इटारसी। संयम’ का शाब्दिक अर्थ ’सम्’ ’यम’= संयम अर्थात् सम्यक रूप से ’यम’ अर्थात् नियंत्रण करना संयम है। हम कह सकते हैं जैसे बिना ब्रेक के गाड़ी बेकार है ठीक उसी प्रकार बिना संयम के अमूल्य मनुष्य भव बेकार है। इसीलिये आगम में संयम का पालन मुनिराज और श्रावक दोनों के लिये वर्णित है। यह बात पर्यूषण पर्व के छटवे दिन उत्तम संयम धर्म के विषय में बताते हुए पंडित आषीष शास्त्री ने कही।
उन्होंने कहा कि निश्चय से तो रागादि विकारों में ’प्रवृत्ति’ पर नियंत्रण रखना ही सच्चा संयम है। और ’व्यवहार’ से ’पंचइन्द्रियों’ के विषयों में ’प्रवर्तन’ पर नियंत्रण रखना और ’षट्काय’ के ’जीवों की रक्षा’ करना ही संयम है। ’छह काय- (’पृथ्वी’, ’जल’, ’अग्नि’, ’वायु’, ’वनस्पति’ तथा ’त्रस’ {’दोइन्द्रीय, तीनिन्द्रीय, चारिन्द्रीय, पंचेन्द्रिय})’ के जीवों की रक्षा करना चाहिए तथा ’पंचेन्द्रिय’ और ’मन को वश ( ’काबू’ ) में करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।” “इस प्रकार, अपने संयम धर्म की रक्षा करना चाहिए क्योंकि इस जग में हमारे उपयोग (’ध्यान’, जजमदजपवद’) लूटने के लिये कई ’विषय’ रूपी चोर घूम रहे हैं।
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बिना संयम अमूल्य मनुष्य भव बेकार: आशीष शास्त्री

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