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अर्जुन ने शिव से स्वप्न में मांगा पाशुपत अस्त्र

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पशुपतिनाथ मंदिर परिसर में श्री शिव महापुराण का पंचम दिवस
इटारसी। अवाम नगर के पशुपतिनाथ मंदिर परिसर में श्री शिव महापुराण के पांचवे दिन आचार्य पं. मधुसूदन शास्त्री को प्रारंभ में यजमान मेहरबान सिंह चौहान एवं श्रीमती शमा चौहान ने व्यासपीठ पर बिठाया एवं शिव महापुराण का पूजन अर्चन किया।
शिव कथा सुनाते हुए आचार्य मधुसूदन शास्त्री ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा तुम शंकरजी के पास जाओ। शंकरजी के पास पाशुपत नामक एक दिव्य सनातन अस्त्र है। जिससे उन्होंने पूर्वकाल में सारे दैत्यों का संहार किया था। यदि तुम्हें उस अस्त्र का ज्ञान हो तो अवश्य ही कल जयद्रथ का वध कर सकोगे। अर्जुन ने अपने आप को ध्यान की अवस्था में कृष्ण का हाथ पकड़े देखा। कृष्ण के साथ वे उडऩे लगे और सफेद बर्फ से ढके पर्वत पर पहुंचे। वहां जटाधारी शंकर विराजमान थे। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। शंकरजी ने कहा वीरवरों तुम दोनों का स्वागत है। उठो, विश्राम करो और शीघ्र बताओ तुम्हारी क्या इच्छा है। भगवान शिव की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों हाथ जोड़े खड़े हो गए और उनकी स्तुति करने लगे। अर्जुन ने मन ही मन दोनों का पूजन किया और शंकरजी से कहा भगवन मैं आपका दिव्य अस्त्र चाहता हूं। यह सुनकर भगवान शंकर मुस्कुराए और कहा यहां से पास ही एक दिव्य सरोवर है, मैंने वहां धनुष और बाण रख दिए हैं। बहुत अच्छा कहकर दोनों उस सरोवर के पास पहुंच। वे धनुष और बाण लेकर शंकर भगवान के पास आए और उन्हें अर्पण कर दिए। शंकर भगवान की पसली से एक ब्रह्मचारी उत्पन्न हुआ जिसने मंत्र जप के साथ धनुष को चढ़ाया वह मंत्र अर्जुन ने याद कर लिया और शंकरजी ने प्रसन्न होकर वह शस्त्र अर्जुन को दे दिया। यह सब अर्जुन ने स्वप्र में ही देखा था।
एक अन्य कथा में उन्होंने बताया कि भील कुमार कण्णप्प वन में एक मंदिर के समीप पहुंचा। भगवान शंकर की मूर्ति देख उसने सोचा कि भगवान इस वन में अकेले हैं। कहीं कोई पशु इन्हें कष्ट न दे। कण्णप्प धनुष पर बाण चढ़ाकर मंदिर के द्वार पर पहरा देने लगा। सवेरा होने पर उसे भगवान की पूजा करने का विचार आया किंतु वह पूजा करने का तरीका नहीं जानता था। वह वन में गया, पशु मारे और आग में उनका मांस भून लिया। मधुमक्खियों का छत्ता तोड़कर शहद निकाला। एक दोने में शहद और मांस लेकर कुछ पुष्प तोड़कर और नदी का जल मुंह में भरकर मंदिर पहुंचा। मूर्ति पर पड़े फूल-पत्तों को उसने पैर से हटाया। मुंह से ही मूर्ति पर जल चढ़ाया, फूल चढ़ाए और मांस व शहद नैवेद्य के रूप में रख दिया। उस मंदिर में रोज सुबह एक ब्राह्मण पूजा करने आता था। मंदिर में नित्य ही मांस के टुकड़े देख दुखी होता। एक दिन वह छिपकर यह देखने बैठा कि यह करता कौन है? उसने देखा कण्णप्प आया। उस समय मूर्ति के एक नेत्र से रक्त बहता देख उसने पत्तों की औषधि मूर्ति के नेत्र पर लगाई, किंतु रक्त बंद नहीं हुआ। तब कण्णप्प ने अपना नेत्र तीर से निकालकर मूर्ति के नेत्र पर रखा। रक्त बंद हो गया। तभी दूसरे नेत्र से रक्त बहने लगा। कण्णप्प ने दूसरा नेत्र भी अर्पित कर दिया। तभी शंकरजी प्रकट हुए और कण्णप्प को हृदय से लगाते हुए उसकी नेत्र ज्योति लौटा दी और ब्राह्मण से कहा, मुझे पूजा पद्धति नहीं, श्रद्धापूर्ण भाव ही प्रिय है।

Rohit Nage

Rohit Nage has 30 years' experience in the field of journalism. He has vast experience of writing articles, news story, sports news, political news.

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