: प्रसंग वश में साहित्यकार चंद्रकांत अग्रवाल का आध्यात्मिक कालम*
गीता भारतीय संस्कृति की आधारशिला है। हिन्दू शास्त्रों में गीता का सर्वप्रथम स्थान है । गीता में 18 पर्व और 700 श्लोक हैं। इसके रचयिता वेदव्यास हैं । गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही एक अंग है।अध्यात्म जगत में लोकप्रियता में इससे बढ़कर कोई दूसरा ग्रन्ध नहीं है और इसकी लोकप्रियता व स्वीकार्यता दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। गीता में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से धार्मिक सहिष्णुता की भावना को प्रस्तुत किया गया है जो भारतीय संस्कृति की एक बड़ी विशेषता है। आलेख का शीर्षक वास्तव में मेरे एक मुक्तक की प्रथम पंक्ति है। देखिए गीता पर केंद्रित मेरा वह मुक्तक।
जीने की कला ही सबको सिखाती है गीता, मार्ग खुद से मिलने का बताती है गीता। सबसे बड़ी प्रयोगशाला धर्म की व्यवहार है,
फर्क आत्मा व शरीर का समझाती है गीता।।
वास्तव में तो गीता ही हमें बताती है कि भक्ति कैसी होनी चाहिए,कर्म कैसे ,किस तरह करने चाहिए,सत्संग क्या है? इन्ही सवालों पर केंद्रित मेरा एक अन्य मुक्तक देखिए,
यज्ञ- भावना बिन कर्म जंग है, अध्यात्म ही गीता का हदयांग है।
भक्ति में बुद्धि नहीं शुद्धि जरूरी, परमात्म वृत्ति ही यथार्थ सत्संग है।
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में कौरवों और पांडवों के मध्य युद्ध में अर्जुन अपने स्वजनों को देखकर युद्ध से विमुख होने लगा । धर्मयुद्ध के अवसर पर शोक मग्न अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा कि व्यक्ति को निष्काम भाव से कर्म करते हुए फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भू: मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।।
आत्मा की नित्यता बताते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि यह आत्मा अजर-अमर है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह आत्मा मरती नहीं है । जिस प्रकार व्यक्ति पुराना वस्त्र उतार कर नया वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण कर लेती है ।
आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न वायु उड़ा सकती है और न जल ही गीला कर सकता है । आत्मा को जो मारता है और जो इसे मरा हुआ समझता है, वह दोनों यह नहीं जानते कि न यह मरती है और न ही मारी जाती है। हे अर्जुन ! युद्ध में विजयी हुए तो श्री और युद्ध न करने पर अपयश मिलेगा इसलिए युद्ध कर। गीतानुसार हमें साधारण जीवन के व्यवहार से घृणा नहीं करनी चाहिए अपितु स्वार्थमय इच्छाओं का दमन करना चाहिए।
देखिए पुनः मेरा यह मुक्तक जो गीता के इसी भाव को अभिव्यक्त करता है,
निष्कामता ही मन का धर्म है, कर्ताभाव रहित ही सार्थक कर्म है। देह तो चक्रव्यूह है,जीवन का*देहातीत आत्मा का यही मर्म है।
गीता हमें यह सिखाती हैं कि हमें अपने धन,बाल,पद आदि के किसी भी अहंकार को को नष्ट करना चाहिए । अहंकार के रहते हुए ज्ञान का उदय नहीं होता, गुरु की कृपा नहीं होती और ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता भी नहीं प्राप्त होती । गीता में भगवान का कथन है कि मुझे जिस रूप में माना जाता है, उसी रूप में मैं व्यक्ति को दर्शन देता हूँ, चाहे शैव हो या वैष्णव या कोई और !
गीता के उपदेशों को सभी ने स्वीकृत किया है, अत: यह किसी सम्प्रदाय विशेष का ग्रंथ नहीं है । उत्कृष्ट भावना का परिचायक होने के कारण गीता का हिन्दू धर्म ग्रन्थों में सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। भारत और विदेशों में भी गीता का बहुत प्रचार है । संसार की शायद ही ऐसी कोई सभ्य भाषा हो जिसमें गीता का अनुवाद न हो ।
पाश्चात्य विद्वान हम्बाल्ट ने गीता से प्रभावित होकर कहा है कि- ”किसी ज्ञात भाषा में उपलब्ध गीतों में सम्भवत: सबसे अधिक सुन्दर और दार्शनिक ग्रंथ गीता है । गीतः-गज्त्र त्रैंश्त्र जगत की परम निधि है । ”
आज का युग परमाणु युद्ध की विभीषिका से भयभीत है । ऐसे में गीता का उपदेश ही हमारा मार्गदर्शन कर सकता है । आज का मनुष्य प्रगतिशील होने पर भी किंकर्त्तव्य- विमूढ़ है । अत: वह गीता से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपने जीवन को सुखमय और आनन्दमय बना सकता है ।
गीता में सम्पूर्ण वेदों का सार निहित है । गीता की महत्ता को शब्दों में वर्णन करना असम्भव है । यह स्वयं भगवान कृष्ण के मुखारविन्द से निकली है । स्वयं भगवान कृष्ण इसका महत्व बताते हुए कहते हैं- कि जो पुरुष प्रेमपूर्वक निष्काम भाव से भक्तों को पढ़ाएगा अर्थात् उनमें इसका प्रचार करेगा वह निश्चय ही मुझको (परमात्मा को) प्राप्त होगा। जो पुरुष स्वयं इस जीवन में गीता शास्त्र को पढ़ेगा अथवा सुनेगा वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाएगा ।
गीता शास्त्र सम्पूर्ण मानव जाति के उद्धार के लिए है । कोई भी व्यक्ति किसी भी वर्ण, आश्रम या देश में स्थित हो, वह श्रद्धा भक्ति-पूर्वक गीता का पाठ करने पर परम सिद्धि को प्राप्त कर सकता है । अत: कल्याण की इच्छा करने वाले मनुष्यों के लिए आवश्यक है कि वे गीता पढ़ें और दूसरों को पढायें।यही कल्याणकारी मार्ग है।
आलेख का समापन अपने उस गीता गीत से कर रहा हूं,जो सोशल मीडिया पर काफी पसंद किया गया। आज गीता जयंती के पावन प्रसंग पर मेरे ईष्ट श्रीकृष्ण की कृपा व प्रेरणा से रचित यह गीता गीत सभी पाठकों को सादर समर्पित है,
जीना कैसे जीना सिखलाती गीता। मरना कैसा मरना बतलाती गीता।।
दूजों से मिलने से पहले खुद से मिलो,
मुरझाने के पहले तुम इस तरह खिलो।
मुस्काओ मत रहने दो मन को रीता,
एक- एक दिन करके तो जीवन बीता।
जीना कैसे जीना……………….//1//
सहना सीखो पर्वत के जैसा अविचल,
रहना सीखो नदियों से उन सा निर्मल।
देना सीखो पेड़ों से फल मीठा – मीठा,
लेना सीखो बच्चों से वो जैसा जीता।
जीना कैसे जीना…………….//2//
जीवन क्या कठपुतली के नचने जैसा,
मरना क्या हम वस्त्र बदलते हैं वैसा।
पंच तत्व का तन तो माटी में मिलता,
नभ में आत्मा रूप कमल सा खिलता।
जीना कैसे जीना………………//3//
गीता कहती कभी नहीं विचलित होना,
सांस-सांस में सत्य, त्याग, अरुणा भरना
मरना क्या अंश उसी का उसमें मिलता
बीज तुम्हारे भीतर जैसा, वैसा फलता।
जीना कैसे जीना……………..//4//
चंद्रकांत अग्रवाल,
सम्प्रति इटारसी,
मध्यप्रदेश
मो. न. 9425668826*