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चर्चा शहर की… गूंज रही है बैलों के गले में घंटी की आवाज

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  • Rohit Nage :

इन दिनों राजनीतिक गलियारों में ‘बैल के गले में घंटी’ बांधने की चर्चा जोरों पर है। दरअसल, कार्यक्रम बैल बाजार में हुआ था, तो घंटी भी बैलों के गले में बांधने की बात चली। मूल कहावत तो बिल्ली के गले में घंटी बांधने की है।

बहरहाल, घंटी बांधने की बात चली है तो इशारों-इशारों में। कोई भी नाम या संकेत ऐसा नहीं था, तो यह पता करने के लिए पर्याप्त होता कि आखिर किन बैलों की बात की जा रही है। बात की शुरुआत भी सभापति राकेश जाधव ने की थी, जिसे विधायक डॉ.सीतासरन शर्मा ने आगे बढ़ाकर घंटी बांधने की जिम्मेदारी ले ली, अन्यथा बड़ा सवाल तो कहावत के अनुसार यही होता है कि आखिर घंटी बांधेगा कौन ?

बात चली है तो हमने भी भारतीय जनता पार्टी के ही एक जिम्मेदार से पूछा कि आखिर ‘बैल किस पार्टी के, अपने या विरोधी?’ जवाब मिला कि अपने वाले तो दूसरों की बातों में आते हैं, वे बैल नहीं हैं। जाहिर है, कि विपक्षी बैलों की बात चल रही थी। ऐसा कहा जा रहा है कि विकास में बाधा पहुंचाने वाले कुछ लोगों को बैल की संज्ञा दी गई है। वैसे तो जो कहावत, मंदबुद्धि या नासमझ को भी बैलबुद्धि कहा जाता है। फिर विकास यदि हो रहा है तो उसमें बाधा पहुंचाना तो सच में बैल बुद्धि ही है। एक और भाजपा नेता का मानना है कि कतिपय भाजपायी भी उच्च स्तर पर शिकायतें कर रहे हैं, फिर उनको भी क्या बैलबुद्धि नहीं माना जाए? क्योंकि विकास हो रहा है, तो उसको रोकना तो वाकई कमअक्ल लोगों का काम होता है।

चलिए, हम तो सभी राजनीतिज्ञों को बुद्धिमान मानते हैं, क्योंकि सभी अपनी-अपनी काबिलियत से उस मुकाम पर पहुंचे हैं, जहां वे हैं। किसी में कम तो किसी में ज्यादा, योग्यता सभी में है। राजनीतिक टिप्पणी नेता करें, वे बैल के गले में घंटी बांधें या बिल्ली के, विकास हो रहा है तो दिखेगा, इसमें दो राय नहीं। अलबत्ता, इस तरह की टिप्पणी राजनीतिक गलियारों में चटखारे लेकर चर्चा-ए-खास बन जाती हैं, और सब अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कयास लगाते हैं, आखिरकार चर्चा कर रहे हैं तो बैलबुद्धि के तो नहीं हो सकते हैं।

पिछले दिनों खबरों से पता चला कि मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के जिलाध्यक्ष दिल्ली से तय होंगे। इससे पहले कांग्रेस जब सत्ता के पॉवर में थी, तो टिकट के लिए दिल्ली तक दौड़धूप होती थी, अब जिलाध्यक्ष के लिए भी ऐसा होना संभावित है। यानी, जिलाध्यक्ष का फैसला भी अब ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के हाथ में है। कहा जाता है कि इसके लिए एक निर्धारित प्रक्रिया अपनायी जाएगी। राष्ट्रीय और मध्यप्रदेश के नेताओं की कमेटी जिलों में ऑब्जर्वर भेजेगी जो जिलाध्यक्ष की दौड़ में शामिल नेताओं के पैनल तैयार करके दिल्ली भेजेंगे और वहीं से नाम भी तय किया जाएगा। जाहिर है, जिलाध्यक्ष की दौड़ अब आसान नहीं है।

कांग्रेस आलाकमान ने अब तीन और कमान दोनों अपने हाथ में ले लिया है, ऐसे में पार्टी में लोकतंत्र कैसे जिंदा रहेगा, पार्टी बखूबी समझ सकती है, यानी जिलाध्यक्ष का चुनाव नहीं होगा, यह संभवत: कार्यकर्ताओं से रायशुमारी से तय हो सकता है। हालांकि, जब भी कांग्रेस के चुनावों में ऑब्जर्वर आते हैं, कितनी जूतमपैजार होती है, इतिहास गवाह है, इस बार बिना छीछालेदर के सबकुछ तय हो जाए तो शायद पार्टी को फैसला करने में आसानी हो सके।

सोशल मीडिया पर इन दिनों सुबह से लेकर देर रात तक ऐसे लोग अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ बने हुए हैं, जिनको उनके वार्ड में भी लोग ठीक से नहीं जानते होंगे। जानते भी होंगे तो उनकी मानते नहीं होंगे, वे नगर पालिका के चुनाव में अपने वार्ड का चुनाव तक न जीत सकते और ना ही जिता सकते। आपरेशन सिंदूर में सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिका जितनी उच्च स्तर पर होती है, उससे कहीं ज्यादा तीखी और धारदार सोशल मीडिया पर हो रही है।

इन दिनों केन्द्र सरकार विदेशों में प्रतिनिधिमंडल भेजने जा रही है तो उसमें केन्द्र कहां गलत है, कहां नहीं इसका विशेषण भी बड़ी गंभीरता से हो रहा है। भाजपा और कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी क्या प्रहार और बचाव करेंगे, ऐसे दोनों पक्षों से प्रहार और बचाव होते हैं। समझ नहीं आ रहा है कि आखिर ये अवैतनिक (बिलकुल फुर्सतिये) लोग इतना सब्र और उर्जा कहां से लाते हैं? हर सोशल मीडिया ग्रुप पर सारा दिन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बहस (मुर्गा लड़ाई) चलती रहती है, चाहे उनके घर के पास का कचरा नहीं हटा पा रहे हों, देश और विदेश के मसले वे चुटकियों में हल करने का दावा करने में कहीं पीछे नहीं हैं।

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