– बाबूलाल दाहिया :
लोक का अपना अलग ही रंग ढंग होता है। कोई भी विदेशी वस्तु आये तो उसका वहां का नाम भले ही कुछ भी रहा हो किन्तु लोक उसके गुण धर्मों के अनुसार ही उसका नाम करण कर लेता है? उदाहरण के लिए 50 के दशक में हमारे देश में आइपोमिया नामक एक पौधा आयातित किया गया। लेकिन लोगों ने अनुभव किया कि यह जंगल, पहाड़, नदी, खेत, मैदान, दल दल जहां भी फैंक दिया हर जगह उग आता है? इसलिए उसका नाम उसके स्वभाव के अनुरूप बेशरम रख लिया।
इस के पहले भी मोटर साइकिल को निरन्तर फट-फट की आवाज निकालने के कारण गांव के लोगों ने उसका नाम फटफटिया रख दिया था और मजे की बात तो यह है कि, सयाने लोग आज भी उसे फटफटिया ही कहते हैं। शुरू-शुरू में जब देश में सोयाबीन आया तो किसानों ने उसे हाथों हाथ लिया। ऊंचे खेतों की कौन कहे, उसे उन बड़े-बड़े बांधों तक को फोड़कर बोने लगे, जो जुलाई से अक्टूबर तक तालाब की तरह भरे रहकर गांव का जल स्तर बढ़ाने में सहायक थे। इधर उसने खेतों के रकबे में विस्तार करते कोदों, ज्वार, अरहर, तिल, मूंग, उड़द, मक्का आदि 10-12 अनाजों की भी बलि ले ली और उससे जो जल स्तर घटा व खेतों ने अपनी उर्वरा शक्ति खोई वह अलग। पर सोयाबीन के साथ अब एक कलंक और जुड़ गया है कि जहां-जहां किसानों की आत्म हत्याएं हुई वह अमूमन सोयाबीन और उसके बाद उसी खेत में बोये जाने वाले गेहं के क्षेत्र में ही हो रही हैं। क्योंकि सोयाबीन पूर्णत: व्यावसायिक फसल है जिसका किसान के घर में कोई उपयोग नहीं है। इसकी खेती में हल, बैल, गाय, गोबर, हलवाहा, श्रमिक किसी का कोई स्थान नहीं है। पूरा पूंजी का खेल है।
पहले महंगे दामों पर बीज, फिर रासायनिक उर्वरक, फिर जुताई में डीजल या किराए के रूप में नगदी खर्च। फिर कीटनाशक, नीदानाशक आदि जहर में नगद ही खर्च। पर फसल आ जाने पर कटाई मिजाई भी पंजाब के हार्वेस्टरों को एक मुश्त राशि देकर। अब यदि खुदा न खास्ता किसी कारण कोई दैवी प्रकोप हो गया और वांछित फसल न मिली तो कर्ज में डूबे किसान के सामने उबरने का कोई रास्ता ही नहीं बचता। इसलिए यदि किसान इसे भष्मासुर य सत्यानासी कहना शुरू कर दिए हैं तो यह कोई अनुचित नहीं कहा जायेगा?
– बाबूलाल दाहिया (Babulal Dahiya), सतना मप्र
लेखक पद्मश्री, बघेली भाषा के कवि हैं।