- विपिन पवार
यदि आपको 1934 से 1954 तक की इटारसी के बारे में और 1954 से अब तक की मुंबई के बारे में जानना हो….तो आपको वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती कमलेश बख्शी की आत्मकथा शेष-अशेष को पढऩा होगा। क्योंकि कमलेश, महापंडित राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में घुमक्कड़ जंतु रही हैं, अत: केवल इटारसी और मुंबई ही नहीं बल्कि इस आत्मकथा में भारत के अनेक पर्यटन स्थलों की तत्कालीन समय की जानकारी हमें मिलती है।
वर्ष 2023 में आरके पब्लिकेशन, मुंबई से प्रकाशित कमलेश बख्शी की आत्मकथा बेहद चर्चित हुई थी। उन्होंंने प्रचुर मात्रा में लेखन किया है। उनकी रचनाओं का भारत सहित विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी कहानियां एवं उपन्यास विदेशी विश्वविद्यालयों में भी पढ़ाए जाते हैं। अनेक छात्रों ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। उनका जन्म सन 1934 में अविभाजित भारत के पंजाब में हुआ और 6 माह की आयु में उनके मां पिता इटारसी आ गए। इटारसी उनका मायका है। विवाहोपरांत वे 1954 से मुंबई में हैं।
इस आत्मकथा में न केवल उनकी जीवन यात्रा है बल्कि इसमें हमें तत्कालीन भारत के सांस्कृतिक, राजनीतिक ,आर्थिक एवं सामाजिक इतिहास की भी झलक मिलती है एवं मुंबई की अनेक फिल्मी हस्तियों के प्रारंभिक संघर्ष भरे जीवन की झलकियां भी पाई जाती है। आत्मकथा की शैली अत्यंत रोचक, सहज एवं सरल है। भाषा एवं वाक्य विन्यास ऐसा है कि उसके साथ हम प्रवाहित होते चलते हैं।
भाषा की इस रवानगी में भले ही कहीं पर व्याकरण के नियमों का उल्लंघन होता है लेकिन पाठक जब इस आत्मकथा में डूबता है तो उसे कुछ भी याद नहीं रहता कि वह क्या पढ़ रहा है। कबीर ने कहा भी है ‘भाखा बहता नीर।’ वह तो कमलेश बख्शी की जीवन सरिता के प्रवाह में अपने आप डूबता-उतराता, शांत, स्थिर, सम्मोहित- सा जब कोरोना काल तक पहुंचता है, तो आत्मकथा समाप्त हो जाती है।