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झरोखा : संस्मरण- विरही जी नही रहे…

पंकज पटेरिया –
स्व नाम धन्य, बहुमुखी प्रतिभा के धनी राष्ट्रकवि प्रोफेसर डॉ परशुराम शुक्ल विरही का पिछले दिनों 95 वर्ष की आयु में दुखद निधन हो गया। शताब्दी शिखर की ओर अग्रसर यदि 5 वर्ष और जीवित रह जाते तो सुनिश्चित शताब्दी पुरुष हो जाते। लेकिन मृत्यु पर किसका वश है। वह तो आनी ही है। किसी शायर का यह शेर मौजू है…एक दिन सबको इस रजिस्टर पर हाजिरी लगानी है, मौत के दफ्तर में छुट्टियां नहीं होती, और विरही जी अनंत यात्रा पर चले गए।
यद्यपि तीन दर्जन के करीब रचित उनकी कृति के अक्षर अक्षर में वे विद्यमान रहेंगे। मेरी अनियतकालीन पत्रिका शब्द ध्वज 16 जुलाई 2019 में डॉक्टर विरही पर प्रकाशित केंद्रित विशेष अंक में देश के ख्यातिनाम साहित्यकारों ने उनके शतायु होने की कामना करते हुए लेख लिखे थे। मूर्धन्य साहित्यकार विरही जी यद्धपिमृत्यु बोध हो चुका था। इसी अंक में प्रकाशित उनकी एक कविता मृत्यु भय में उन्होंने लिखा था सब रंग जाति के मनुष्य मरणशील है। जन्म के सगोपनीयता से मृत्यु लगी आती है किसी कुशल जासूस की तरह।अथवा समय देवता की सवारी जाने कब से बिना रुके चली जा रही है ना उसके चलने की आवाज आती है और उसकी घंटी या सायरन सुनाई देता है।

dr parshuram virhi


बहरहाल साहित्य के सूर्य व्यक्तित्व को प्रणाम करते हुए, उल्लेख करना चाहूंगा कि कवि, लेखक, समालोचक, उपन्यासकार, अनुवादक डॉ शुक्ला की देश-विदेश में ख्याति थी। लेकिन किंचित भी छाया अभिमान की उनके निकट नहीं थी। सदानीरा, सहजता, सरलता और सहजता की सरिता कल-कल, छल-छल बहती रहती थी। देश विदेश के कितने ही लेखक, साहित्यकार और सामान्यजन अंजुरी भर भर कर आचमन करते रहते थे। अमेरिका में बैठा एक पादरी उन्हें अपना गुरु मानता था और उनकी सेहत के लिए हमेशा प्रेयर करता था।
साहित्य जगत के सुधीजन और हम घर परिवार के लोगों उन्हें दादा कहते थे। मेरे वे मौसेरे भाई थे लेकिन पितृवत होते थे। नर्मदापुरम का एक बड़ा नगर इटारसी के एक प्राइमरी स्कूल स्टेशनगंज में पहली कक्षा में पढ़ते हुए जब चिट्ठी लिखना मैंने सीखा तो पहला पत्र उन्हे ही लिखा था। और उन्होंने उसका उत्तर दिया था।
66 वर्ष बाद भी यह बात मुझे खूब अच्छे से याद है। मैंने अपना गुरु मान लिया था। तब से अब तक कई पहाड़ चढ़ते तकलीफों के दर्रे मुश्किलों की गहरी खाइयो में गिरते, पड़ते दादा ने हमेशा मुझे संभाल मेरा हौसला बढ़ाया। मैं सौभाग्यशाली हूं अभी तक की सभी मेरी पुस्तकों की भूमिका दादा ने लिखी। कहते हैं कि मात्र एक दृष्टि एक स्पर्श या एक शब्द भर अपनी दिव्य अनुभूति कर दे वही गुरु है। ज्ञान के तीर्थ थे जहां बार-बार जाने का मन होता था। उनके यहां भाव भाषा शैली और सुंदर लिखावट की सिद्धियां थी।1950 में प्रकाशित उनका पहला गीत संग्रह,अंनथ के प्राण का एक गीत हंस देता हूं यह न समझना पीड़ा का कुछ भार नहीं है। मुझे सदा प्रिय रहा है। विरही जी शिवपुरी के महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में नियुक्त हुए, वहीं प्राचार्य हुए।
कभी शिवपुरी वालों ने ट्रांसफर होने पर भी उन्हें जाने नहीं दिया। वह नहीं चाहते थे पर पक्ष विपक्ष किसी की भी सरकार रही किसी ने भी उन्हें तबादले पर जाने नहीं दिया। साभार विरही जी इस मामले में भी एक शेर कहते थे, यह तेरे इश्क की करामात है जो नहीं तो और क्या है कभी बेअदब ना गुजरा मेरे पास से जमाना। उनकी आत्मकथा अनेक गद्य पद्य रचनाएं अभी प्रकानाधीन है। उनका बड़ा मन था की किसी के तरह आत्मकथा प्रकाशित हो जाए। शायद भविष्य में उनके पुत्र वरिष्ठ पत्रकार अनुपम शुक्ला उनके निधन के दारुण दुख से उबर कर उनकी यह अंतिम इच्छा पूरी करें। यह बात एक अनौपचारिक चर्चा में उन्होंने कहीं भी है।
उनके निकट अपने पराए का कोई भेद नहीं था। कभी किसी के ना रहने की खबर मिलती तो वे बहुत दुखी हो जाते थे। अक्सर जिगर का एक शेर वह कहा करते थे, गैर के गम से भी इस दिल पर असर होता है, कोई जब रोता है दामन मेरा तर होता है । नेताजी सुभाष चन्द्र बोस साथी कैप्टन ढिल्लों पर विरही जी ने अमर शहीद नाम से किताब लिखी थी। कैप्टन साहब यज्ञ डॉक्टर विरही से बड़े थे, लेकिन वे गुरु मानकर सदा चरण स्पर्श करते रहे। ऐसे ऋषि व्यक्तित्व का जाना साहित्य जगत के लिए अपूर्ण क्षति है। उनकी स्मृति को प्रणाम।

pankaj pateriya edited

पंकज पटेरिया
वरिष्ठ पत्रकार साहित्यकार
ज्योतिष सलाहकार
9407505691
9340244352

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