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माया रूपी नर्तकी के मोह से हरिनाम संकीर्तन बचा सकता

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इटारसी। कलयुग में सभी माया रूपी नर्तकी के मोह में फंसे हैं। नर्तकी के इस मोह से मुक्त होने हरिनाम संकीर्तन सबसे सुन्दर और सरल उपाय है। उक्त ज्ञानपूर्ण उद्गार कथा व्यास पं. जगदीश पंाडेय व्यक्त किए। पितृ पक्ष के अवसर पर मालवीय कालोनी नया यार्ड में आयोजित मोक्षदायनी श्रीमद् भागवत कथा के समापन पर श्रोताओं को पांडवों के इन्द्रप्रस्थ महल में आयोजित मायावी सभा के प्रसंग से अवगत कराते हुए प्रवचनकर्ता ने कहा कि इन्द्राप्रस्थ महल की सभा मे पहुचे दुर्योधन यहां मायवी वातावरण में ऐसे उलझ जाते कि जहां थल रहता वहां उन्हें जल दिखता तो वह वस्त्र ऊंचे कर लेते और जहां जलभराव की जगह रहती उसे थल समझकर आगे बढ़ते और उस जलकुंड में गिर जाते।
यह नजारा देख यहा खड़ी इन्द्रप्रस्थ की पटरानी द्रोपदी दुर्योधन पर कटाक्ष करते हुए कहती है अंधे का पुत्र अंधा। द्रोपदी भी यह अपशब्द माया के मोह में फंसकर अंहकार वश कहती ,लेकिन उनके यह अपशब्द ही पारिवारिक युद्ध की नींव स्थापित कर देते हैं। चूंकि माया के मोह में माया के अधीन दुर्योधन जब अपने आपको अपमानित महसूस करने लगते कि, वो इसी महल में महाभारत की घोषणा कर देते। यह कथा प्रसंग समस्त जनमानस को यह संदेश देता है कि वह जीवन में माया रूपी नर्तकी के मोह से बचें और समय अनुसार हरिनाम संकीर्तन कर,अपने जीवन कर्तव्यों का सत्यता से निर्वाहन करें। इस समापन दिवस की कथा में पं. जगदीश पांडेय ने सुदामा प्रसंग का भी मार्मिक वर्णन करते हुये कहा कि जीवन में मित्रता सोच समझकर करना चाहिये और जब हो जाये तो उसका निर्वहन सत्यता के साथ करना चाहिये। समापन दिवस पर आचार्य श्री पांडेय एवं उनकी संगीत समिति का सम्मान हुआ। अंत में महाआरती एवं भंडारे के साथ यह सात दिवसीय कथा संपन्न हुई।

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