कोरोना संक्रमण के दूसरे भयावह दौर में कोविड बेड से चैत्र नवरात्र की पूर्व बेला में

Post by: Poonam Soni

माँ राधा हरती हैं, हर बाधा स्वयं कृष्ण भी राधा हो जाना चाहते हैं

प्रसंग वश: चंद्रकांत अग्रवाल/ दवा के साथ आपकी भक्ति या अध्यात्म स्वरूपा आत्मशक्ति ही करती है आपकी रक्षा शक्ति की आराधना, माँ की पूजा-भक्ति का पावन चैत्र नवरात्र 13 अप्रेल से प्रारंभ होने जा रहा है। उसके पूर्व 1 अप्रेल से मैं मप्र की सीमा से भी बाहर महाराष्ट्र में जहां जाने से भी अन्य राज्यों के लोग डर रहे हैं, मेरे परिवार की कोरोना से पुख्ता सुरक्षा के हेतु, मेरे ही कुछ अपनों को निमित्त बनाकर, मेरे ईष्ट ने, मेरे कृष्ण ने, मेरे श्याम ने, माँ राधा ने मुझे इटारसी से 320 किलोमीटर दूर एक अत्याधुनिक व लक्झरी कोविड सेंटर जिसका नाम श्याम सखा कोविड सेंटर भी मेरे लिए बहुत आध्यात्मिक सुकून संवाहित कर रहा है, जहां 4 स्पेशल कोविड बेड हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। कोविड ट्रीटमेंट के लिए मुझे 7 घण्टे का सफर कर 320 किलोमीटर दूर खींच कर कोई मुझे ले जाएगा, इसकी कल्पना भी कभी मैंने नहीं की थी, कोई भी नहीं कर सकता क्योंकि शहर व जिले से रिफर होने के बाद भी अधिकतम 100 किलोमीटर से अधिक प्रायः किसी को भी ट्रेवल नहीं करना पड़ रहा है। पर मैं यहां आया तो पाया कि सचमुच बहुत बहुत आगे है महाराष्ट्र का प्राइवेट व सरकारी चिकित्सा सिस्टम अपने मप्र से, जो स्वयं अपने प्रदेश का इतना अधिक भार झेलते हुए भी दूसरे प्रदेशों के हजारों कोविड पेशेंट्स को भी अपनी सेवाएं दे रहा है। भले ही राजनीतिक रूप से, कोरोना के विकराल संक्रमण आदि के लिए यह प्रदेश कितनी भी जनचर्चा में हो। फिर ऐसे वक्त, जब मुझे अपने शहर, जिले व प्रदेश की काफी अपर्याप्त व खस्ताहाल सरकारी व प्राइवेट चिकित्सा व्यवस्था ने निराश कर दिया व कोविड चिकित्सा सेंटर्स ने हाउस फुल के बोर्ड दिखा दिए थे। वास्तव में अपने व परायों की, अच्छे व बुरे की पहचान करना सिखा दिया। कोरोना ने मुझे ही नहीं वरन करोड़ों पीड़ितों को, मुझे ऐसा लगा। सोशल डिस्टेंसिंग बढ़ाकर भी किस तरह इमोशनल डिस्टेंसिंग कम की जा सकती है, यह व्यवहारिक रुप से महसूस हुआ। अन्यथा तो व्यक्ति झूठे व बेमतलब के सम्बन्धों के चक्रव्यूह में ही जीवन भर फंसे रहते हुए एक दिन मर भी जाता है। उसकी आंखें खुलने से पहले ही सदा के लिए बन्द हो जाती हैं। जीवन 10 या 20 साल कम या अधिक जीना कोई मायने नहीं रखता कम से कम मेरे लिए तो ऐसे चक्रव्यूह में रहते हुए, जब हम अपने आपको ही धोखा देकर जी रहे हों। सार्थक जीवन ही अहम होता है, वास्तव में तो फिर चाहे वह छोटा ही क्यों न हो। कोविड बेड पर अखण्ड फुर्सत के ढेर सारे लम्हों ने फिर मेरे चिंतन के आयाम रोशन कर दिये। वैसे भी जब संसार धोखा देता है, तभी अध्यात्म की तेजस्विता का अहसास होता है हमें। वैसे भी मेरी स्पष्ट मान्यता है कि जीवन की हर समस्या का स्थायी समाधान सिर्फ भारतीय दर्शन के अध्यात्म में ही है।

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कोविड बेड पर मुझे लगा मानो माँ ने मुझे अपने पावन नवरात्र की आध्यात्मिक तैयारी करने के लिए ही फुर्सत व एकांत के ये इतने अधिक पल दिए हूं। किसी भी पर्व की भौतिक तैयारी तो 2 घण्टे में भी हो सकती है पर आध्यात्मिक तैयारी अपने भीतर झांकने के लिए वक्त भी लेती हैं व आपका निश्च्छल समर्पण भाव भी जाग्रत करने हेतु भी मोटिवेट करती है। श्री कृष्ण मेरे आराध्य देव, मेरे ईष्ट हैं, तो वैसे तो इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि श्री राधा को मैंने सदैव अपनी अलौकिक माँ के रूप में महसूस किया है, अपनी आत्मा में, अपने दिलो दिमाग में। गीता मनीषी श्री ज्ञानानंदजी ने बड़े स्नेह के साथ मुझे श्री कृष्ण कृपा काव्य दिया था 10 वर्ष पूर्व। उसी काव्य- ग्रन्थ की ये पंक्तियां मेरे जेहन में सदैव जीवंत रहती हैं। जब भी आज जैसे कोरोना संकट की कोई दुविधा, कष्ट या मानसिक संताप या अशांति होती है तो मेरा मन उन्हें गुनगुनाने लगता है, बड़ी दीनता, कातरता पर अधिकार से भी, जो आपके साथ शेयर करने की इच्छा हो रही है-

राधा मम बाधा रहो, श्री कृष्ण करो कल्याण
युगल छबि वंदन करूं जय-जय राधेश्याम
राधे मेरी मात है, पिता मेरे घनश्याम
इन दोनों के चरणों में कोटि- कोटि प्रणाम

ये पंक्तियां उस काव्य के चरमोत्कर्ष पर आती हैं। बिना पूरा काव्य पढ़े पाठकों को इन पंक्तियों की गहराई, उस गहराई का दिव्य अहसास महसूस नहीं होगा। मुझे स्वयं एक साल तक लगातार पढऩे के बाद ही धीरे-धीरे यह अहसास होना शुरू हुआ था। इन पंक्तियों को आपके साथ शेयर करने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि मेरे लिए व मेरे जैसे सभी श्री कृष्ण भक्तों के लिए व जो कृष्ण भक्त नहीं भी हैं पर उनकी दिव्य लीलाओं को जानते हैं, उन सबकी हर बाधा का एक सहज समाधान राधा ही हैं क्योंकि वो माँ हैं। श्री कृष्ण तो पिता हैं, परमपिता हैं। बस इसी मोड़ पर हम माँ होने से श्री राधा के चरणों के ज्यादा करीब हो जाते हैं। श्री कृष्ण से भी ज्यादा।

श्रीकृष्णचंद्र शास्त्री ठाकुर जी व उनके सुपुत्र युवा भागवत कथाकार इंद्रेश जी तो अपनी भागवत कथाओं में यह तक कहते हैं कि वास्तव में श्री राधा जी तो श्रीकृष्ण का ही गौर वर्ण व स्त्री स्वरूप है। रहस्य यह है कि भगवान ने अपने तीन भक्तों नंद जी,वासुदेव जी, बृषभानु जी तीनों को उनके बार बार अनुनय विनय करने पर स्वयं को पुत्र रूप में पाने का वरदान दे दिया था। इस तरह बृषभानु जी के घर श्री कृष्ण अपनी आराध्या शक्ति माँ राधा के रूप में अवतरित हुए। चूंकि माँ की आराधना के नवरात्र पर्व के पूर्व ही मेरा यह कालम आपके हाथों में होगा। अत: आज हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी व देश के लाखों कोरोना वारियर्स के सोशल डिस्टेंस बढ़ाकर इमोशनल डिस्टेंस घटाने के संदेश के आध्यात्मिक अर्थ तलाशते हुए हम कोरोना के इस दूसरे भयावह दौर में, सरकारी लॉक डाउन के बिना अपने स्वयं के विवेक के आंशिक पर बहुत अनुशासित लॉक डाउन जैसे सुरक्षा चक्र में सिर्फ मां राधे के दिव्य व अलौकिक स्वरूप को ही समझने की कौशिश करेंगे, तो हमें यह अहसास होगा कि एक कोरोना पॉजिटिव के एकाकी जीवन को किस तरह वह एनर्जेटिक बना सकता है। मैं स्वयं अपनी फैमली के साथ कोरोना पॉजिटिव होकर हॉस्पिटल में एडमिट हो कोविड बेड पर रहते हुए, अपने चिंतन के आयामों से यह कॉलम लिख रहा हूँ।
कुछ वर्ष पूर्व मथुरा में रहने वालीं एक रचनाकार व पत्रकार उपमा ऋचा का थोड़ा सा साहित्य मुझे पढऩे को मिला। मैं नहीं जानता कि उपमा ऋृचा का लेखन उनकी श्री कृष्ण भक्ति की श्याही से लिखा गया है या धर्म-शास्त्रों में वर्णित श्री कृष्ण लीलाओं की साहित्यिक व्याख्या की है उन्होंने। पर मां राधा के संदर्भ में उनकी कुछ व्याख्याओं ने मेरी कलम को भक्ति की श्याही से चलने को जरूर मजबूर कर दिया और इसी के चलते आज के इस कॉलम में मां राधा के संदर्भ में की गई उनकी कुछ व्याख्याएं भी मैंने आपके समक्ष रख दी हैं। कुछ अन्य व्याख्याएं भी कुछ अलग-अलग चिंतकों की भी रहीं हैं। पर इन सबको मेरी कलम ने वर्तमान संदर्भ में अपने चिंतन से नए आयाम देने का प्रयास किया है।

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इस प्रसंग वश में आप लेखकीय विद्वता आंकने के चक्कर में न पड़कर, उन भावों को आत्मसांत करने का प्रयास करें जो प्रतिकूल हालात में भी श्री कृष्ण कृपा से व श्याम सखा के साथ फुल बेड रेस्ट के चलते मेरी अखंड फुर्सत के इन लमहों में आपको घर-बैठे मिल रहे हैं। मैं तो मात्र एक अकिंचन माध्यम मात्र हूँ। वास्तव में तो एक-एक शब्द मेरे श्री कृष्ण की कृपा का ही प्रसाद है , वरना मेरी या किसी की भी इतनी औकात नहीं कि वह श्री कृष्ण या श्री राधा को परिभाषित कर सके या उनके स्वरूप की व्याख्या कर सके।
श्री दुर्गा सप्तशती ग्रंथ में माँ की जो आरती अंतिम पृष्ठों पर दी गई है, उसकी दो पंक्तियों पर आपका ध्यान चाहूंगा-

राम -कृष्ण तू सीता ब्रजरानी राधा।
तू वांच्छाकल्पद्रुम हारिणी सब बाधा।।

अर्थात नाम व स्वरूप हम जो भी मान लें , सीता, गौरी, दुर्गा , काली, लक्ष्मी, सरस्वती, पर सभी उस मातृ शक्ति को अभिव्यक्त करती हैं, जो परम पिता परमात्मा जिसे हम चाहे राम कहें, कृष्ण कहें , शिव कहें, विष्णु कहें या अन्य कोई भी नाम देवें, इनकी आराध्या शक्ति , आत्म शक्ति, ही हैं।वास्तव में तो हम नवरात्र में मां की भक्ति साधना करने वाला हर जीव दुर्गा सप्तशती को परम सत्य मानता हैं और वहीं ग्रंथ आपको स्पष्ट कह तो रहा है कि भक्तों की सब बाधा हरती हैं ब्रजरानी राधा स्वरूपा मातृ शक्ति। खैर, अब आपको ले चलता हूँ, उस धरा , उस द्वापर युगीन कालखण्ड की पृष्ठभूमि में जहां है हिरण्य, कपिला और सरस्वती का अद्भुत संगम। कोरोना के संक्रमण व उससे भी अधिक उसके कारण संभव इस पल पल की मानसिक मौत की बेला में,मैंने पृष्ठभूमि भी कालपुरुष श्री कृष्ण के अपने मानवीय अवतार से महाप्रयाण की ही चुनी है। हर व्यक्ति अपने अंतिम समय में अपने सम्पूर्ण जीवन को एक फिल्मी फ्लेश बेक की तरह देखता महसूस करता है। हालांकि कालपुरुष तो अविनाशी व कण कण में सदा व्याप्त होता है, पर चूंकि यहां मैं श्री कृष्ण रूप में कालपुरुष के मानवीय अवतार से महाप्रयाण की बात कर रहा हूँ, जिस पर मैंने एक दीर्घ कविता भी लिखी है, जो कोरोना संक्रमण काल में मैंने अंतरराष्ट्रीय स्तर के कुछ फेसबुक लाइव में सुनाई भी व जिसे देश विदेश के बहुत लोगों ने काफी पसन्द भी किया। पर आज इस गद्य कॉलम में उस कविता में अंतर्निहित कुछ भावों के अलग तरह से उल्लेख के साथ।

प्रभास क्षेत्र में दूर तक फैली अपूर्व शांति अश्वत्थ के सहारे मौन लेटा है कालपुरूष। हवा के साथ विशाल वृक्ष की डालियां जाने किस संवाद में खोई हैं। खोए हुए तो कृष्ण भी हैं। अपनी द्वापर की जीवन गाथा के पन्ने उलट-पलट रहे हैं। यमुना के जल में धीमे-धीमे घुल रहा है मोर पंख का रंग और इस जल के बीच सुंदर-सजल आंखें झिलमिलाती हैं, सवाल करती हैं- जा रहे हो कान्हा पर क्या सचमुच अकेले जा सकोगे? सवाल करती इन आंखों के साथ जाने कितनी आंखें याद हो आती है उन्हें । वसुदेव के साथ गोकुल भेजती देवकी की आंखें , ऊखल से बांधती यशाोदा की आंखें, गोकुल में ग्वाल और गोपियों की आंखें, राजसभा में पुकारती द्रौपदी की आंखें , कुरूक्षेत्र में खड़ें अर्जुन की आंखें, प्रभास उत्सव के लिए बिदा करती रूक्मिणी की आंखें, यमुना की आंखें और यमुना की धार में विलीन होती परम प्रिया की आंखें। उन आंखों का जल कृष्ण की आंखों से बहने लगता है- तुमसे अलग होकर कहां जाऊंगा? छाया से काया कैसे अलग हो सकती है भला। जहां तुम हो, वहां मैं हूं। कृष्ण की एकमात्र शरण तुम ही तो हो। ऐसा परिहास न करो। मेरी शरण की तुम्हें क्या आवश्यकता कान्हा? कहां मैं एक साधारण-सी ग्वालिन और कहां तुम जैसा असाधारण पुरूष । तुम तो सारी सृष्टि को शरण देते हो। तुम मेरे शरणाार्थी कैसे हो सकते हो? परिहास नहीं सखी। जन्म लेते ही जिसे मां के आंचल को छोड़कर भवसागर की लहरों के बीच उतरना पड़ा, उसकी पीड़ा को तुम्हारे अतिरिक्त कौन हर सकता है? सारी सृष्टि को शरण देने की सामर्थ्य भले हो कृष्ण में, लेकिन कृष्ण को शरण देने की सामर्थ्य तो केवल तुम्हारे हदय में है। इस चैत्र नवरात्र में काल पुरूष द्वारा स्वयं के द्वारा मातृ शक्ति के इस अभिनंदन से बड़ी कोई आराधना नहीं हो सकती। तो कौन है यह मातृ शक्ति, जिसकी शरण का आकांक्षी है तीनों लोकों को तारने वाला असाधारण पुरूष? कृष्ण को शरण देने की सामर्थ्य रखने वाला यह हदय किसका है? कृष्ण को शरण देने वाला ये हदय उसी आराधिका का है, जो पहले राधिका बनी और फिर राधिका से कृष्ण की आराध्या हो गई। कृष्ण आराधना करते हैं, इसलिए ये राधा हैं या ये कृष्ण की आराधन करती है, इसीलिए राधिका कहलाती है।

सच, बहुत कठिन है इसको परिभाषित करना, क्योंकि इसकी परिभाषा स्वयं कृष्ण हैं। खुद को असाधारण होने की सीमा तक साधारण बनाए रखने वाली यह किशोरी कृष्ण को अनायास ही मिली थी भागवत में। भागवत, रस का गीत हैं। उस गीत का रस भी और कोई नहीं, यही आराधिका है। कृष्ण राधा से पूछते हैं , राधे। भागवत में क्या भूमिका होगी तुम्हारी। राधा कहती है, मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए कान्हा, मैं तो बस तेरी छाया बनकर रहूंगी, तेरे पीछे-पीछे । छाया हां, कृष्ण के प्रत्येक सृजन की पृष्ठभूमि में है। गोवर्धन को धारण करने वाली तर्जनी का बल भी यही छाया है और यही छाया है लोकहित के लिए मथुरा से द्वारिका तक की विषम यात्रा करने वाले कृष्ण की आत्मशक्ति । संपूर्ण ब्रज रंगा है कृष्ण रंग में, कदंब से लेकर कालिंदी अर्थात यमुना तक । सब ओर कृष्ण ही कृष्ण। लेकिन इस कृष्ण की आत्मा बसती है राधा में। वृंदावन की कुंज गलियां हों या मथुरा के घाट हर ओर, हर तरफ बस एक नाम, एक रट, राधा राधा राधा । बांके का बांकपन भी राधा है और योगेश्वर का ध्यान भी राधा है। कृष्ण के विराट को समेटने के लिए जिस राधा ने अपने हदय को इतना विस्तार दिया कि सारा ब्रज ही उसका हदय बन गया । उसी राधा के बारे में भागवत में गोपियां पूछती है कि ये आराधिका आखिर है कौन? पहले तो कभी दिखी नहीं । कौन है वो मानिनी, जिसकी वेणी गूंथता है उनका श्याम, जिसके पैर दबाता है सलोना घनश्याम और हां जब वो रूठ जाती है तो मोर बनकर नृत्य भी करता है । गोपियां ही नहीं, कृष्ण भी पूछते हैं, बूझत श्याम, कौन तू गोरी । लेकिन राधा को बूझना इतना सरल नहीं और राधा को बूझ पाने से भी कठिन है- राधा के प्रेम की थाह बूझ पाना। इसी अथाह प्रेम की थाह पाने के लिए एक बार लीलाधर ने एक लीला रची। स्मृतियां कृष्ण को खींच ले गईं उत्सव के क्षणों में। हर ओर खुशी का सैलाब। हास-परिहास के बीच अचानक पीड़ा से छटपटाने लगे कृष्ण। ढोल , ढप, मंजीरे खामोश होकर मधुसूदन के मनोहारी मुख पर आती-जाती पीड़ा की रेखाओं को पढऩे लगे। चंदन का लेप शूलांतक वटी कोमलांगी स्पर्श सब व्यर्थ। वैद्य लज्जित से एक-दूसरे को निहार रहे थे।

सत्या ने डबडबाती आंखों से पूछा तो उत्तर मिला, मेरे किसी परम प्रिय की चरण धूलि के लेप से ही मेरी पीड़ा ठीक हो सकती है। कृष्ण की पीड़ा बढ़ती ही जा रही है। सोलह हजार रानियां-पटरानियां करोड़ों भक्त, सखा, सहोदर सब प्राण होम करके भी अपने प्रिय की पीड़ा हरने को तैयार हैं, लेकिन प्रभु के मस्तक पर अपनी चरण धूलि लगाकर नर्क का भागी कोई नहीं बनना चाहता। सबने अपने पांव पीछे खींच लिए। राधा ने सुना तो नंगे पांव भागती चली आई। आंसुओं में चरण धूलि का लेप बनाकर लगा दिया कृष्ण के भाल पर। सब हतप्रभ थे। ये कैसी आराधिका है, इसे नर्क का भी भय नहीं। कृष्ण मुस्कुरा दिए, जिसने मुझमें ही तीनों लोक पा लिए हों, वो अन्यत्र किसी स्वर्ग की कामना करें भी तो क्यों ? सारे संसार को मुक्त करने वाला इसीलिए तो बंधा है इस आराधिका से। कृष्ण सबको मुक्त करते हैं, लेकिन राधा कभी मुक्त नहीं करती कृष्ण को। कृष्ण खुद भी कहां मुक्त होना चाहते हैं, ब्रज की इस गोरी के मोहपाश से। कभी-कभी रूक्मिणी छेड़ती हैं, क्या सचमुच बहुत सुंदर थी राधा? कृष्ण कहते हैं हां, बहुत सुंदर इतनी सुंदर कि उसके सामने मौन हो जाती हैं, सौंदर्य की समस्त परिभाषाएं। सूर्योपराग के समय महाभारत के युद्ध के उपरांत कुरूक्षेत्र में सब उपस्थित हुए हैं । राधा भी आई है, नंद-यशोदा, गोप-ग्वाल, गोपियों के साथ। रूक्मिणी आश्चर्य में हैं । इस राधा के आते ही सारा परिवेश कैसे एकाएक नीला हो गया है। और कृष्ण का नीलवरण राधा के बसंत से मिलकर कैसे सावन-सावन हो उठा है। यों रूक्मिणी खुद स्वागत कर रही हैं राधा का, लेकिन कैसे बावले हुए जाते हैं कृष्ण।

एक जलन-सी उठती है मन में और यही जलन रूक्मिणी सौंप देती हैं राधा को गर्म दूध में। कृष्ण का स्मरण कर एक सांस में पी जाती है राधा । सारा द्वेष, सारी जलन, सारी पीड़ा, लेकिन कृष्ण नहीं झेल पाते। कृष्ण के पैर दबाते समय रूक्मिणी ने देखा कि श्री कृष्ण के पैरों में छाले हैं। मानों गर्म खौलते तेल से जल गए हों। ये क्या हुआ द्वारिकानाथ, ये फफोले कैसे? कृष्ण बोले, प्रिय राधा के हदय में बसता हूं मैं। तुम्हारे मन की जिस जलन को राधा ने चुपचाप पी लिया देखो वही मेरे तन से फूट पड़ी है। राधा को बड़भागिनी कहता है ये संसार लेकिन बड़भागी तो कृष्ण हैं, जिन्हें राधा जैसी गुरू मिली , सखी मिली, आराधिका मिली। जिसने उन्हें प्रेम, समर्पण और त्याग की वर्णाक्षरी सिखाई। तभी तो दानगढ़ में दान मांगते हैं कृष्ण । दानगढ़ जो बसा है सांकरी खोर और विलासगढ़ से विपरीत दिशा में।
यहां राधा के चरणों में झुककर याचक हो जाते हैं कृष्ण । हे राधे बड़ी दानी है तू, सुना है तेरे बरसाने में जो भी आता है, वो खाली हाथ नहीं जाता। मुझे भी दान दे। प्रथम दान अपनी रूप माधुरी का। दूसरा दान तेरे अनंत रस और विलास का। दानगढ़ में कृष्ण को दिया गया, ये महादान ही पाथेय बन जाता है कृष्ण का, गैया चराने वाले गोपाल से द्वारिकाधीश बनने तक की लंबी यात्रा में। कुरूक्षेत्र से लेकर प्रभास तक राधा का यही प्रेम तो जीवन रसधार बनकर बहता रहा कृष्ण के भीतर। गीता का आधार भी यही प्रेम है और महारास का रस भी। वेणु हो या पांचजन्य, दोनों में एक ही स्वर फूटता है।

एक ही पुकार उठती है, राधे तेरे नैना बिंधो री बान । कृष्ण से जुड़ी हर स्त्री राधा होना चाहती है। स्वयं कृष्ण भी राधा हो जाना चाहते हैं। लेकिन कृष्ण जानते हैं कि राधा का पर्याय केवल राधा ही हो सकती हैं। इसलिए तो कृष्ण बार बार आना चाहते हैं राधा की शरण में। सच तो यह लगता हैं मुझे कि कृष्ण कोई स्वरूप नहीं वरन समर्पण व प्रेम के भाव स्वरूप ही हैं जिसका कोई आकार नहीं होता मात्र अहसास होता है। प्रेम ही कृष्ण है समर्पण ही कृष्ण है फिर चाहे वह हमारा अपने माता पिता से हो भाई बहन से हो पुत्र पुत्री से हो या पति पत्नी के मध्य हो या अपनी मातृभूमि से अपने देश से हो। वह क्या इतना प्रगाढ़ है कि हम उसमें कृष्ण को देख सकें राधा को देख सकें यही आत्म चिंतन का दुर्लभ अवसर मिला है हमें पुनः इस कोरोना संक्रमण के दूसरे दौर में अन्यथा तो हमें अपने स्वयं के बारे में सोचने के लिए भी इतना वक्त नहीं मिलता है। पर सोशल डिस्टेंन्स के साथ क्या हमने अपनी इमोशनल डिस्टेंन्स भी नहीं बढ़ा ली हैं? हम आज के अर्थप्रधान युग में पैसों को ही कलयुग का सबसे बड़ा भगवान मानकर पहले से अधिक स्वार्थी, असंवेदनशील, तो नहीं हो गए हैं, अन्य की पीड़ा को लेकर भी, भले ही वे हमारे अपने ही क्यों न हों? इसलिए मैं कहता हूं कि लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे, दूसरे कैसा व्यवहार कर रहे हैं आपके साथ, यह सब मत सोचिए। अन्यथा कोरोना से अधिक आपका यह चिंतन घातक हो सकता है आपके लिए। गोप गोपियों ने, सुदामा ने ,मीरा सूरदास ने और भी असंख्य लोगों ने यहां तक कि कलयुग में भी कई कई प्रेमियों ने यह सब नहीं सोचा तभी उनको प्रेम व समर्पण के श्री कृष्ण मिल सके।अतः आप भी किसी की देखादेखी न करें सिर्फ कोरोना वारियर्स की सुनें जो बार बार कह रहे हैं सोशल डिस्टेन्स बढ़ाएं पर इमोशनल डिस्टेन्स घटाएं। अपने अपने घर मे रहें या न रहें पर इस पेंडमिक के लिए जरूरी अनुशासन का सख्ती से पालन करें व सबको भी इसके लिए मोटिवेट करें। तो मैं बात कर रहा था श्री कृष्ण के महाप्रयाण की बेला की।

आंखों में एक चमक सी कोंधती हैं। दूर कांलिंदी की लहरों पर एकांत पथिक सा नि:शब्द बढ़ रहा है राधा की मन्नतों का एक दीया। कृष्ण मौन सुन रहे हैं, अपने द्वारा ही रची गई द्वारिका के अंधेरों से निकलती अर्थहीन आवाजें और उन आवाजों में घुलता एक सवाल,जा रहे हो कान्हा, पर क्या सचमुच अकेले जा सकोगे ? कृष्ण भी जानते हैं कि अपने प्रेमियों को भूलकर छोड़कर जाना उनके लिए भी सम्भव नहीं। तभी तो द्वापर युग से आज तक भी कृष्ण व माँ राधा हमारे साथ ही हैं। बस इस विश्वास को अपने ह्रदय मंदिर में स्थापित मात्र करना है। पर यह तभी होगा जब तक हम स्वयं अपना मन निर्मल, निश्च्छल, नहीं बना लेते। यह तभी सम्भव होगा जब हम दूसरों की पीड़ा को भी अपनी पीड़ा की तरह महसूस कर पाएं। भले ही उसके लिए कुछ भी न करें पर कम से कम हमारे भीतर कुछ करने का भाव तो जागृत हो। प्रारब्ध भोग तो सबको अपना अपना स्वयं ही काटना होता है। पर जब मां की कृपा दृष्टि मात्र भी रहती है तो बस यह प्रारब्ध भोग आसानी से कट जाता है। तो यदि हम स्वयं को ऐसा बना पाए तो फिर देखिए कोरोना का संकट ही नहीं उसका भय भी आपसे कैसे दूर भागता है। आपके ही नहीं आपके गांव शहर प्रदेश देश व विश्व से कैसे भागता है। तो कोरोना संकट के कोहरे में इस एकाकी काल खंड में जब हम अपने परिजनों से भी असुरक्षा महसूस करने लगे हैं , आने वाले नवरात्र के दिनों व उसके बाद के भी शांत एकांत के निर्बाध कालखंड में जप, तप, यज्ञ, योग, ध्यान, आत्म चिंतन आदि साधनाओं व चिंतन, मनन, ध्यान के असीम आयामों में 24 घण्टों घर दफ्तर, बाज़ार या कहीं पर भी रहते हुए यदि कृष्ण भक्त माँ राधा के इस अलौकिक अहसास को जरा सा भी महसूस कर सके तो मैं अपना आज का यह कालम लिखना सार्थक समझूंगा। आपकी यह नवरात्र जीवन की अनमोल धरोहर बन जाएगी और कोरोना संक्रमण का यह दूसरा भयावह दौर जिसने मुझे भी मानसिक रूप से झकझोर दिया, आपके भौतिक, मानसिक व सामाजिक जीवन में कोरोना संक्रमण काल में व उसके बाद अध्यात्म के प्रकाश से कई नए सकारात्मक बदलाब कर देगा।

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चंद्रकांत अग्रवाल (Chandrakant Agrawal)
मोबाइल नंबर- 9425668826

 

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