमानस के बीच लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध होती है, जिसमें जनता की भाषा में जनता की बात कही गई हो । नायिकाओं के सौन्दर्य वर्णन, देशभक्ति की प्रेरणा देने वाली, प्रकृति वर्णन करने वाली एवं धार्मिक तथा उपदेशात्मक कविताओं का दौर खूब चला । लेकिन जब काका हाथरसी ने अपनी हास्य व्यंग्य की कविताओं में जनता की समस्याओं को इस प्रकार मुखर करना प्रारंभ किया –
जन-गण मन के देवता अब तो आंखें खोल,
महंगाई से हो गया, जीवन डांवाडोल ।
जीवन डांवाडोल, खबर लो शीघ्र कृपालू,
कलाकंद के भाव बिक रहे, बैंगन आलू ।
कह ‘काका’ कवि, दूध-दही को तरसे बच्चे,
आठ रूपए के किलो टमाटर, वह भी कच्चे ।
राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीड़
‘क्यू’ में धक्का मारकर,पहुंच गए बलवीर ।
पहुंच गए बलवीर, ले लिया नंबर पहिला,
खडे रह गए निर्बल, बूढ़े-बच्चे महिला ।
कहा ‘काका’ कवि, करके बंद धरम का कांटा
लाला बोलो – भागो खत्म हो गया आटा ।
तो संपूर्ण देश में इस प्रकार की कविताओं की बाढ़ आ गई । अनेक कवि काका की शैली में रचनाएं करने लगे एवं आज भी कर रहे हैं । कविता के अलावा वे संगीत को भी समर्पित थे । उन्होंने संगीत कार्यालय की स्थापना की, जिसका संगीत की कार्यशालाओं एवं अनुसंधान के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है । उन्होंने संगीत प्रेस (Sangeet Press) भी प्रारंभ किया, जहां से संगीत एवं ललित कलाओं पर अनेक पुस्तकों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ । काका हाथरसी ने 42 काव्य-संग्रहों के अलावा संगीत पर 4 सचित्र पुस्तकों की रचना की तथा तुकांत कोश एवं राग कोश भी तैयार किया । उन्होंने संगीत पर 150 पुस्तकों का लेखन किया तथा 150 तैल चित्र भी बनाएं । वे स्वयं एक कुशल गायक थे, जिनकी एचएमटी द्वारा 4 एलपी तथा टी सीरिज एवं अमरनाद, मुंबई द्वारा अनेक कैसेट निकाले गए थे। वे संगीत, फिल्म संगीत, हास्यरस तथा म्यूजिक मिरर आदि पत्रिकाओं के संस्थापक संपादक भी थे । काका हाथरसी ने न केवल देश बल्कि विदेशों में भी अपार लोकप्रियता हासिल की थी। उन्होंने अनेक विदेश यात्राएं कर हास्य व्यंग्य की कविताओं को विश्व प्रसिद्ध किया । काका को पद्मश्री सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया । यह विचित्र संयोग ही है कि उनके जन्म दिवस 18 सितंबर को ही 1995 में दीर्घायु प्राप्त कर उनका निधन हो गया ।
मुझे काका हाथरसी (Kaka Hathrasi)से भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। सन् 1981 में मैं महात्मा गांधी स्मृति महाविद्यालय, इटारसी (MGM College Itarsi) (म.प्र.) (प्राइवेट कॉलेज) में बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था । मेरे सहपाठी तथा प्रिय मित्र, वर्तमान में वरिष्ठ प्रखर एवं जुझारू पत्रकार, प्रमोद पगारे (Pramod Pagare) पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराने के साथ ही युवा कांग्रेस के एक कद्दावर नेता भी थे । प्रमोद भाई की दबंगाई के कई किस्से मशहूर है…………जिनकी चर्चा फिर कभी । प्रसंगवश एक किस्सा प्रस्तुत है । प्रमोद भाई को नीलम होटल के बाजूवाली पूडी गली में स्थित मांसाहारी ढ़ाबा चलाने वाले रेलवे के प्वांइट्समैन खड़क सिंह ने बताया कि आज मुंबई-कलकत्ता मेल से सुबह दस बजे काका हाथरसी इटारसी से गुजर रहें हैं, तो प्रमोद भाई के कान खड़े हो गए। उन्होंने स्टेशन जाकर कलकत्ता मेल अटेंड की एवं काकाजी से इटारसी में काव्यपाठ करने की गुजारिश की । बात न बनने पर प्रमोद ने काकाजी का सामान उठाकर गाड़ी से बाहर फेंक दिया । अपने काव्यपाठ के प्रारंभ में काकाजी ने कहा था कि प्रमोद मेरा अपहरण करके यहां लाया है और मुझे यह अपहरण स्वीकार है, पसंद है। उस दिन आनन-फानन में जयस्तंभ पर मंच तैयार हो गया………….जमीन पर दरियां बिछ गई……………..लाउड स्पीकर लग गए………..रोशनी से मंच जगमगा उठा………… उसके पूर्व जयस्तंभ पर सूचना फलक टंग गया । दो-तीन रिक्शे शहर भर में मुनादी करते घूमने लगे, एक रिक्शा न्यूयार्ड भी भेजा गया । मात्र आधे दिन में राष्ट्रीय स्तर के एक कवि सम्मेलन की तैयारियां पूरी हो गई । कैसे ? यह तो प्रमोद भाई ही जाने । बहरहाल ऐसे कवि सम्मेलन का आनंद मैंने अपने जीवन में फिर कभी नहीं उठाया ।
लोक नाट्य की प्राचीन विधा ‘स्वांग’ भी हाथरस में परवान चढ़ी थी। स्वांग खास किरदार की वीरगाथाओं पर ही गाया जाता है। महिलाओं का अभिनय पुरुष ही करते हैं। कलाकार उच्च स्वर में गायन करते हैं। मुख्य वाद्य यंत्र नगाड़ा होता है। लोक नाट्य में देश में स्वांग की दो शैलियां हैं। एक कानपुर शैली तो दूसरी हाथरस शैली। कानपुर शैली प्राचीन है। कानपुर के स्वांग में द्विअर्थी संवादों की भरमार होती है, लेकिन हाथरसी स्वांग में इसको कहीं भी स्थान नहीं दिया जाता।
देश-दुनिया को सुख और शांति का संदेश देने वाले व समाज सुधारक करपात्री महाराज की हाथरस कर्मस्थली रही है। उन्होंने हाथरस में आगरा रोड स्थित संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना कराई थी। वे दशनामी परंपरा के संन्यासी थे। दीक्षा के उपरान्त उनका नाम ‘हरिहरानन्द सरस्वती’ था किन्तु वे ‘करपात्री’ नाम से ही प्रसिद्ध थे, क्योंकि वे अपनी अंजलि का उपयोग खाने के बर्तन की तरह करते थे। इसलिए करपात्री (कर= हाथ, पात्र = बर्तन, करपात्री = हाथ ही बर्तन हैं जिसके) नाम से उनकी पहचान भी बन गई थी।
हाथरस की चौथी ख़ासियत – आज से लगभग 130 वर्ष पूर्व हाथरस जंक्शन स्टेशन के प्लेटफार्म की एक बेंच पर एक युवा भ्रमणशील संन्यासी बैठा हुआ था, जो कभी पैदल, तो कभी रेलगाड़ी से, कभी बैलगाड़ी से, जब जैसी सुविधा मिल जाए, एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करता रहता था । अचानक स्टेशन के ड्यूटी पर कार्यरत सहायक स्टेशन मास्टर की नजर संन्यासी पर पड़ी । तीखे नैननक्श, सुग्गे जैसी नाक, कानों तक खिंची लंबी एवं बड़ी-बड़ी आंखे, गौरवर्ण, विस्तृत केश राशि, चेहरे पर अवर्णनीय तेज की आभा, गेरूए वस्त्र, पैरों में खड़ाऊ, भिक्षापात्र के अलावा सामान के नाम पर कुछ भी नहीं । सहायक स्टेशन मास्टर संन्यासी के पास जाता है और उससे बातें करने लग जाता है तथा उसके चमत्कृत कर देने वाले ज्ञान तथा अनुकरणीय विनम्रता से प्रभावित होकर उसे स्टेशन के पीछे बने अपने सरकारी क्वार्टर पर चलने का अनुरोध करता है। काफी अनुनय-विनय करने के पश्चात संन्यासी राजी हो जाता है । मास्टर संन्यासी की सेवा करने में कोई कसर नहीं छोड़ता । एक-दो दिन का समय बीत जाने के बाद संन्यासी प्रस्थान की आज्ञा चाहता है तो सहायक स्टेशन मास्टर को बहुत बुरा लगता है और वह जानना चाहता है कि क्या उसकी सेवा टहल में कोई कमी रह गई हैं ? इस पर युवा संन्यासी उत्तर देता है कि – ‘’रमता जोगी, बहता पानी । संन्यासी की चलत-फिरत नदी के बहाव जैसी होती है, जिसे रोका नहीं जा सकता । पानी रूका तो निर्मल, पावन एवं शुद्ध नहीं रहेगा । इसी प्रकार यदि जोगी के पैर थमे तो ज्ञानगंगा का स्रोत भी अवरूद्ध हो जाएगा ।‘’
सहायक स्टेशन मास्टर विस्मित, अचंभित, अति प्रभावित एवं सम्मोहित होकर भागते हुए स्टेशन पहुंचता है, टिकट बाबू को अपना त्यागपत्र सौंपता है और युवा संन्यासी का प्रथम शिष्य बन जाता है । आपको जानकर आश्चर्य होगा कि युवा संन्यासी थे – नरेंद्रनाथ दत्त (Narendra Dutt), जो बाद में स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekanand) कहलाए और हाथरस जंक्शन के सहायक स्टेशन मास्टर थे एक बंगाली सज्जन शरतचंद्र गुप्ता (Sharatchandra Gupta) , जो संन्यास लेने के पश्चात स्वामी सदानंद (Sada Nand) के रूप में विख्यात हुए । शरतबाबू को अपना शिष्य बनाने से पूर्व स्वामीजी ने स्टेशन पर ही उनकी परीक्षा ली । उन्होंने शरतबाबू के हाथ में अपना भिक्षापात्र पकड़ा दिया और उन्हें अपने तत्कालीन अधीनस्थ पोर्टरों, खलासियों, कुलियों एवं प्वाइंटसमैनों से भोजन के लिए भिक्षा मांगने का आदेश दिया । गुप्ताजी ने एक क्षण का भी विलंब नहीं किया और अपने स्वामीजी की आज्ञानुसार उन लोगों के सामने हाथ पसार कर भीख मांगी, जो कल तक उनके हुकुम के गुलाम थे । गुलाम भारत में यह एक असंभव घटना थी । वे अपने गुरू के पास गए और उन्हें संपूर्ण भिक्षा सामग्री सौंप दी । शरतचंद्र मूलत: बंगाली थे लेकिन उत्तर प्रदेश के जौनपुर में उन्होंने अपना निवास बना लिया था । 1911 में वे परलोक सिधार गए । 12 जून 1998 को रिलीज हुई चार घंटे की फिल्म ‘स्वामी विवेकानंद’ में भी हाथरस स्टेशन और यहां के तत्कालीन स्टेशन मास्टर का जिक्र है। इस फिल्म में धार्मिक सीरियल ‘श्रीकृष्ण’ में कृष्ण की भूमिका निभाने वाले सर्वदमन बनर्जी ने स्वामी विवेकानंद का किरदार निभाया था।
संदर्भ सूची : –
- The life of Swami Vivekananda, By his eastern and western disciples — Advaita Ashrama (1989 Edition)
- साभार – फेसबुक वॉल — डॉ. अनिल शेलार, दंत चिकित्सक, पूर्व मुख्य चिकित्सा अधीक्षक, दक्षिण मध्य रेल, नांदेड।
विपिन पवार (Vipin Pawar)
उप महाप्रबंधक (राजभाषा) ,
मध्य रेल मुख्यालय,
मुंबई छ.शि.म.ट.
8828110026