नैमिषारण्य में नाभि गया का महत्व,पिंड दान करने से पितरों को मिलती है मुक्ति

Post by: Rohit Nage

Importance of Nabhi Gaya in Naimisharanya, ancestors get salvation by donating Pind.

सीतापुर, 21 सितंबर (हि.स.)। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस में तीरथ वर नैमिष विख्याता, अति पुनीत साधक सिधि दाता। इस चौपाई के वर्णन से नैमिषारण्य के महत्व को समझा जा सकता है। वेदों और पुराणों की रचना स्थली, 33 करोड़ देवी-देवताओं की वासस्थली और 88 हजार ऋषियों-मुनियों की तपस्थली नैमिषारण्य तीर्थ को सभी तीर्थों में सबसे पुनीत माना जाता है। यहां पर प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन पूजन करने आते हैं। यही नहीं यह तीर्थ अनेक धार्मिक कार्यों के लिए जाना जाता, जिसमें पितृपक्ष में इस तीर्थ का अलग ही महत्व होता है।

इसकी मान्यता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां पितृ पक्ष में श्रीलंका, नेपाल और भूटान के अलावा देश के चंडीगढ़, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश के कई जिलों आदि से यहां आकर लोग अपने पितरों को मोक्ष दिलाने के लिए पिंडदान अथवा श्राद्ध पूजन करने आते हैं।

पितरों के मोक्ष के लिए पुराणों में है नैमिषारण्य का वर्णन

स्कंद पुराण में पितृकार्यों के लिए तीन ही तीर्थ प्रधान माने गए हैं, जिनमें एक बद्रीनाथ, दूसरा बिहार का गया और तीसरा उप्र का नैमिषारण्य है जो पितरों के तर्पण के लिए विशेष महत्व रखते हैं। पितरों की तृप्ति के लिए नैमिषारण्य तीर्थ को प्रधान माना गया हैं क्योंकि जो व्यक्ति धनाभाव के कारण अपने पितरों के कार्य के लिए बद्रीनाथ, गया नहीं जा पाते वह सिर्फ नैमिषारण्य में ही पिंडदान करने से पितरों को मुक्ति दिला पाते हैं। नैमिषारण्य तीर्थ में जो व्यक्ति अपने पितरों के नाम से पिंडदान करता है मान्यता है कि उनके पित्र बैकुण्ठधाम जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में जो व्यक्ति ब्राह्मणों एवं गरीबों को भोजन कराता और उनको दान देता उसका फल उनके पितरों को मिलता है।

पितरों को लेकर शास्त्रों और पुराणों में वर्णित कथा

मां ललिता देवी मंदिर के प्रधान पुजारी एवं कालीपीठ के पीठाधीश्वर गोपाल शास्त्री ने बताया कि पौराणिक ग्रंथों में तीन ही गया (पितृ मोक्ष स्थान) बताई गईं हैं। नैमिषारण्य में नाभि गया, बद्रीनाथ में कपाल गया, बिहार में चरण गया। नैमिषारण्य में पितरों का कार्य करने वालों को देवता और ऋषिगण आशीर्वाद प्रदान करते हैं। उन्होंने बताया कि सतयुग में आताताई राक्षस गयासुर नाम का दैत्य हुआ जो अपनी आसुरी शक्तियों से देवताओं और ऋषियों को काफी परेशान किया करता था। तब उनकी समस्या को दूर करने के लिए भगवान विष्णु ने उससे कई वर्षों तक युद्ध लड़ा। जिससे भगवान नारायण उस पर प्रसन्न हो गए और उसे एक वरदान मांगने के लिए कहा। जिस पर गयासुर ने वरदान मांगा की आने वाले समय मे पितरों की मुक्ति में मेरे नाम का विशेष महत्व हो। तब भगवान ने अपने सुदर्शनचक्र से उसका वध कर दिया और उसके शरीर के तीन भाग किए। उसका सिर बद्रीनाथ में गिरा और नाभि नैमिषारण्य में और चरण गया में गिरे, जिससे यह तीर्थ पितरों के कार्यों के लिए जाना जाने लगा।

गोपाल शास्त्री ने बताया कि नैमिषारण्य में नाभि अंग गिरने के कारण जब तक वंशज अपने पितरों के लिए यहां पिंडदान नहीं करते तब तक उनका पेट नहीं भरता, उनकी तृप्ति नहीं होती। इसलिए नैमिषारण्य को प्रधान गया बताया गया है। कालीपीठ के गोपाल शास्त्री के अनुसार यह कोई जरूरी नहीं है कि नैमिष में ही आकर कोई पितरों की शांति के लिए पिंडदान अथवा नाभि गया करें। काशी कुंड का तो महत्व है ही, लेकिन अगर कोई इस क्षेत्र में 84 कोसीय परिक्रमा मार्ग के किसी स्थान पर बैठकर भी अपने पितरों की शांति के लिए व्यक्ति कर्मकांड करवाता है तो भी पितरों को शांति मिलती है।

नैमिषारण्य में 84 कोसी परिक्रमा मार्ग का बड़ा महत्व

श्री गोपाल शास्त्री ने हिन्दुस्थान समाचार से बताते हैं कि कोई जरूरी नहीं है की नैमिष में आकर साधु-संत अथवा ब्राह्मणों को दान या भोजन कराए, जब नैमिष में प्रवेश करने पर दरिद्र नारायण की सेवा करने का भाव किसी व्यक्ति के मन में आता है वह चाहे नर-नारी, पशु, किन्नर कोई हो, दरिद्र नारायण की सेवा करने का भाव मन में आते ही पितरों की उदर शांति होना प्रारंभ हो जाती है। शास्त्री बताते हैं कि भोजन भंडारे के लिए जहां अंतरात्मा, हृदय कहे या दरिद्र नारायण हो उसे ही भोजन करवाना चाहिए उससे भी हमारे पूर्वज प्रसन्न होते हैं।

ऐसे करें तर्पण

शास्त्रानुसार जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता हैं, तब आश्विन मास प्रारंम्भ होता है। अश्वनी माह के कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष कहा जाता है। तर्पण करने वाले को सर्वप्रथम देवताओं के लिए तर्पण करना चाहिए। यह तर्पण पूरब दिशा में मुख करके करना चाहिए। तर्पण करते समय यज्ञोपवीत व गमछा कंधे पर रहना चाहिए। जल में हाथ डालकर हाथों के अग्रभाग से जल गिराना चाहिए। इसके बाद ऋषियों के निमित्त तर्पण करना चाहिए। ऋषियों को चावल डालकर कंठी की तरह यज्ञोपवित करने के बाद उत्तर दिशा की तरफ मुख करके तर्पण करें। पितरों को अंगूठा व तर्जनी के मध्य से जौं डालकर तर्पण किया जाना चाहिए। तर्पण के समय दक्षिण की ओर मुख होना चाहिए और यज्ञोपवीत व गमछा दाहिने कंधे पर होना चाहिए। इसके बाद एक अजंलि जल भीष्म पितामह के निमित्त देना उत्तम होता है। जौ का आटा, दूध, शहद, गंगाजल, फूल, मिष्ठान, फल, तुलसीदल, कुश, जौ, तिल यज्ञोपवित्र, सामग्री के साथ पिण्डदान करें। पिण्डदान करते समय क्रोध और असत्य नहीं बोलना चाहिए। ब्राह्मण आचार्य को दान देकर सन्तुष्ट करना चाहिए।

पितृपक्ष की अमावस्या तक नैमिषारण्य के काशी कुंड में उमड़ रही भीड़

नैमिषारण्य के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता पंडित महेश चंद तिवारी ने बताया कि काशी कुंड में अपने पितरों का श्राद्ध, पिंड, तर्पण, नारायण बलि एवं मृतक कर्मकांड करवाने के लिए नेपाल सहित भारत के कई राज्यों के लोग यहां आते हैं। यहां लोग पितरों की शांति के लिए सुविधा अनुसार निवास करते हैं। कुछ लोग पितृ विसर्जनी अमावस्या तक नैमिषारण्य में रहकर काशी कुंड में प्रतिदिन तर्पण, पिंड व श्राद्ध करते हैं, तो कई श्रद्धालु एक दिन अथवा तीन दिन तक रुककर पितरों की शांति के लिए कार्यक्रम करवाते हैं।

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