गणतंत्र दिवस का मुख्य समारोह इटारसी के गांधी स्टेडियम में देखा और सुना। यसमैन भले ही इसे सफल कहें। निस्वार्थ भाव से देखें तो यह एकदम नीरस और अव्यवस्थित लगा। इसे आयोजक भले ही हमारी सोच और दृष्टि को दोष दे दें, क्योंकि जो आयोजक होते हैं, उन्हें अपना किया सब अच्छा ही लगता है। लेकिन यथार्थ यही है।
आमजन अब ऐसे कार्यक्रमों से दूर हो रहा है। गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में भी आमजनता जो राष्ट्रीय कार्यक्रमों में शिरकत करती है, बड़ी संख्या में नदारद थी। बहुत लोग जो पिछले वर्षों में आते रहे हैं, इस वर्ष दिखाई नहीं दिये। कुछ आये तो थोड़ी देर बाद वे भी चले गये। जाहिर है, कार्यक्रमों में दर्शकों को बांधे रखने की क्षमता नहीं थी। चयन प्रक्रिया का कितना पालन हुआ होगा, कार्यक्रमों की गुणवत्ता देखकर पता चल सकता है। उस पर से समयसीमा का बिलकुल ध्यान नहीं रखा गया। कोई नृत्य नाटिका सात मिनट में खत्म तो कोई पंद्रह मिनट भी चली। यद्यपि पेश किये जाने वाले कार्यक्रमों की संख्या महज 12 थी, फिर भी दोपहर में ढाई बजे कार्यक्रम खत्म हुआ। हालांकि यह ठंड में देर से शुरु हुए कार्यक्रम के कारण भी हो सकता है।
गांधी स्टेडियम की पूर्वी गैलरी 70 फीसद खाली थी, जिसे बाद में स्काउट और अन्य स्कूली बच्चों के कारण कुछ हद तक भरा जा सका। मैदान के चारों ओर आमजन बेतरतीब तरीके से खड़े थे, जिनको हटाने के लिए पुलिस बल मैदान में मौजूद नहीं था। पूरे गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान पुलिस का एक सिपाही भी मैदान में नहीं था। केवल जब नर्मदापुरम के कार्यक्रम से लौटकर एसडीओपी और टीआई मैदान में पहुंचे तो कुछ पुलिस कर्मी दिखाई दिये, लेकिन वे भी गैलरी में बैठे रहे और आवारा और मवाली किस्म के लड़के मैदान में मस्तीखोरी करते रहे।
पहली बार मैदान में चाट फुलकी की दुकान लगी देखी। बाइकर्स को मैदान में प्रतिबंधित नहीं किया और आवारा किस्म के तीन लड़के बाइक पर मंच के सामने से गुजर गये। उनको रोकने का प्रयास करने की जगह लोग उनको देखकर हंसते रहे। आखिर यह जिम्मेदारी किसे निभानी थी। क्या पुलिस नहीं होना चाहिए था? क्या नगर पालिका के जिम्मेदारों की ड्यूटी नहीं थी कि पुलिस बल नहीं होने पर उनको बुलाया जाता? पुलिस केवल जयस्तंभ चौक तक दिखाई दी जब मार्च पास्ट चला। गांधी मैदान सुरक्षा विहीन रहा।
पिछले दो वर्ष से लगातार पत्रकारों की दीर्घा खत्म कर दी गई, इस कारण पत्रकारों ने भी कार्यक्रम से दूरी बना ली। पिछले वर्ष पत्रकार पार्षद एक साथ कर दिये, कई पत्रकारों को जगह नहीं मिली वे बिना विरोध जताये इसलिए चले गये, क्योंकि राष्ट्रीय महत्व का कार्यक्रम है। इस वर्ष भी इसी की पुनरावृत्ति की गई। किसी ने जिम्मेदारी नहीं उठायी। जिसे जहां जगह मिली बैठ गया। कुछ पार्षद पति निर्णायकों की कुर्सी पर बैठ गये, उठाया तो नाराज होकर चले गये। अरे भैया अपनी अपनी इमेज बनाना अपने हाथ में होता है। आपको बैठना नहीं था, ताकि उठाये नहीं जाते?
इस वर्ष जो होना था, हो चुका। इन कमियों से कुछ सीख लेकर आगामी हर प्रकार के ऐसे कार्यक्रमों में इनको दूर करने की जरूरत है। यहां यह भी कहना चाहेंगे कि आईना देखकर उसे तोडऩे की जगह सूरत सुधारने की कोशिश की जाएगी तो शायद कुछ सुधार होगा, अन्यथा हम जो कर रहे हैं, वह सब सही है, सोच लेंगे तो किसी का कुछ नहीं बिगडऩे वाला, शहर का ही नुकसान होता रहेगा। इति!