- अजय कुमार शर्मा
बिमल राय ने अपने सिनेमा का आधार उन सामाजिक सरोकारों को बनाया जो उस समय देश की उन्नति के लिए आवश्यक थे। उन्होंने अपनी हर फिल्म में समाज के किसी न किसी मुद्दे को जोरदार तरीके से सामने रखा। बिमल राय उस दौर के सिनेमाकारों में रहे जिनका समाज के साथ गहरा रिश्ता था और यही रिश्ता उनकी फिल्मों के माध्यम से परदे पर नजर आता था। बिमल राय ने अपना कैरियर कलकत्ता की प्रतिष्ठित फिल्म कंपनी न्यू थियेटर्स में सहायक कैमरामैन के रूप में शुरू किया था। पी. सी. बरुआ के निर्देशन में 1937 में बनी न्यू थिएटर्स की फिल्म मुक्ति में वे मुख्य कैमरामैन बने। 1944 में आई बांग्ला फिल्म उदय पाथे से उन्होंने निर्देशन आरंभ किया।
इसकी पटकथा भी उन्होंने ही लिखी थी। 1947 में हुए विभाजन के कारण बंगाल का पूर्वी हिस्सा पाकिस्तान में चला गया इसके कारण बांग्ला फिल्म उद्योग को काफी झटका लगा। बदली हुई स्थिति के कारण न्यू थियेटर्स की आर्थिक स्थिति भी प्रभावित हुई और लोगों को वेतन मिलना भी बंद हो गया। मजबूरन बिमल राय को बंबई आना पड़ा। बंबई आने में उनका सहयोग दिया उनके मित्र हितेन चौधरी ने जो उन दिनों बॉम्बे टॉकीज में काम किया करते थे। चौधरी ने उन्हें अशोक कुमार से मिलवाया और पहली मुलाकात में अशोक कुमार उनकी विशिष्ठता समझ गए और उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फिल्म मां का निर्देशन करने का मौका दे दिया। बिमल राय ने तब अपने चार सहयोगियों को भी कलकत्ता से अपने पास बुला लिया। यह सहयोगी थे ऋषिकेश मुखर्जी, असित सेन, नवेंदु घोष और पॉल महेंद्र। ऋषिकेश मुखर्जी संपादक और सहायक निर्देशक थे। असित सेन अभिनय के साथ ही निर्देशन में भी सहयोग करते थे। नवेंदु घोष पटकथा लेखन में और पॉल महेंद्र संवाद लेखक थे।
मां के बाद अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज से अलग हो गए और अपना प्रोडक्शन हाउस खोला। उनके प्रोडक्शन हाउस की पहली फिल्म परिणीता का निर्देशन उन्होंने बिमल राय को ही सौंपा। बिमल राय बहुत ही संकोची और कम बोलने वाले निर्देशक थे। इस कारण फिल्मों में बहुत सारी चीज़ें वह अपने मन मुताबिक नहीं कर पाते थे। अपने मन मुताबिक काम करने के लिए उन्होंने हिम्मत करके अपना प्रोडक्शन हाउस बिमल राय प्रोडक्शन खोला और उसके अंतर्गत पहली फिल्म दो बीघा जमीन बनाने का निर्णय लिया। सलील चौधरी की कहानी रिक्शावाला पर आधारित इस फिल्म की भारत सहित पूरे विश्व में व्यापक चर्चा हुई और खूब मान सम्मान मिला। बलराज साहनी द्वारा निभाया गया किसान शंभू महतो का किरदार अपने आप में खुद मिसाल बन गया। फिल्म ने भारतीय फिल्म समाज को प्रभावित किया और इस तरह की फिल्म बनाने को प्रेरित किया इसमें सत्यजित राय का भी नाम लिया जाता है।
2 जनवरी 1953 को मुंबई के मेट्रो सिनेमा में यह फिल्म रिलीज हुई थी। इससे पहले 1 जनवरी को फिल्म का प्रीमियर किया गया था। इसमें पूरा फिल्म उद्योग उपस्थित था राज कपूर, मीना कुमारी नरगिस, दिलीप कुमार, बीआर चोपड़ा और देवानंद आदि। राज कपूर ने फिल्म देखकर कहा था काश, ऐसी कोई यथार्थवादी फिल्म मैं भी बना पाता। फिल्म को उसी वर्ष यानी 1954 में शुरू हुए फिल्मफेयर अवार्ड में बिमल राय को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का और फिल्म को सर्वोत्तम फिल्म पुरस्कार दिया गया। फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। फिल्म ने कान और कार्लोवी वेरी जैसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में भी पुरस्कार पाए।
इसके बाद तो परख, बंदिनी, मधुमति और सुजाता आदि एक से बढ़कर एक फिल्मों का निर्माण और निर्देशन उन्होंने किया। सिनेमा में सामाजिक रंगों को दिखाने वाले इस पुरोधा के बारे में वैजयंती माला कहती हैं, “बिमल दा का सिनेमा समाज में रचता और बसता था। यही उनकी सबसे बड़ी पूंजी थी।” भारतीय समाज को सच्चे स्वरूप में परदे पर प्रस्तुत करने वाला यह समर्थ फिल्मकार बहुत जल्दी मात्र 55 वर्ष की आयु में 8 जनवरी 1964 को हम सबको अलविदा कह गया।
चलते चलते
बिमल राय ने अपनी फिल्मों में देवदास को सबसे चुनौती भरी फिल्म माना क्योंकि यह फिल्म इससे पहले दो बार बन चुकी थी और दोनों बार हिट रही। जब उन्होंने देवदास बनाने का फैसला किया तो दिलीप कुमार बहुत आशंकित थे। दिलीप कुमार को देवदास की भूमिका देने के बाद उन्होंने चंद्रमुखी के लिए नरगिस और पारो के लिए मीना कुमारी से संपर्क किया। नरगिस और मीना कुमारी ने कभी किसी फिल्म में साथ काम नहीं किया था। जब मीना कुमारी ने पारो की भूमिका करने से मना कर दिया तो नरगिस ने भी अपना नाम वापस ले लिया और ऐसा लगा कि देवदास बनाने की बिमल राय की उम्मीद पूरी नहीं होगी। बहरहाल, उन्होंने हार नहीं मानी और सुचित्रा सेन व वैजयंती माला को लेकर देवदास बनाई तो इस फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। कहा जाता है कि नरगिस ने इस फिल्म में काम न करने को अपनी भूल माना लेकिन देवदास से बिमल राय सफलता का इतिहास रच गए।