- पंकज पटेरिया
आधुनिक हिंदी गजल को दुष्यंत ने एक नई ताजगी भरी शक्ल दी। उसे आज के खुरदुरे वक्त की दमदार जुबान दी। भले इसके लिए उन्होंने सारी सुख सुविधाओं को त्यागा। खुद आगे बढ़कर कांटों के रास्ते चुने। दुष्यंत एक नायाब गजलकार थे। बहुत वर्ष हुए उन्हें विदा हुए, लेकिन वह अपने सदाबहार शेर और गजलों के हर लब्ज़ में आज भी हमारे दुख तकलीफ और फिजा के मिजाज का हाल अह बाल रूबरू होकर बांचते प्रतीत होते हैं, तो वाह-वाह गूंज उठती है, आह भी फूट पड़ती है।
दुष्यंत मेरे अग्रज राजधानी के वरिष्ठ साहित्यकार मनोहर पटेरिया मधुर के साथ आकाशवाणी में सेवारत थे, लिहाजा जब तक उनके दर्शन का सौभाग्य मुझे मिलता रहता था। सैकड़ों की तरह वह मेरे भी अजीज शायर हैं। उनका एक लाजवाब शेर मुझे हमेशा प्रेरणा देता है वह यह है कि हमने अपना सफर अकेले ही तय किया, हम पर किसी खुदा की मेहरबानी नहीं रही। आज जिनकी गजलें हर किसी की जुबान पर हैं, होंठ पर थिरकती हैं। वे सदियों बाद भी यूं ही फिजा में खनकती रहेंगी। देशभर में कवि शायर या लीडर हों उनके शेरों को कोट करते हैं, इसके बाद अपना भाषण या अपनी कविता शायरी पेश करते हैं।
ऐसे मशहूर और कीर्ति शेष शायर दुष्यंत कुमार ने राजधानी में आकर अपने फक्कड़पन और कबीराना मिजाज के चलते घोर हलाहल पिए। अपनी साफगोई और बिना किसी रोजी-रोटी छूटने की परवाह किए अथवा सुख सुविधा के आकर्षण में उलझने की जगह अपनी बात वजनदारी के साथ बिना लाग लपेट कहने में उन्हें ने कभी कोई गुरेज नहीं रहा। भले पंचायत विभाग आकाशवाणी या अन्य जगह जहां वह सेवारत रहे हों, कोई अधिकारी या तात्कालिक कोई महामहिम नाराज हो गए हों। तात्कालिक सरकार ने भी ने भी उन पर बहुत जुर्म ढाये लेकिन वे कभी झुके नहीं। टूटना उन्होंने बर्दाश्त किया, लेकिन दरबारी बनना कभी उन्होंने पसंद नहीं किया। दिल खोलकर हिम्मत से दुरावस्था, पक्षपात और बदचलन सियासत पर अपने शेरों और गजल से हमले करने में पीछे नहीं रहे। भले नौकरी भी गई पर उन्होंने लेखन की ईमानदारी को शरणागत नहीं होने दिया।
उन्होंने लिखा, यूं तो तय था चिराग हर घर के लिए, मगर चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। भोपाल मैं 67 में विद्यार्थी जीवन में स्वरचित काव्य प्रतियोगिता में जिला स्तर से चयन होकर मैं संभाग स्तर पर टीटी नगर मॉडल स्कूल में काव्य पाठ करने के लिए गया था। तभी दुष्यंत के पावन दर्शन मुझे हुए थे। निर्णायक मंडल में दुष्यंत, राजेंद्र अनुरागी और आकाशवाणी के हीरा सागर सदस्य थे। मैंने इस अवसर पर भारत के कर्णधार हमको अपना प्यार दो एक गीत प्रस्तुत किया था मुझे पुरस्कार स्वरूप एक पीतल का फ्लावर पॉट प्रदान किया गया था। गीत की एक पंक्ति थी नन्हें इन हाथों में नन्हीं तलवार दो।
कार्यक्रम के बाद दुष्यंत जी ने सर पर हाथ रख कर कहा था, तलवार तो तुम्हें ईश्वर ने दी है, इसकी धार बनाए रखना और हिम्मत से आगे बढ़ते रहना। कवि की कलम उसकी तलवार होती है। वे फ्लावर पॉट मेरे अग्रज स्व. मनोहर पटेरिया मधुर के पूजा घर में आज भी रखा है। मैंने भी अपने घर में पूजन स्थान में उनका गजल संग्रह दरख्तों के साए में गीता रामायण की तरह सम्मान से संजो के रखा है। उनकी स्मृति में साहित्यकार राजुरकर राज ने दुष्यंत संग्रहालय की स्थापना की है जहां पहुंच बेशक एक तीर्थ दर्शन का अलौकिक सुख अनुभव होता है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में मुझे इस साहित्य तीर्थ में जाने का सौभाग्य मिला था। इस संग्रहालय में दुष्यंत जी की उपयोग की गई पोशाक आदि अन्य साहित्य करीने से संग्रहित है। राजुरकर जी के निधन के बाद श्रीमती राजुरकर भी प्राण प्रण से संग्रहालय को संबारने में जुटी रहती है।
संग्रहालय में अन्य साहित्य मनीषियों की पुण्य स्मृतियां, प्रतीक चित्र आदि उनकी पोशाकें, पांडुलिपियां आदि संरक्षित की गई। दुष्यंत संग्रहालय पहुंच कर एक तीर्थ दर्शन का अलौकिक अनुभव होता है। उनकी मशहूर गजल के इन अश हार से उन्हें नमन। मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं, वह गजल आपको सुनाता हूं।

पंकज पटेरिया
वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार
संपादक, शब्द ध्वज
ज्योतिष सलाहकार
940 750 5691
93402 44 352