वक्त है मानसून का, बरस रहीं चिंताएं

Post by: Manju Thakur

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संपादक की पोस्ट वक्त मानसून का है और आसमान से पानी की जगह फिलहाल चिंताएं बरस रही हैं। हालांकि अभी उम्मीद के बादल भी मंडरा रहे हैं और नाउम्मीद की बयार चली नहीं हैं इसलिए कहा जा सकता है कि अभी पूरी तरह से हताश होने का वक्त नहीं है। लेकिन मानसून की जो प्रगति है, वह आशंकाएं तो पैदा कर ही रही है। अपने निर्धारित वक्त से करीब आठ दिन देरी से केरल तट पर दस्तक देने वाला मानसूर वायु चक्रवात के कारण धीमी चाल चलने लगा है। जून का लगभग पूरा माह बीतने को है, लेकिन मानसून ने अब तक महज एक झलक दिखाकर लोगों को दीवाना किया और फिर लापता हो गया। मौसम विभाग उसकी खोज में हाथ पैर मार रहा है और वह भी सही अंदाजे तक नहीं पहुंच पा रहा है, क्योंकि मानसून में ठहराव की जगह बंजारापन दिखाई दे रहा है।
एक वक्त था जब जून का मध्य आते-आते मानसून के जो बादल आधे से ज्यादा भारत पर अच्छादित हो जाते थे, वे अभी तक दक्षिणी राज्यों को ही पूरी तरह भिगो नहीं पाए हैं। हालात इतने खराब हो गये हैं कि तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में जल संकट खड़ा हो गया है। हालांकि नाउम्मीदी अभी भी नहीं है। क्योंकि ऐसा नहीं है कि मानसून लेट लतीफ हुआ और बारिश नहीं हुई हुई हो। ऐसा कई बार हुआ है, जब मानसून काफी देरी से पहुंचा, लेकिन लेकिन पूरे देश में सामान्य या उससे ज्यादा बारिश हुई। इस कारण से भी अभी उम्मीद छोडऩे का वक्त नहीं आया है, लेकिन इस साल क्योंकि पहले से ही कुछ लोग मानसून के कमजोर रहने की आशंकाएं व्यक्त कर रहे थे, इसलिए अभी तक जो देरी हुई है, उसने चिंता बढ़ा दी है। हालांकि मौसम विभाग ने मानसून के सामान्य रहने की भविष्यवाणी की थी और वह अभी भी इसी पर टिका हुआ है।
यह हो सकता है कि मानसून देर से आए, लेकिन दुरुस्त बरसे। हालांकि बारिश इस बार सामान्य से कम होगी, इसे अभी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता, लेकिन चिंता का एक बड़ा कारण यह है कि किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए कार्ययोजना कहीं नहीं दिख रही, जबकि ग्लोबल वार्मिंग के मौजूदा दौर में आपात कार्ययोजनाओं का होना बहुत जरूरी है, मानसून चाहे कम हो या ज्यादा। मानसून की देरी से न सिर्फ पीने के पानी का संकट भयावह हो जाएगा बल्कि मानसून आधारित देश की कृषि व्यवस्था भी लडख़ड़ा जाएगी, इससे बाजार पर भी काफी फर्क पडऩे वाला है। और इन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि देश की सरकार ने इस तरफ अब तक चिंता नहीं दिखाई है। सामाजिक संगठन या जिम्मेदार नागरिकों ने अब तक प्रकृति के प्रति जितना प्रेम दिखाया है, उन लोगों को सरकार की ओर से प्रोत्साहन या संसाधन के रूप में मदद मिल जाती तो निश्चित मानो, अब तक इस देश का पर्यावरण के क्षेत्र में काफी कुछ नक्शा बदल जाता। लेकिन, शासकीय मशीनरी को बोतल बंद पानी पीने की और वातानुकूलित कक्षों में रहने की आदत हो गया है, उनको एसी रूम या एसी गाडिय़ों ने बाहर आकर केवल कुछ देर की जिंदगी जीनी होती है, सच्चाई से वे पूरी तरह से रूबरू नहीं हो पाते। इससे अलग उनकी एक जिंदगी और है। वह है, अफसरशाही का। अपने मातहतों को आदेश देकर फिर से एसी रूम में घुस जाने की जिंदगी।
अब भी मायूसी आपके लिए जीवन का बड़ा खतरा साबित हो सकती है। प्रशासन की अनदेखी को पीछे छोड़ते हुए अपने जीवन के लिए हमें ही चिंता करनी होगी। अपनी तो लगभग कट गयी, जितनी है, उतनी भी इसलिए कट जाएगी, क्योंकि हालात इतने नहीं बिगड़े हैं कि हम बची हुई सांसें भी पूरी नहीं कर सकें। लेकिन, एक चिंता अवश्य करनी होगी। जैसे बच्चों के भविष्य गढऩे के लिए हम शिक्षित, संस्कारित और आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने के लिए मेहनत करते हैं, अब उसमें भविष्य में शुद्ध हवा, पर्याप्त पानी और स्वस्थ खानपान की चिंता भी उसमें जोड़ लीजिए। यानी अपनी आने वाली नस्लों को यदि बेहतर जीवन देना है तो केवल पैसा और नौकरी ही सबकुछ नहीं। उपरोक्त बातों की चिंता भी करनी होगी।
तो उठिए, जुट जाईऐ, अपने अतिरिक्त प्रयासों के साथ। क्योंकि आर्थिक तंत्र मजबूत बनाने के लिए तो आप लगे ही हैं, अब बेहतर भविष्य की चिंताओं में बेहतर वातावरण को भी अतिरिक्त प्रयास के रूप में शामिल कीजिए।

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