बाबूलाल दाहिया, पद्मश्री/ जुलाई का तीसरा सप्ताह है। किन्तु अभी तक पर्याप्त मानसूनी वर्षा का न होना प्रकृति की ओर से जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत है।
वैसे परिवर्तन प्रकृति का एक शाश्वत नियम है। किन्तु इन दिनों जो परिवर्तन दिख रहे हैं वह प्रकृति निर्मित नहींं, पूरी तरह मानव निर्मित हैं। और यह भारी उद्योग एवं कृषि में आये बदलाव के कारण है। इसलिए इसका निदान भी मनुष्य को ही खोजना पड़ेगा।
धरती में तीन हिस्सा जल है और एक हिस्सा थल। पर उस मेंं से 2.5 % जल ही पीने और सिंचाई आदि के लिए उपयुक्त है। बाकी समुद्र का खारा जल है। पर अगर उसे एक इकाई मान लें तो उद्योग धंधों में 15 %, सिंचाई में 82.5 % एवं अन्य पीने, नहाने आदि के उपयोग में 2.5% ही खर्च होता है।
ऐसी स्थिति न तो उद्योग धन्धे में लगने वाले 15% जल को कम किया जा सकता और ना ही 2.5% नहाने, धोने, पीने वाले जल को ही ? यदि कटौती होगी तो 82.5% सिंंचाई वाले पानी मेंं ही सम्भव है। और जो यह खपत बढ़ी है, वह खेती में आये बदलाव के कारण ही। क्योंंकि विपुल उत्पादन या हाइब्रीड किस्मोंं के आ जाने से यह किस्मेंं अपने बाजार मूल्यों से भी अधिक हमारा मूल्यवान पानी बर्बाद कर रही है जिसके कारण देश की बहुत बड़ी जनसंख्या को पानी के लिए दर-दर भटकना पड़ता है। और वह इसलिए भी कि खेती में मात्र चावल और गेहूंं का रकबा ही बढ़ा है, जिसका अर्थ यह है कि यदि हम इन चमत्कारिक हाईब्रीड किस्मोंं की खेती कर रहे हैं तो 1 किलो धान जो मात्र 17- ₹ की बिकती है उसे उगाने में 3 हजार लीटर पानी खर्च कर रहे हैं। इसी तरह यदि एक क्विंटल गेहूं उगाकर बाजार भेज रहे हैं तो उसका आशय यह है कि गांंव का 1लाख लीटर पानी बाहर भेज रहे हैं।
इनके विपरीत हमारे परम्परागत अनाज हजारों साल से यहां की परिस्थितिकी में रचे बसे होने के वे कम वर्षा में पक जाते हैं। ओस में पक जाते हैंं। धान की परम्परागत किस्मोंं को हमने देखा है कि ऋतु से संचालित होने के कारण वह आगे पीछे की बोई साथ साथ पक जाती हैं। जबकि आयातित किस्मोंं में यह गुण नहींं है और दिन के गिनती में पकने के कारण हर चौथे दिन उनकी सिंचाई करनी पड़ती है। जबकि प्रकृति प्रदत्त वर्षा आधारित खेती के लिए होने के कारण परम्परागत गेंहू एवं परम्परागत धान के पौधे का तना ऊँचा होता है। अस्तु वह कुछ पानी गढ़े समय के लिए अपने पोर में संरक्षित करके भी रखता है।
यही कारण है कि परम्परागत किस्मेंं अधिक सूखा बर्दाश्त कर लेती हैं। अस्तु यह परम्परागत किस्मेंं ग्लोबल वार्मिग एवं जलवायु परिवर्तन रोकने एवं पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं।
उत्तर भारत की नदियां हिमनद हैं। पानी गिरे न गिरे हिम पिघलेगा और उनमेंं जल आकर जल स्तर को सामान्य रखेगा। किन्तु हमारे यहां की नदियां हिम पुत्री नहींं वन पुत्री हैं। इसलिए इन वन जाइयोंं का अस्तित्व वन से ही है। वन रहेगा तो पानी और पानी रहेगा तो वन। साथ ही किसानी भी। इसलिए यदि हमें अपना पानी, वन और किसानी बचानी है तो परम्परागत बीज भी बचाना भी जरूरी है।
बाबूलाल दाहिया (Babulaal Dahaiya), पद्मश्री