सोशल मीडिया पर उठे ज्वलन्त मुद्दों से अपनी ताकत बढ़ा सकता है प्रिंट मीडिया भी
प्रसंग-वश: चंद्रकांत अग्रवाल। सोशल मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सैंकेड टू सैकेंड अपडेट हो रहे समाचारों की चुनौतियों, पत्रकारिता की सभी त्रासदियों, बीमारियों, बिडंबनाओं, मजबूरियों, व ज्यादा खुलकर कहूं तो पत्रकारिता की उस गंदगी जिसकी संड़ाध अब पूरे देश को प्रभावित कर रही हैं पर खुलकर कुछ तथ्यात्मक व भावनात्मक बातें करने की सख्त जरूरत है आज हिंदी पत्रकारिता दिवस पर। तथ्यात्मक बातों में पत्रकारिता को एक मुनाफे का व्यापार बनाने की कुत्सित मानसिकता, किसी खबर का महत्व उसके मुख्य पात्र व्यक्ति या संस्था द्वारा किसी अखबार को विज्ञापन या अन्यान्य ढंग से दिये गये आर्थिक सहयोग के आधार पर तय करने के मापदंडों व संबंधित मीडिया हाउस से, अखबार के संवाददाताओं से व्यक्तिगत संबंधों के आधारों पर तय होना, कुछ पत्रकारों का दोहरा चरित्र, राजनीतिक सरंक्षण व राजनीतिक औज़ार के रूप में होने वाली पत्रकारिता आदि हैं।
वहीं भावनात्मक बातों में खबरों की हत्या कर देने या उसे लहुलुहान कर देने की मानसिकता प्रमुख है। खबर की हत्या से मेरा तात्पर्य उस खबर को अखवार में अपने मनमाने नजरिये से चलाने या संवाददाता के पूर्वाग्रहों के कारण चार कॉलम की खबर को 4 लाइनों में अथवा एक कॉलम में निपटाकर उसे लहुलुहान कर देने व चार लाइन की खबर को 4 कॉलम में लगाने से था अथवा तो किसी जनहितैषी खबर को प्रकाशित ही नहीं करने व बाद में बासी खबर का लेबल लगाकर उसे न छाप पाने की मजबूरी बताने, आदि से था। हालांकि अपवाद स्वरूप कभी कभी विज्ञापनों की अधिकता भी खबर के न छपने का एक कारण बन जाती हैं। विज्ञापन एक तरह से किसी भी अखबार की जीवन यात्रा में आक्सीजन की तरह भी होते हैं, इस कड़वे सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता। पर मीडिया हाउसेस यदि विज्ञापन को खबरों से अधिक प्राथमिकता देने लगें,जब किसी अखबार का विज्ञापन विभाग, समाचार विभाग को निर्देशित करने लगे, जैसा कि आज कुछ मीडिया हाउसेस में हो भी रहा है, तो फिर पत्रकारिता के मूल्यों की चिंता करना भी स्वाभाविक हो जाता है।
मैं स्वयं ऐसे मीडिया हाउसेस व कुछ ऐसे पत्रकारों को भी जानता हूँ जो विगत कई सालों से पत्रकारिता को एक लाभप्रद बिजनेस की तरह कर रहे हैं, जो जनहित के प्रति अपने समर्पण का ढिंढोरा तो खूब पीटते हैं पर उनके टारगेट अपने व्यक्तिगत लाभ पर ही केंद्रित होते हैं। अपने व्यक्तिगत हितों का सरंक्षण करते हुए, अपनी कुछ आधारहीन गलतफहमियों या अपने अहंकार से उपजे पूर्वाग्रहों के कारण सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय कुछ वजनदार नामों, कुछ बड़े व सार्थक जनहितैषी कार्यों, व भ्रष्टाचार से संबंधित खबरों में अपने दुराग्रह की सेंसर कैंची बड़े ही शर्मनाक ढंग से चलाते है। जिनको नाम जानने की उत्सुकता हो मुझसे व्यक्तिगत संपर्क करें। वैसे किसी दिन मेरा मन हुआ तो मैं किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में भी स्वयं ही उनकी उपरोक्त महानता को उजागर कर सकता हूँ।
इस तरह कैंची विज्ञापन विभाग, मीडिया हाउस की पालिसी या संवाददाता या ब्यूरोचीफ की चलती है और छल पाठकों के साथ होता है, पत्रकारिता के साथ होता है व पाठकों में छबि अखबार की ही खराब होती हैं। क्या अखबार के संपादकों/ मालिकों को अपने ऐसे प्रतिनिधियों की व पत्रकारों को ऐसे मीडिया हाउसेस की पहचान समय रहते नहीं कर लेनी चाहिए। अब तो क्षेत्रीय कार्यालय होशंगाबाद में खुलने से यह काम और भी आसान हो गया हैं। प्रिंट मीडिया के लिए भविष्य की चुनौतियों को आज बहुत अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत है। मैं भी मानता हूँ। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब कुछ दैनिकों के प्रकाशन पर ही तालाबंदी भी देखनी पड़ सकती है हमें। जिस तरह शहर में आज सिर्फ 2 ही साप्ताहिक देखे सुने जा रहे हैं। वास्तव में वर्तमान व भविष्य दोनों में ही यह प्रिंट मीडिया के लिए अग्नि परीक्षा का दौर हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया व सोशल मीडिया का प्रभाव समाज पर लगातार बढ़ता जा रहा हैं। आम पाठक खबर की तह तक जाने,खबर के पूरे सच को जानने में ज्यादा रूचि लेने लगा है। क्योंकि अब उसके पास विकल्पों की कमी नहीं हैं। प्रिंट मीडिया की ऐसी ही त्रासदियों और मेरी नजर में इसकी कमजोरियों को रेखांकित करने का प्रयास कर रहा हूँ।
सोशल मीडिया पर प्रायः नागरिक पत्रकारिता के तहत आम जनता की पीड़ा से जुड़े, जनहित के कई गंभीर ज्वलन्त मुद्दे उठते हैं। उनको यदि प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी खोजी पत्रकारिता से महत्व देकर लीड या बॉटम में भी स्थान देने लगे तो मैं समझता हूं उसकी ताकत बहुत बढ़ सकती है। पर अफसोस कभी कुछ नासमझ तो कुछ दुराग्रही तो कुछ अपने व्यक्तिगत या राजनीतिक स्वार्थों के चलते इन मुद्दों को मजाक का स्वरूप देकर हवा में उड़ाने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। पत्रकार साथी मेरी इस बात को गंभीरता से लेंगे तो उनको कभी भी दिन की लीड स्टोरी या बॉटम न्यूज के लिए ज्यादा सोच विचार नहीं करना पड़ेगा। पर ऐसा नही करने के कारण ही आज आफिस या घर में बैठे बैठे फील्ड रिपोर्टिंग कर टेबल न्यूज बनाने के वर्तमान पत्रकारिता के एक कल्चर की त्रासदी भी आज पाठक गण भोग रहे हैं। मेरा संकेत मीडिया हाउस या पत्रकारों की सुविधाभोगिता से तो जुड़ा ही है साथ ही अपने अखबार के प्रति उनकी जबावदेही से भी संबंधित है। बिना फील्ड पर जाये सोशल मीडिया से जानकारी लेकर संबंधित व्यक्तियों से मोबाइल द्वारा चर्चा कर उनके वर्सन सहित खबर बनाने का फैशन विगत कई सालों से देख रहा हूँ। कई बार तो ऐसी खबरें लीड में भी लगी देखी हैं। आयोजकों द्वारा पत्रकारों को घर बैठे प्रेस विज्ञप्तियों द्वारा अपने आयोजन या अन्य किसी कदम की जानकारी भेज देना भी इस सुविधा भोगिता का एक प्रमुख कारण है। क्योंकि यदि आप पत्रकारिता के मूल्यों व आदर्शों को थोड़ा सा भी जी रहें हैं और यदि आपकी संवेदनशीलता संतोषजनक है तो फिर आप किसी भी खबर को पढ़कर सहज ही यह अंदाजा लगा सकते हैं कि यह खबर टेबिल पर बैठकर लिखी गयी हेै या कि फील्ड पर जाकर। बहुत से विद्वान पत्रकारों को आजादी के बाद अभिव्यक्ति की आजादी के स्वतंत्रता सेनानियों के रूप में स्वीकारते हैं।
मीडिया हाउसेस के राजनीति की तरह एक लाभ प्रद बिजनेस की तरह चलाने की त्रासदी को देखकर, समझकर उनकी इस बात से मैं कभी भी पूरी तरह सहमत नहीं हो पाया पर राष्ट्रीय स्तर केे मुद्दों,घटनाओं व संसद से जुड़े घटनाक्रम से जुड़ी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की अपेक्षा मुझे उन पत्रकारों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है, जो अपने गांव, नगर के, नगरपालिका, ग्राम पंचायत से जुड़े जनहित के मुद्दों पर खबर बनाते हैं। कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता वर्तमान में शेष तीनों खम्बों कार्यपालिका, न्यायपालिका व व्यवस्थापिका को सुपरसीड कर रही हैं। स्वयं को सबसे ऊपर व सर्वश्रेष्ठ मानकर चलने लगी हैं। मुझे ऐसा नहीं लगता। हालांकि कई मामलों में यह तथ्य सही भी लग सकता हैं। पर इस तरह यदि आप पत्रकारिता को परिभाषित करते हैं तो आप आधा सच ही कह रहे हैं। क्योंकि इस तरह तो शेष तीनों स्तंभों को भी परिभाषित किया जा सकता है, अलग-अलग विचार धारा के बुद्धिजीवियों द्वारा। मैं समझता हूं कि वर्तमान पत्रकारिता के स्वरूप पर भविष्य की चुनौतियों के संदर्भ में आज एक खुली बहस की जरूरत है।
अपनी पत्रकारिता में प्रामाणिकता व पारदर्शिता का दावा करने वालों को ऐसी खुली बहस से बचना भी नहीं चाहिए। राजनीति, सार्वजनिक जीवन, ब्यूरोक्रेसी व पत्रकारिता के भी कुछ पाखंड जिस शिद्दत से मैंने अपने 38 वर्ष के व्यक्तिगत अनुभवों में महसूस किया , वैसा प्राय: सभी पत्रकार प्राय: महसूस करते ही होंगे। यह अलग बात है कि सार्वजनिक रूप से इसे बहुत कम लोग ही मुखरता से कह पाते हैं। वहीं
प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कोई पत्रकार किस तरह अपनी खबर को ईमानदार बनाए रख सकता हैं, यह भी आज हम कुछ दिवंगत अग्रज पत्रकारों व कुछ वर्तमान में सक्रिय पत्रकार मित्रों से सीख सकते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ, राजनैतिक, प्रशासनिक व अखबार प्रबंधकों की दखलंदाजी के बावजूद कोई पत्रकार अपनी कलम की ईमानदारी को, पत्रकारिता के मूल्यों को कैसे बचाकर रख सकता हैं, यह विगत वर्ष हरदा के प्रखर प्रहलाद शर्मा ने इटारसी में एक कार्यक्रम में अभिव्यक्त भी किये थे।
उन्होंनें साहित्य की एक विधा व्यंग्य- लेखन को पत्रकारिता की पूरक बताया था। कुल मिलाकर उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों से बताया था कि पत्रकारिता की अदृश्य बंदिशों के बीच किस तरह व्यंग्य आलेख किसी पत्रकार की अभिव्यक्ति की एक कारगर ताकत होते हैं। मैंने अपने विगत 37 वर्ष के पत्रकारिता के जीवन में प्रांरभ से ही अपने ईष्ट की कृपा से व स्वप्रेरणा से ही यह प्रयोग कई बार- बार बार किया, अत: मुझे बहुत खुशी हुई कि चलो अपनी सोच का कोई लेखक/ पत्रकार मिला। सत्य नेपथ्य के शीर्षक से मेरा एक बहुचर्चित दैनिक कालम दरअसल खबरों के पीछे के उस सच पर ही केंद्रित होता था जो अपरिहार्य कारणों से खबरों में बयां नहीं हो पाते थे। विक्रम और वेताल ,खरी खरी, प्रसंग वश आदि शीर्षक के कालम भी इसी प्रयोग के अन्य आयाम रहे। इसी तर्ज पर विगत 3-4 दशकों से कई प्रमुख दैनिकों ने भी अपने अलग अलग कॉलम बनाए हुए हैं। ये कालम देश, प्रदेश, जिले व शहर स्तर की खबरों के पीछे के अदृश्य सच ही बयां करते हैं। आज के कॉलम को एक प्रसंग से विराम देना चाहूंगा , पत्रकारिता के वर्तमान व भविष्य की चुनौतियों के लिए एक संदेश को अभिव्यक्त करने हेतु। न्याय -अन्याय के दो पाटों के बीच पिसते इस देश के आम आदमी की त्रासदी के इस परिदृश्य में मुझे स्मरण हो रहा हैं न्यायशास्त्र के प्रकांड विद्वान आचार्य रंगनाथ जिनका लिखित ग्रंथ न्याय चिंतामणी विश्व भर में प्रख्यात हैं के जीवन का एक प्रसंग। रंगनाथ जी का बाल्यकाल अभावों में बीता। एक गरीब विधवा माँ के पुत्र रंगनाथ जी तब 5 साल के रहे होंगें। अधनंगे बालक से मां ने कहा जा पडु़ोस से आग मांग ला। माचिस या कोई अन्य साधन चूल्हा जलाने का घर में नहीं था। बालक पड़ौसी विद्वान के घर गया जिस पर लक्ष्मी व सरस्वती दोनों की कृपा थी। बालक उसके घर की रसोई में चला गया।
चूल्हा जल रहा था। बालक ने पड़ौसी के नौकर से आग मांगी। नौकर ने देखा कि अधनंगा बालक आग के लिए कोई पात्र लिए बिना आया हैं। उसे क्रोध आया । उसने सबक सिखाने एक बड़े चम्मच से एक जलता कंडा उठा बालक के हाथों में देना चाहा। बालक ने यह देख तत्परता से अपने हाथों से चूल्हें के आसपास फैली राख दोनों हथेलियों पर लगाकर उस जलते कंडे को हाथों में ले लिया। यह दृश्य उस घर का मालिक पड़ौसी विद्वान देख रहा था । वह बालक के पीछे पीछे उसके घर पहुंचा व उसकी माँ से बोला बहन मैने आज कुछ ऐसा देखा हैं कि मैं अब इस बालक को पढ़ाना चाहता हूँ , मां तो हतप्रभ थी क्या बोलती। वही बालक आगे चलकर न्याय शास्त्र का प्रकांड विद्वान रंगनाथ बना। यह प्रसंग पत्रकारिता के संवाहकों को यह संदेश देता हैं कि प्रतिकूल परिस्थितियों की आग को झेलने के लिए आपको अपनी बुद्धि, विवेक व संयम की राख अपने हाथों में लगा लेनी चाहिए। फिर आपके हाथ कभी नहीं जल पायेंगें। कोरोना संक्रमण के आपदा काल में ही कितने पत्रकार साथियों ने सरकारी प्रेस नोट की जमीनी हकीकत जानने व सच्चाई को मुखरता से प्रकाशित करने का प्रयास किया? हम लोग प्रायः राजनीति, ब्यूरोक्रेसी, कोरोना आपदा काल में निजी व सरकारी क्षेत्र की त्रासदियों को मुखरता से अभिव्यक्त करते हुए, अपनी पत्रकारिता की बिरादरी के क्रियाकलापों पर भी नज़र रखें व यदि कोई मीडिया हाउस या साथी अपनी स्वार्थ लोलुपता से पत्रकारिता को शर्मिंदा करने पर आमादा हैं तो उनको भी बेनकाब करना चाहिए, तभी हम भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के एक अंश बनने के पात्र होंगे। किसी शायर का एक शेर तो नहीं पर उसका भावार्थ मुझे याद आ रहा है जिसके अनुसार बंदूक से ज्यादा ताकत पत्रकार की कलम व कैमरे में होती है, बशर्ते कि वह कहीं गिरवी नहीं रखे हों। जय श्री कृष्ण।
चंद्रकांत अग्रवाल (Chandrakant Agrawal)
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