प्रसंग-वश: चंद्रकांत अग्रवाल: अपने एक मुक्तक से आज के कॉलम का आग़ाज़ कर रहा हूँ, भीतर का तम हटाना चाहिये, मन मन्दिर में राम बसाना चाहिए। सत्य की अग्नि का करके आह्वान, असत्य का रावण जलाना चाहिए। तभी बुराईयों के रावण का नाश हो पायेगा। तभी लोक तंत्र को तमाशा बनने से रोका जा सकेगा। तभी सत्ता तंत्र को जनतंत्र के प्रति जबावदेह बनाया जा सकेगा। रावण को नहीं रावण वृत्ति को जलाना होगा। वर्तमान परिवेश में चाहे इटारसी जैसा छोटा शहर हो या कोई महानगर, हर जगह बुराईयों की अपनी अलग अलग लंका हैं। रावण को जलाते हुए हम अपनी यह औकात हर बार भूल जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार के रावण की पूजा तो हम खुद हर रोज कर रहें हैं। तब रावण को जलाने का कृत्य हमारा दोहरा चरित्र ही रेखांकित करता हैं। सत्ता का दोहरा चरित्र तो प्राचीनकाल से सर्वज्ञात हैं। पर यह निरंतर और अधिक गंदा , और अधिक भयावह व और अधिक शर्मनाक होता जा रहा हैं। स्थानीय निकायों की सत्ता तो चरित्रहीनता के नित नये कीर्तिमान रच रही हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी के एक शोक गीत की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
हाथों की हल्दी है पीली
पैरों की मेंहदी कुछ गीली
पलक झपकने से पहले ही सपना टूट गया।
दीप बुझाया रची दीवाली
लेकिन कटी न मावस काली
व्यर्थ हुआ आवाहन
स्वर्ण सवेरा रूठ गया, सपना टूट गया।
नियती नटी की लीला न्यारी
सब कुछ स्वाहा की तैयारी
अभी चला दो कदम कारवां
साथी छूट गया, सपना टूट गया।*
नवरात्र के पांचवे दिवस जब मैं यह कालम लिख रहा हूँ, विजयादशमी ठीक 4 दिन बाद आ रही हैं। रावण के बड़े बड़े पुतले देश भर में लाखों की तादाद में बन रहे हैं। पर ये सभी तैयारियां कितनी बेमानी हैं, यह सच हम समझना ही नहीं चाहते। घीरे धीरे सब कुछ स्वाहा करने की तैयारी हम कर रहें हैं अपनी इस लंबी सुविधाभोगिता से , अपनी खामोशी से। तब हमारा विजयादशमी मनाना भी एक मजाक मात्र बन जायेगा, रावण का पुतला जलाकर। राजनैतिक अवसरवादिता का जबाव हम व्यक्तिगत व सामाजिक सुविधाभोगिता से कब तक देंगें? अपनी संस्कृति, अपनी अस्मिता की चिंता हम कब करेंगें। अपने ईश्वर खुदा में परम सत्य का दर्शन हम कब करेंगें? अपने आप को हम कब तक यूँ ही धोखा देते रहेंगें? अपने देश के उत्सवों का मर्म हम कब समझेंगे,उत्सवों का आध्यात्मिक मर्म कब आत्मसात करेंगे। विजयादशमी के पूर्व ऐसे सवालों के जबाव देने की तैयारी भी हमें करनी होगी तभी हम मर्यादा पुरूषोत्तम के द्वारा बुराई, अहंकार, अनैतिकता के प्रतीक रावण का वध करने का मर्म समझ पाएंगे। विजयादशमी को सार्थक रूप से मना सकेंगें। उन श्रीराम के रावण व लंका विजित करने का उत्सव, जिनके लिए काव्यात्मक रूप से कहा जाये तो कहूंगा कि
*जिसने मर्यादा की उलझी लट सुलझाई
संबंधों को जिसने नूतन संदर्भ दिए
जिसने निरवंशी सपनों के अपराजित मन
संकल्पों के गुलदस्ते देकर जीत लिए।
जो दर्शन का दर्शन, संस्कृतियों की संस्कृति
जो आत्मा की आत्मा, और कारण का कारण
परमाणु से भी सूक्ष्म, सृष्टि से भी विराट
भावों सा निर्गुण,सगुण वर्ण का उच्चारण।
पर जिसका जीवन बन हवन दहा
आदर्शों हित जिसने पतझर का दर्द सहा
जो निर्वासन का विंध्याचल धरकर कांपे
इस जीवन-मरू में शापग्रस्त नीर-सा बहा।*
क्या हम ऐसे श्रीराम को किंचित भी जानते हें। राजनैतिक राम को जानने व मानने वाले तो इस राम की कल्पना भी नहीं कर सकते।
विजयादशमी क्या है, देखिए मेरा यह मुक्तक,…
शक्ति की अदभुद भावाभिव्यक्ति है विजयादशमी, भावों संग नूतन स्पंदन की अभिव्यक्ति है विजयादशमी। यह अन्याय के प्रतिरोध की आत्मा की शक्ति है, हमारे भीतर के प्रकटीकरण की श्रेष्ठ स्वस्ति है विजयादशमी।।
कई बार मैं लिखते लिखते हुए निराश हो जाता हूँ। आज भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। तब अपने आपको तसल्ली देते हुए मैं अपने एक अन्य मुक्तक में कहता हूँ,…
शौर्य, पराक्रम की आराधना है विजयादशमी, निडरता, तेजस्विता की साधना है विजयादशमी। अन्याय का अंत अवश्य होता है एक दिन, असत्य के प्रतिकार की कामना है विजयादशमी।।
अंततः पुनः जब मुझे लगता है कि मेरे ये भाव अधिक लोग शायद आत्मसात नहीं कर पाएंगे तब यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर इस लघु कविता की इन पंक्तियों के साथ विराम देता हूँ-
*अब सभी घोड़ों को
छोड़ देनी चाहिए युद्धिभूमि
मनुष्यों के लिए,
वे लड़ें या आपस में
बांट लें सत्ता, वैभव, खुशहाली
धर्म,संस्कार,आदर्श,सब कुछ
घोड़ों को आचरण करना चाहिए निराला
किसी यात्रा पर निकल जाना चाहिए।
क्योंकि वे धारण नहीं कर सकते दोहरा चरित्र
नहीं बेच सकते स्वयं को
नहीं रच सकते पाखंड का चक्रव्यूह।*
चंद्रकांत अग्रवाल (Chandrakant Agrawal)