*प्रसंग वश : चंद्रकांत अग्रवाल*
यह वाक्य श्रीकृष्ण हस्तिनापुर की राजसभा में अपनी साफगोई से रूष्ट दुर्योधन, धृतराष्ट्र,शकुनि आदि से कहते हैं। कोरोना के इस महाभारत में सोशल डिस्टेंस का सत्य भी उसे ही अपमान पूर्ण व अरूचिकर लगेगा जो दोहरा चरित्र रखते हैं भीड़ कभी भी अनुशासन का संवाहन नहीं कर सकती। अब जब लॉकडाउन चौथे चरण में कहीं 8 घंटों के लिए तो कहीं 4 घण्टों के लिए भी खुल गया हैं या खुलने वाला है तो हमारे कर्तव्यों व दूसरों के अधिकारों वाले विगत कालम में मेरे द्वारा अभिव्यक्त हमारे धर्म, हमारी राष्ट्रभक्ति, राष्ट्र प्रेम हमारी संवेदनशीलता, हमारे अनुशासन,हमारी उदारता व हमारे त्याग की परीक्षाएं ही मानों…प्रारंभ हो रही हैं। ये परीक्षाएं ही तय करेंगी, हमारे स्वयं के परिवार के, गली मोहल्ले के, शहर, जिले, प्रदेश व देश के कोरोना मुक्ति के भविष्य के उत्तीर्ण होने के नेपथ्य का सत्य।
श्रीकृष्ण कर्ण से कहते हैं कि अधिकार भले ही जन्म से मिलता हो पर सम्मान तो योग्यता से ही मिलता हैं। चूंकि हम सभी भारत जैसे को लोकतांत्रिक व धर्म निरपेक्ष देश में जन्म लेने से कई तरह की स्वतंत्रता हमें अधिकार स्वरूप स्वत: ही मिल गयी है पर सम्मान अब तभी मिल पायेगा जब कोरोना के महाभारत में हम अपनी योग्यता साबित कर पायेंगें और हमारी योग्यता तय होगी सोशल डिस्टेंस व मास्क लगाने के हमारे अनुशासन से, अपने शरीर के अंगों, वस्त्रों, घरों व आसपास के परिवेश को सेनेटाइज कर वायरस रहित बनाए रखने की हमारी सजगता से, हमारे लोक व्यवहार में इमोशनल डिस्टेंस घटाने की हमारी संवेदनशीलता व जरूरतमंदों को मदद देने के हमारे त्याग से। निश्चय ही स्वतंत्रता आंदोलन के बाद, तीन युद्धों की विभीषिका झेलने के बाद यह चौथी लड़ाई देश की खुशहाली की हैं जो हमें अस्त्र शस्त्रों से नहीं लडऩी हैं वरन पुरातन भारतीय सभ्यता व संस्कृति के आदर्शों व मूल्यों की ताकत से लडऩी हैं। असली समाजवाद को पुन: रचने की हमारी क्रिएटिविटी से व देश को आत्मनिर्भर बनाने के प्रधानमंत्री मोदी के आहवान को अपनी योग्यता, इच्छाशक्ति, व जिजीविषा से साकार करने की हमारी रणनीति से। सोलह कलाओं के पूर्णावतार श्रीकृष्ण के द्वापरकाल को मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम के सतयुग काल की तुलना में आदर्श व मूल्य विहीन बताने वाले इस घोर कलिकाल में भी कई ज्ञानी हैं जो इतना भी नहीं जानते कि द्वापर ने तो सतयुग के भी कर्ज उतारे हैं। श्रीराम के राज्यभिषेक के एक दिन पूर्व कैकयी द्वारा उनको 12 साल का वनवास दे देने की त्रासदी तो द्वापर में भी हैं जहां धर्मराज संग पांडव 12 साल का वनवास पूरी ईमानदारी से स्वीकारते हैं। पर द्वापर में, सतयुग के भरत की जगह दुर्याेधन जैसा भाई है जो उनको वनवास काल में भी मार डालने के कई षड्यंत्र रचता हैं। स्वयं श्रीकृष्ण को जन्म लेते ही 10 वर्ष तक के बाल्यकाल में अपने ही मामा द्वारा किये गये कई बड़े राक्षसी हमले झेलने पड़ते हैं, यहां तक कि एक बार तो देवताओं के राजा इंद्र भी उनसे नाराज हो जाते हें व गोकुल को जलसमाधि देने में कोई कसर बाकी नहीं रखते। तब यदि श्रीकृष्ण अपने नाना नानी तक को सलाखों के पीछे धकेलने वाले व अपने माता पिता को घोर यातनाएं देने वाले अपने आततायी मामा कंस का वध कर देते हैं तो इसे कैसे कोई अमर्यादित कह सकता हैं। 12 साल वनवास व 1 साल के अज्ञातवास से लौटने पर भी दुर्योधन जब श्रीकृष्ण के कहने पर पांडवों को मात्र 5 गांव देने के प्रस्ताव पर सुई की नोक बराबर जमीन भी नहीं देने की घोषणा करता हैं तो महाभारत तो होना ही था, चाहे किसी भी नीति, सभ्यता, जीवन मूल्यों की तराजू में तौलकर देख लीजिए।
कदाचित कम लोग ही जानते हैं कि द्वापर में श्रीकृष्ण का महाप्रयाण भी सतयुग का अपने ऊपर चढ़ा एक कर्ज उतारने के अनुक्रम में जरा नामक एक बालक के तीर के लगने से होता है जो पूर्व जन्म में सतयुग का बाली था व जिसे श्रीराम को छुपकर मारना पड़ा था क्योंकि बाली के गले में ब्रह्मा द्वारा प्रदत्त रत्न माला के प्रभाव से बाली अपने शत्रु का सामना करते ही उसका आधा बल चमत्कारिक रूप से स्वयं प्राप्त कर लेता था। पर श्रीकृष्ण स्वयं को अनजाने में तीर मारने वाले उस जरा नामक बालक को वन का राजा बना देते हैं। कोरोना का महाभारत भी प्रकृति के साथ किये गये हमारे असीम अत्याचारों का परिणाम ही हैं। मांसाहार की परंपरा तो सतयुग व द्वापर में भी क्षत्रियों द्वारा शिकार करने के रूप में थी। पर वह तब इतनी विकृत नहीं थी, जितनी कि आज है। हमने तो मांसाहारी जानवरों को भी शर्मसार कर दिया। हम उन जीवों का मांस भी खा रहें जिनका मांस खाना जानवर भी पसंद नहीं करते। हमारे देश में गौ मांस को लेकर राजनीति होती हैं। चीन आदि देशों ने तो मांसाहार की अनैतिकता व अमानवीयता का चरमोत्कर्ष रच कर जंगलों के कानून को भी शर्मसार कर दिया। कोरोना महाभारत का कारक वायरस हमारी इसी कुत्सित प्रवृत्ति का परिणाम माना जा रहा हैं। चिंतक/बुद्धिजीवी मान रहें हैं कि प्रकृति मानव जाति द्वारा नष्ट किये गये अपने वैभव, अपनी अस्मिता को संवार रही हैं। वहीं मानव जाति इस शर्मनाक दौर में अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही हैं। इसे कुछ बुद्धिजीवी यदि प्राकृतिक न्याय कह रहें हैं तो इसमें गलत क्या हैं? मानव समाज में जब जब भी अन्याय के खिलाफ सत्य दम तोडऩे लगता हैं, नैतिकता यातनाओं का चरमोत्कर्ष भोगने लगती हैं तो प्राकृतिक न्याय की अलौकिक ताकत ही इस पृथ्वी की अस्मिता की रक्षा करती हैं। जिस तरह आज द्वापर के महाभारत जैसे कोरोना के वायरस महाभारत के साथ हम सब जीवन के कुरूक्षेत्र में हैं। सवाल यही हैं कि जीत किसकी होगी? धर्म की, सत्य की जीत तय हैं। पर हमें पहले पात्र बनना होगा, धर्म की आध्यात्मिकता का, सत्य की अखंड सत्ता का व पुरातन गौरवशाली भारतीय संस्कृति व सभ्यता का। हमें धर्म व सत्य की वास्तविक परिभाषा व सार्थकता आत्मसात करनी होगी। जैसा मैंनें पूर्व कॉलम में कहा था कि अपने कर्तव्यों व दूसरों के अधिकारों के बीच संतुलन का नाम ही धर्म हैं को साकार करना होगा हमें लॉकडाउन 4 में मिली कुछ घंटों की इस आजादी में। संक्रमणकाल में राजा की भी बड़ी भूमिका रही हैं हर काल में, प्रजा व राजा दोनों को एक दूसरे का पूरक बनना होता हैं तभी सफलता मिलती हैं। जब जब भी प्रजा सुविधाभोगी हुई हैं या राजा सुविधाभोगी हुआ तब तब किसी न किसी, आक्रमण या संक्रमण का सामना पूरे देश को करना पड़ा, इतिहास गवाह हैं। कोरोना महाभारत ने प्रजा से उसकी सुविधाभोगिता छीन ली हैं तो प्रजा को भी अब अपनी यह प्रवृत्ति त्याग ही देनी चाहिए मेरे विचार से तो। हालांकि इससे उसे कष्ट होगा पर लाकडाउन के 2 माह के कारावास ने उसे इसका अभ्यस्थ बना दिया हैं। अत: उसका यह कष्ट धीरे धीरे स्वत: ही उसका शरीर भी व उसकी विचारधारा भी आत्मसात कर ही लेगी। वैसे भी अध्यात्म तो एकांत व शांत को ही वास्तविक आनंद से साक्षात्कार का संवाहक मानता हैं। करोड़ों मजदूरों का अपनी कर्म भूमि से हजारों किमी दूर अपनी जन्म भूमि की और पलायन करना जितनी बड़ी चुनौती सरकार के लिए होगी, उनती ही बड़ी स्वयं मजदूरों के लिए व उन उद्योगों के लिए भी होगी जिन्होंनें अपने स्वार्थ व अपनी सुविधाभोगिता के लालच में इन मजदूरों को पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया।
श्रीकृष्ण पांडवों से कहते हैं कि इंद्रप्रस्थ तुम्हारी कर्मभूमि थी जो तुमसे छीन ली गयी पर तुम्हारी, जन्म भूमि तुम से कोई नहीं छींन सकता। जन्म भूमि हस्तिनापुर ही अंतत: महाभारत का कारण बनी। महामंत्री विदुर, श्रीकृष्ण से कहते हैं कि कौरवों की दुष्टता का परिणाम हस्तिनापुर की प्रजा क्यों भोगे। श्रीकृष्ण जबाव देते हैं कि हस्तिनापुर की प्रजा भी दोषी हैं क्योंकि वह आंखें कान जुबान होकर भी अपने राजा धृतराष्ट्र की सत्ता लोलुपता व पुत्रमोह की अनैतिकता व अपने तथकथित युवराज दुर्योधन की अन्याय पूर्ण सत्ता वासना व उसके अत्याचार देखकर भी सुविधाभोगी बनी रही, मूक दर्शक बनी रही। अच्छा हुआ कि करोड़ों मजदूरों से उनकी जन्मभूमि नहीं छीनी गयी व सरकारें प्राथमिकता से उन्हें उनकी जन्म भूमि तक पहुंचा रही हैं। अब रही कर्मभूमि की बात तो मजदूर अपने पुरूषार्थ से अपनी कोई न कोई नई कर्मभूमि रच ही लेंगें जैसे पांडवों ने खांडव वन को इंद्रप्रस्थ बनाकर रची थी या पुरानी कर्मभूमि में ही कोरोना महाभारत समाप्त होने पर लौट जायेंगें। राजा अर्थात सरकारों की योग्यता भी तब फिर दांव पर जरूर होगी। जय श्री कृष्ण।
लेखक, वरिष्ठ लेखक, पत्रकार व कवि हैं।
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