इटारसी। जीवन क्रोध, मान, माया और लोभ के त्याग से आत्मिक शुद्धता आती है, इसे ही उत्तम शौच धर्म कहते हैं। अपने पास उपलब्ध वस्तुओं से ही संतोष’ करना व और अधिक पाने की लालसा न करना ही उत्तम शौच धर्म कहलाता है। शौच धर्म कहता है कि’आवश्यकता, आकांक्षा, अशक्ति और अतृप्ति के बीच को समझ कर चलना होगा। क्योंकि जो अपनी आवश्यकताओं को सामने रखकर चलता है, वह कभी दुखी नहीं होता और जिसके मन में आकांक्षाएं हावी हो जाती हैं, वह कभी सुखी नहीं होता।
यह उद्गार शास्त्री आशीष ने पर्यूषण पर्व के चौथे दिन श्री दिगंबर तारण तरण चैत्यालय में व्यक्त किये। उन्होंने मंदिर में मौजूद जैन धर्मावलंबियों को संबोधित करते हुए अपने प्रवचनों में बताया कि हावी होती हुई आकांक्षाएं आसक्ति ( संग्रह के भाव ) की ओर ले जाती हैं और आसक्ति पर अंकुश ना लगाने पर अतृप्ति’ जन्म लेती है। अंततः प्यास, पीड़ा, आतुरता और परेशानी बढ़ती है। इससे बचने के लिए धर्म पथ पर चलते हुए मन में, विचारों में और आचरण में शुद्धता लानी होगी ’कषाय’ को, लोभ को और मलिनता को कम करना होगा। धनाकांक्षा, भोगाकांक्षा, दुराकांक्षा और महत्वाकांक्षा इनकी तीव्रता से अपने आप को बचाकर ही उत्तम शौच धर्म को अपने आचरण में लाया जा सकता है।