- अखिलेश शुक्ला, सेवा निवृत्त प्राचार्य, लेखक, ब्लॉगर
हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दौर की बात हो और ओमकार प्रसाद नैयर का नाम न आए, यह संभव नहीं। एक ऐसा संगीतकार जिसने पारंपरिक रागों के दायरे से बाहर निकलकर पश्चिमी और पंजाबी लोक संगीत की मस्ती को हिंदी फिल्मों के गानों में भर दिया। जिसने न केवल धुनों से, बल्कि अपने जिद्दी, निरंकुश और बेबाक स्वभाव से भी संगीत जगत को चुनौती दी। उनकी कहानी सिर्फ संगीत की नहीं, एक साहसी विद्रोह की भी है, जो आज भी हर रचनात्मक व्यक्ति को प्रेरणा देती है।
वह पहला मिलियनेयर संगीतकार
1950 का दशक था। भारत आज़ाद हुआ अभी कुछ ही साल हुए थे। ऐसे में एक संगीतकार ने एक फिल्म के लिए संगीत देने की फीस 1 लाख रुपये रखी। यह उस ज़माने के लिए एक अकल्पनीय रकम थी। वह संगीतकार थे ओ.पी. नैयर। उन्होंने न केवल यह फीस वसूली, बल्कि इसके बाद वे बॉलीवुड के “सबसे महंगे संगीतकार” बन गए। यह सिर्फ पैसों का मामला नहीं था, बल्कि एक कलाकार के अपने कौशल के प्रति अटूट विश्वास और स्वाभिमान का प्रतीक था।
लगातार हिटों का जादू और ‘नया दौर’ की कामयाबी
ओ.पी. नैयर ने साबित किया कि वे कोई ‘वन हिट वंडर’ नहीं हैं। ‘आर-पार’, ‘सी.आई.डी.’, ‘तुमसा नहीं देखा’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’, ‘नया दौर’, ‘एक मुसाफिर एक हसीना’ जैसी फिल्मों के जरिए उन्होंने लगातार संगीत की दुनिया में तहलका मचाया। इनमें से 1957 की ‘नया दौर’ उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। इस फिल्म के गाने जैसे “मांग के साथ तुम्हारा”, “उड़े जब जब जुल्फें तेरी” आज भी शिद्दत से सुने जाते हैं। ‘नया दौर’ का संगीत इस बात का प्रमाण था कि लोक संगीत की जड़ों से जुड़ी धुनें भी बड़े पर्दे पर धूम मचा सकती हैं।
विवादों का साया: ‘बागी’ संगीतकार की छवि
ओ.पी. नैयर की जितनी चर्चा उनके संगीत के लिए होती थी, उतनी ही उनके ज़िद्दी, एकांतप्रिय और दबंग स्वभाव के लिए भी। उन्हें घमंडी और निरंकुश कहा जाता था। पत्रकार उनके खिलाफ रहते थे और अक्सर उन्हें ‘बागी संगीतकार’ के तौर पर पेश करते। सबसे बड़ा झटका तब लगा जब आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) ने उनके संगीत को ‘बहुत आधुनिक’ और ‘पाश्चात्य’ करार देते हुए उस पर प्रतिबंध लगा दिया। लंबे समय तक उनके गाने रेडियो पर नहीं बजाए गए।
लेकिन नैयर साहब के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। उनका जवाब था – अपना काम जारी रखना। दिलचस्प बात यह है कि जब भारत में उनके गाने बैन थे, तब श्रीलंका का रेडियो उनके नए गानों का प्रसारण करता था। जल्द ही, अंग्रेजी अखबारों ने उनकी प्रशंसा में लेख लिखे और उन्हें “हिंदी संगीत का उस्ताद” करार दिया, और वह भी तब जब वे काफी युवा थे। यह घटना साबित करती है कि सच्ची कला किसी भी प्रतिबंध से ऊपर होती है।
गायक-गायिकाओं के साथ अद्भुत साझेदारी
ओ.पी. नैयर ने कलाकारों को चुनने और उनकी प्रतिभा को निखारने में अद्वितीय महारत रखी थी।
आशा भोंसले: एक जादुई जोड़ी: उनकी सबसे प्रसिद्ध जोड़ी आशा भोंसले के साथ रही। उन दोनों ने लगभग 70 फिल्मों में एक साथ काम किया। कहा जाता है कि नैयर साहब ने ही आशा की आवाज़ में छुपे अनोखे अंदाज़ को पहचाना और उभारा। उनकी धुनें आशा की आवाज़ में इस कदर घुल-मिल जाती थीं कि लगता था जैसे ये गाने सिर्फ उन्हीं के लिए बने हैं। “आजा, आजा मैं हूं प्यार तेरा”, “ऐना है बहारें, फूलों का समां है” जैसे गाने इस जोड़ी की अमर देन हैं।
मोहम्मद रफी से मधुर संगीत और फिर अलगाव: रफी साहब के साथ भी उन्होंने कई यादगार गाने दिए, जैसे “ये दिल और उनकी निगाहों के साये”, “दिल का सूना साज़ है” आदि। हालांकि, बाद में कुछ मतभेदों के चलते उनका साथ टूट गया।
महेंद्र कपूर: विश्वास और नई आवाज़: रफी से अलग होने के बाद ओ.पी. नैयर ने महेंद्र कपूर को अपना मुख्य गायक बनाया। महेंद्र कपूर ने नैयर साहब के लिए दिल से गाया और उनकी आवाज़ ने ओ.पी. के संगीत में भावनाओं की एक नई गहराई पैदा की। “चल अकेला, चल अकेला” जैसे गंभीर गाने से लेकर “कोई सोचे तो चले लाखों” जैसे उत्साह भरे गीत तक, उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया।
लता मंगेशकर के साथ न बजा सुर: यह बॉलीवुड के सबसे रोचक और चर्चित विषयों में से एक रहा कि ओ.पी. नैयर ने लता मंगेशकर के साथ कभी काम क्यों नहीं किया। नैयर साहब का स्पष्ट तर्क था कि उनकी धुनें लता जी की आवाज़ से “मेल” नहीं खातीं। वे मानते थे कि उनकी धुनों में जो पंजाबी मस्ती और ठेठपन है, उसे आशा भोंसले की आवाज़ ही बेहतर अभिव्यक्त कर सकती है। यह फैसला उनकी कलात्मक स्पष्टता और अपनी धुन की अखंडता के प्रति समर्पण को दर्शाता है।
प्रतिभा को पहचानने का हुनर
ओ.पी. नैयर का व्यक्तित्व विरोधाभासों से भरा था। एक तरफ जहां उन्हें दबंग कहा जाता था, वहीं नए और संघर्षरत गायकों के प्रति वे अत्यंत उदार और सहायक थे। उन्होंने कई नई प्रतिभाओं को मौका दिया और उन्हें स्थापित किया। यह उनके व्यक्तित्व के दूसरे, संवेदनशील पहलू को दिखाता है।
निष्कर्ष: एक अमिट विरासत
ओ.पी. नैयर सिर्फ एक संगीतकार नहीं थे; वे एक क्रांतिकारी थे। उन्होंने हिंदी फिल्म संगीत को राग-आधारित पारंपरिकता के बंधन से आज़ाद कराया और उसमें लोक संगीत की ताज़गी और पश्चिमी संगीत का रंग भरा। उन्होंने सिखाया कि कला में सफलता के लिए दूसरों की राय की नहीं, बल्कि अपने आत्मविश्वास की जरूरत होती है। प्रतिबंध, आलोचना और विवादों के बावजूद उन्होंने कभी अपना रास्ता नहीं बदला।
आज भी, जब भी कोई पुराने गानों के प्लेलिस्ट में “ये हवा ये रात ये चांदनी”, “जाने कहां मेरा जिगर गया जी”, “बुड्ढा मिल गया” या “प्रेम कहानी है तेरी मेरी” जैसे गाने बजते हैं, तो ओ.पी. नैयर का वह जोश, वह मस्ती और वह विद्रोही स्पिरिट हमारे कानों में गूंज उठता है। उनकी विरासत हमें यह याद दिलाती है कि सच्ची रचनात्मकता नियमों से नहीं, स्वतंत्र सोच और अपने सुरों पर अडिग विश्वास से पैदा होती है। वे सदा हमारे बीच अपने अमर सुरों के माध्यम से जीवित रहेंगे।








