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मुस्कुराए तो, मुस्कुराने के कर्ज उतारने होंगे

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जिंदगी में चाहे जो पा लें, यदि चेहरे पर मुस्कान नहीं है, तो जिंदगी के मायने नहीं। चेहरे पर एक मुस्कराहट और इसके विपरीत एक उदासी, मायने ही बदल देती है। जीने की जद्दोजेहद ने आज हमें ऐसे मोड़ पर पहुंचा दिया है जहां हमारे सामने कई ऐसे सवाल मुंह खोले खड़े हैं, जो न सिर्फ हैरान कर रहे हैं, बल्कि इनका उत्तर भी तलाशना मुश्किल हो रही है। लेकिन, इनको बिना जवाब मिले छोड़ा भी नहीं जा सकता। इनसानी जीवन के सफर में प्रकृति ने हमें काफी कुछ स्वयं से दिया है। बावजूद इसके और पाने की चाहत, लालसा ने हमें प्रकृति से छेड़छाड़ के लिए प्रेरित किया और आज हालात इतने बिगड़ते जा रहे हैं कि बेकाबू हो रहे हैं। जिसे हमने चाहत बना लिया, इसकी कोई जरूरत थी नहीं। हमने प्रकृति से लिया नहीं बल्कि छीनने का प्रयास करते रहे और आज भी कर ही रहे हैं। स्वार्थ इतना कि जब तक मिला, दोहन किया। मिलना बंद तो छोड़ दिया यूं ही सिसकने को। हमने पेड़ काटे, जब तक थे। नये पेड़ नहीं लगाये। पेड़ खत्म तो वीरान भूमि को यूं ही छोड़ दिया। बदले में हमें मिली अवर्षा की स्थिति, भीषण जलसंकट, बढ़ते-बढ़ते असहनीय होने वाला तापमान। क्योंकि प्रकृति से मिली सहूलियतों के बदले हमने उसे लौटाने की कोशिश नहीं की। लौटाने की तो हमारी आदत है, भी नहीं।
नैसर्गिक संसाधनों का हमने कभी सम्मान नहीं किया और उनका इस तेजी से दोहन करने लगे कि उसके दुष्प्रभावों को भी अनदेखा किया। प्रकृति को दिये ज़ख्म ओजोन परत के छिद्रों, प्रदूषित वायु, नदियों के धाराविहीन सूखे तलछटों और मौसम के बदलाव के रूप में हमारे ही सामने आने लगे। प्रकृति इनसानों की तरह पीछे से वार नहीं करती। इतने जख्म सहने के बावजूद वह संभलने और अपनी आदतों में बदलाव का मौका इनसान को देती है, क्योंकि मां, के साथ बच्चे कितना भी जुल्म कर लें, वह फिर भी सुधार का मौका देती है। बहुत हो गयी, जैसी हद बताती है। प्रकृति ने भी छोटे-छोटे उदाहरणों के जरिये यह सब बताने का प्रयास किया। लेकिन, इनसान है, कि मानता नहीं। भूल गया कि मुस्कुराहट भी प्रकृति से मिली है, जैसे दूध का कर्ज उतारना भूलता जा रहा है, वैसे ही प्रकृति से मिली मुस्कान का कर्ज भी वह भुला बैठा है। भूल बैठा है कि मुस्कुराने के कर्ज उतारने होंगे।
यदि हम उदाहरण के तौर पर देखें कि गाय कितनी भी सीधी हो, बेवजह छेड़छाड़ करोगा तो सींग दिखाने को मजबूर होगी ही। अब तक संभलने का अवसर देने वाली प्रकृति ने कोरोना वायरस के जरिए ऐसा ही कुछ दिखाने का प्रयास किया है। वह अब सींग दिखाने वाली गाय ही नहीं हो गयी, सींग मारने को मजबूर भी हो गयी है। अब इस सींग के गहरे जख्म मिलना शुरु हो गये हैं। कोरोना काल ने गहरे जख्म दिये हैं, लोग कहते हैं, हमारा कसूर क्या है? ज़रा ठंडे दिमाग से सोचें कि आपने अब तक कुदरत से लिया ही तो है, दिया क्या है? आज वह मुकाम आ पहुंचा है जब कुदरत हमसे कठिन सवाल पूछ रही है, इसलिए समझना जरूरी है कि जो कजऱ् लिया है वो तो चुकाना ही पड़ेगा, शायद बहुत बड़ी कीमत पर।

गुलजार साहब ने वर्षों पूर्व जो गीत लिखा था, याद आ रहा है…
तुझसे नाराज़ नहीं जि़न्दगी
हैरान हूं मैं,
तेरे मासूम सवालों से
परेशान हूं मैं
जीने के लिए सोचा ही नहीं
दर्द संभालने होंगे
मुस्कुराये तो, मुस्कुराने के
कज़ऱ् उतारने होंगे
मुस्कुराऊं कभी तो लगता है
जैसे होंठों पे कर्ज रखा है।।

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