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… और कितने देवदास ?

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– विनोद कुशवाहा
बांग्ला भाषा के सुप्रसिद्ब कथाकार, उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की अविस्मरणी कृति ‘ देवदास ‘ आज भी उतनी ही रुचि से पढ़ी जाती है । देवदास के किरदार से वर्तमान युवा पीढ़ी कितनी सहमत है ये एक अलग प्रश्न है। वैसे शरत दा ने कभी ‘ देवदास ‘ को अपनी उत्कृष्ट कृतियों में शामिल नहीं किया। हालांकि पार्वती और चन्द्रमुखी के किरदार उन्होंने अपने आसपास से ही लिये थे। पारो और कोई नहीं उनके बचपन की मित्र धीरू थी जो उनके स्कूल की सहपाठी भी रही और चंद्रमुखी मसूरगंज , भागलपुर की कालीदासी थी जिसे चाँद जैसे मुख के कारण चंद्रमुखी नाम दिया गया। जब शरतचन्द्र के बहुचर्चित उपन्यास ‘ देवदास ‘ पर फिल्म बनाये जाने की बात सामने आई तो वे इसके लिए राजी नहीं हुए क्योंकि उन्हें इस बात का भरोसा कम था कि उनके उपन्यास और उसके किरदारों के साथ न्याय हो पायेगा। जैसे – तैसे शरत दा अन्ततः मान गए। कहा जाता है कि बावजूद इसके वे शुरुआत् में अपनी तसल्ली के लिए सेट पर आते भी थे। जब उन्हें पूर्ण रूप से ये विश्वास हो गया कि उपन्यास की मूल भावना को फिल्म में बरकरार रखा जाएगा तब शरतचन्द्र निश्चिन्त हो गए । हां इतना अवश्य है कि संजय लीला भंसाली की ‘देवदास’ अगर शरत दा देखते तो शायद खुश भी होते और दुखी भी । दुखी इसलिये क्योंकि उनके मूल उपन्यास में पारो और चंद्रमुखी का कभी आमना – सामना नहीं हुआ लेकिन संजय लीला भंसाली की ‘ देवदास ‘ में उपन्यास के दोनों पात्र न केवल मिलते हैं बल्कि उन्होंने साथ में एक भावपूर्ण नृत्य भी किया है। फिर संजय भंसाली ने इस नृत्य को बेहद खूबसूरती से फिल्माया भी है। पारो और चंद्रमुखी के बीच संवाद फिल्म का एक अहम हिस्सा हैं।
100 वर्ष पहले 1917 में प्रकाशित शरतचन्द्र चटोपाध्याय की कृति ‘ देवदास ‘ इतने वर्ष गुजरने के बाद भी उतनी ही लोकप्रिय है । बाद में सुप्रसिद्ब बांग्ला कथाकार विमल मित्र ने भी ‘ एक और देवदास ‘ उपन्यास लिखा परन्तु शरतचन्द्र के उपन्यास से उसका कोई साम्य नहीं ।
इन सब मिथकों से परे शरत दा के ‘ देवदास ‘ को कितनी ही भाषाओं में परदे पर उतारा गया । 1928 में बनी मूक फिल्मों के दौर में पहली बार नरेश मित्रा के निर्देशन में ‘ देवदास ‘ बनी । इसमें फणी वर्मा ने देवदास का किरदार निभाया था । फिल्म में नरेश मित्रा ने स्वयं अभिनय भी किया था । तारक बाला ने पारो का और पारुल बाला ने चंद्रमुखी का रोल अदा किया । इस फिल्म की शूटिंग कोलकाता में ही की गई थी । यह फिल्म फरवरी में रिलीज की गई ।
1935 में पी सी बरुआ ने बांग्ला भाषा में ‘देवदास’ बनाई । उसमें देवदास का चरित्र उन्होंने ही निभाया । 1936 में बरुआ ने एक बार फिर के एल सहगल को लेकर ‘ देवदास ‘ बनाई । इस फ़िल्म के रिलीज होते ही के एल सहगल रातों रात स्टार बन गए। फिल्म में पारो के किरदार में जमुना बरुआ ने प्रभावशाली अभिनय किया तो राजकुमारी ने भी चंद्रमुखी का चरित्र जीवंत कर दिया । 1936 में पी सी बरुआ ने इसे हिंदी में भी रिलीज किया।
बरुआ के सिनेमेटोग्राफर रहे विमल राय ने 20 साल बाद फिर एक बार 1955 में दिलीप कुमार के साथ ‘ देवदास ‘ बनाई । दिलीप साहब तो जैसे इस किरदार के लिये ही बने थे। उन्होंने ‘ देवदास ‘ के रोल में बेमिसाल अभिनय किया। उनकी सिने यात्रा में ‘ देवदास ‘ मील का पत्थर साबित हुई । जैसे आज भी राजकपूर को ‘आवारा’ , देवानंद को ‘ गाइड ‘ और राजेश खन्ना को ‘आनंद’ के लिये याद किया जाता है वैसे ही इतने सालों के बाद भी दिलीप कुमार को ‘ देवदास ‘ के लिये बड़ी शिद्दत से याद किया जाता है। देखा जाए तो सही मायने में दिलीप साहब इस फिल्म के बाद ही ‘ ट्रेजेडी किंग ‘ कहलाये। ‘ देवदास ‘ के बाद उन्हें इस किस्म के कई रोल ऑफर किये गए। उनमें से कुछ फिल्में उन्होंने कीं भी। हालात् ये हो गए कि उन्हें इन किरदारों से बाहर आने के लिये मनोचिकित्सक का सहारा लेना पड़। सच कहा जाये तो उन्हें ‘ ट्रेजेडी किंग ‘ की अपनी छवि को तोड़ना भी था। इसी वजह से दिलीप कुमार को कुछ कॉमेडी रोल करने पड़। ‘ कोहिनूर ‘ ऐसी ही एक फिल्म थी। खैर, दिलीप कुमार की पारो सुचित्रा सेन थीं तो वैजयंती माला उनकी चंद्रमुखी बनीं। इस फिल्म को क्लासिक फिल्मों में शुमार किया जाता है। 2002 में संजय लीला भंसाली ने शाहरुख खान , ऐश्वर्या राय , माधुरी दीक्षित के साथ ‘ देवदास ‘ बनाने का फिर जोखिम उठाया। उन्होंने पहले ‘ देवदास ‘ के रोल के लिये अजय देवांगन और सलमान खान के नाम पर भी विचार किया था क्योंकि दोनों ही अभिनेता उनके निर्देशन में ‘ हम दिल दे चुके सनम ‘ में काम कर चुके थ। आज भी संजय भंसाली इस फिल्म को ही अपनी पसंदीदा फिल्म मानते है। हालांकि बाद में संजय लीला भंसाली ने अपना इरादा बदल दिया और अंततः ‘ देवदास ‘ के रोल के लिए शाहरुख उनकी पहली पसन्द बने। इसका एकमात्र कारण शाहरूख खान की भावपूर्ण आंखें रहीं। संजय भंसाली ने इन आँखों में ही अपना ‘ देवदास ‘ देख। शाहरुख के पास डेट्स की समस्या थी लेकिन संजय ने स्पष्ट कहा कि वे अपने देवदास का इंतज़ार करेंगे। आखिरकार शाहरुख खान को इस फिल्म के लिए समय निकालना पड़ा । संजय लीला भंसाली ने मुम्बई में ही कोलकाता का सेट लगाय। भरत शाह फिल्म के निर्माता थे तो सब सम्भव था। जब ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में शाहरुख बतौर मेहमान हॉट सीट पर बैठे तब अमिताभ बच्चन भी ‘ देवदास ‘ के भव्य सेट की तारीफ करना नहीं भूले। शाहरूख खान ने बेहद सहजता और सरलता के साथ जवाब देते हुए कहा ‘ सर हम छोटे कलाकार हैं और छोटे कलाकारों के लिये हमेशा बड़े सेट ही लगाये जाते है। ‘ इस पर अमिताभ ने कहा- ‘नहीं । जितने भव्य ‘ देवदास ‘ के सेट हैं आप उतने ही बड़े कलाकार भी हैं। जहां तक मुझे जानकारी है इस सेट को जिस कलाकार ने बनाया उनका सम्बन्ध भोपाल से है। इस फिल्म का सबसे उजला पक्ष उसके संवाद थे। कुछ संवाद तो संजय भंसाली ने विमल राय की ‘देवदास’ से जस के तस फिल्म में रख। हां शाहरूख ने जरूर इन संवादों को अपनी ही शैली में दोहराया। उन्होंने फिल्म के किसी हिस्से में भी दिलीप साहब की नकल नहीं की। संभवतः शाहरूख खान ने दिलीप कुमार की फिल्म ‘देवदास’ को इसलिये ही पहले देखा भी नही। चंद्रमुखी के कोठे पर ‘ मार डाला ‘ मुजरे के बीच शाहरुख को एक दृश्य में शराब पीना था जबकि वास्तविक जीवन में शाहरुख खान शराब नहीं पीते है। दृश्य में रियलिटी लाने के लिये उन्होंने जीवन में पहली बार शराब को हाथ लगाया। पहली बार उसका स्वाद चखा । सेट पर मौजूद किरण खेर की जानकारी में ये सब कुछ नहीं था । उन्हें तो बस इतनी ही जानकारी थी कि शाहरुख शराब छूते भी नहीं हैं लेकिन जब उन्होंने शाहरुख खान को नशे की हालत में देखा तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। किरण खेर नाराज भी हुईं मगर जब उन्हें मालूम हुआ कि दृश्य में वास्तविकता लाने के लिये शाहरुख ने ये हिम्मत की है तो वे भी उनकी तारीफ किए बिना नहीं रह सकीं । संजय लीला भंसाली की ‘ देवदास ‘ में इस्माईल दरबार का संगीत भी उत्कृष्ट कोटि का था। संजय भंसाली स्वयं भी संगीत का ज्ञान रखते हैं। ‘ देवदास ‘ के गीत डॉ नुसरत बद्र ने भी लिखे जो जाने माने शायर बशीर बद्र के साहबजादे हैं। मध्यप्रदेश आने के बाद डॉ बशीर बद्र ने भी भोपाल को ही अपना आशियाना बनाया था। भोपाल में वे उर्दू अकादमी से जुड़े हुए है। अफसोस कि बशीर बद्र साहब इन दिनों बेहद अस्वस्थ हैं। आईये हम सब उनकी बेहतर सेहत के लिये दुआ करते हैं। खैर, इन सब कारणों के चलते ‘ देवदास ‘ को अनेक श्रेणियों में एवार्ड मिले।
उधर कोलकाता में 2002 में ही बांग्ला भाषा में भी ‘ देवदास ‘ फिल्म बन रही थ। उसमें अभिनेता विश्वजीत के पुत्र प्रसेनजीत देवदास का किरदार निभा रहे थे। अर्पिता पाल ने पारो तो इंद्राणी हालदार ने चंद्रमुखी का किरदार अदा किया।
आगे चलकर अनुराग कश्यप ने भी ‘ देव डी ‘ बना डाली। उनकी फिल्म पंजाब की पृष्ठ भूमि पर अभय देओल के साथ बनी। ये अपने तरह की अलग फिल्म थी। खबर है कि सुधीर मिश्रा ने भी ‘देवदास’ के उलट ‘ दासदेव ‘ का निर्माण किया है। वे अप्रेल के आसपास इस फिल्म को रिलीज करने वाले हैं । इसमें आधुनिक ‘ देवदास ‘ का चरित्र राहुल भट्ट ने निभाया है । पारो का रोल ऋचा चड्डा और चंद्रमुखी का किरदार अदिति राव के हिस्से में आया। सुधीर मिश्रा ने ‘दासदेव’ को राजनीतिक तड़के के साथ प्रस्तुत किया है हां कभी गुलज़ार साहब ने भी ‘ देवदास ‘ पर फिल्म बनाने का विचार किया था । उनकी फिल्म यदि बनती तो उसमें ‘ देवदास ‘ धर्मेन्द्र रहते। पारो का चरित्र हेमामालिनी निभातीं और चंद्रमुखी के किरदार में शर्मिला टैगोर नज़र आतीं अफसोस कि ये फिल्म बनी नहीं । 1978 में प्रकाश मेहरा द्वारा निर्देशित ‘ मुकद्दर का सिकन्दर ‘ भी एक तरह से ‘ देवदास ‘ का ही आधुनिक संस्करण थी। मैं अमिताभ बच्चन , राखी गुलजार , रेखा को क्रमश देवदास , पारो , चंद्रमुखी के रूप में ही देखता हूं ।
वैसे देखा जाये तो अब तक कुल मिलाकर लगभग 20 बार ‘ देवदास ‘ को रजतपट पर उतारा जा चुका है। जिसमें से 5 बार हिंदी भाषा में , 5 बार अंग्रेजी , असमिया , मलयालम , तमिल , तेलगु आदि भाषाओं में तो 5 बार बांग्ला भाषा में ‘ देवदास ‘ बनी है। इतना ही नहीं 1965 में पाकिस्तान में उर्दू भाषा में भी ‘ देवदास ‘ फिल्म का निर्माण हुआ था। वहां भी 2 बार ये फिल्म बनाई गई। यहां तक कि बांग्लादेश में भी 2 बार बांग्ला भाषा में शरतचन्द्र के ‘ देवदास ‘ पर फिल्म बनी। शरतचन्द्र चटोपाध्याय की इस कालजयी कृति पर आगे भी फिल्में बनती रहेंगीं और देवदास , पारो , चंद्रमुखी का जादू यूं ही बरकरार रहेगा। साथ ही कायम रहेगा उनके कथानक की नायिकाओं का जादू जो भले ही निचले तबके से आतीं थीं लेकिन कम पढ़ीं लिखी होने तथा विवादास्पद चरित्र होने के बाद भी उनका वजूद बार – बार समाज को चुनौती देता था । अपनी बुद्धि से वे सभ्रांत कही जाने वाली भद्र व सुशिक्षित महिलाओं को भी उनकी हैसियत दिखा देतीं थीं। उनका प्रेम और उनकी स्नेहशीलता ही उनकी ताकत होती थी। नायक के प्रति उनका समर्पण उन्हें अविस्मरणीय बनाता है। राजलक्ष्मी , चंद्रमुखी को याद करते हुए शरत् दा को विनम्र श्रद्धांजलि।

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